राज्य का शिक्षा के अनौपचारिक साधन के रूप में
राज्य मानव के विकास में अत्यधिक सहयोगी है। यह समस्त समुदायों में श्रेष्ठ है, उसके द्वारा सभ्य सामाजिक जीवन की स्थापना सम्भव है तथा उसके अभाव में सुखी एवं सम्मानपूर्ण जीवन को प्राप्त करना नितान्त असम्भव है। प्राचीन विचारकों द्वारा राज्य को मनुष्य के एक समुदाय के रूप में ही वर्णित किया गया है किन्तु आधुनिक विचारकों के मतानुसार, राज्य के रूप में व्यक्तियों या समूहों का संगठित होना अनिवार्य है। एक सुसंगठित तथा सुव्यस्थित जीवन व्यतीत करने के लिये व्यक्तियों का एक निश्चित क्षेत्र में रहना आवश्यक होता है तथा यह भी आवश्यक है कि इन व्यक्तियों के मध्य शान्ति और व्यवस्था रखने हेतु कोई सत्ता भी हो ।
विलियम टी० हैरिस-“राज्य के संविधान का प्रभाव और शान्ति तथा युद्ध के समय अन्य राज्यों के साथ उसके सम्बन्धों का प्रभाव, शिक्षा के अन्य तीन साधनों— मानव-संस्थाओं, समाज और सभ्यता की अपेक्षा व्यक्ति को शिक्षित करने में कहीं प्रभावशाली माना जाता है।”
गिलिन और गिलिन— “राज्य एक निश्चित भू-भाग में बसे व्यक्तियों का प्रभुता सम्पन्न राजनीतिक संगठन है।”
मैकाइवर और पेज ” राज्य एक संगठन है जो किसी निश्चित भू-भाग पर सर्वशक्तिमान सरकारों के माध्यम से शासन करता है। यह सामान्य नियमों द्वारा व्यवस्था कायम रखता है।”
शैक्षिक साधन के रूप में राज्य के कार्य (Functions of State as a Agency of Education)
वस्तुतः राज्य शिक्षा का एक शक्तिशाली साधन या अभिकरण है। राज्य अनेक प्रकार के साधनों द्वारा अनौपचारिक रूप से जनता को शिक्षित करता रहता है। राज्य के निम्नलिखित शैक्षणिक कार्य इसलिये अधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन कार्यों को राज्य ही अच्छी तरह से कर सकता है। अन्य शैक्षिक अभिकरणों के पास ऐसे साधन नहीं होते कि वे इन कार्यों को अच्छी प्रकार कर सकें।
1. निश्चित आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाना (Making Education Compulsory upto a Certain Age ) — राज्य का यह प्रमुख दायित्व है कि वह एक निश्चित स्तर तक बालकों एवं बालिकाओं के लिये शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू करें। भारतीय संविधान के अनुसार भारत में 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं के लिये शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिये, यद्यपि यह लक्ष्य अपने देश में अभी प्राप्त नहीं किया जा सका है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, रूस तथा फ्रांस आदि देशों में प्रारम्भिक स्तर तक पूर्णतः अनिवार्य शिक्षा लागू है।
2. विद्यालयों की व्यवस्था (Provision of Schools)- बालक एवं बालिकायें समुचित रूप में शिक्षा ग्रहण कर सकें, इसके लिये आवश्यक है कि राज्य विभिन्न प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्था करे। प्रत्येक राज्य का यह दायित्व है कि वह अपने नागरिकों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण के लिये प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, व्यावसायिक, प्राविधिक एवं अन्य प्रकार की शिक्षा के लिये विद्यालयों की स्थापना करे। राज्य इन विद्यालयों का संचालन स्वयं भी कर सकता है अथवा अन्य अभिकरणों की सहायता एवं सहयोग से भी यह कार्य कर सकता है।
3. विद्यालयों पर आवश्यक नियन्त्रण ( Necessary Control on Educational Institutions)—विद्यालयों पर आवश्यक नियन्त्रण रखना भी राज्य का एक आवश्यक कार्य है। किन्तु यह नियन्त्रण सामान्य रूप से ही होना चाहिये, इससे शिक्षकों की स्वतन्त्रता का हनन नहीं होना चाहिये। इस नियन्त्रण के अभाव में छात्र एवं अध्यापक तथा अन्य व्यक्ति कभी-कभी विद्यालयों का शोषण करने लगते हैं तथा परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँस जाते हैं। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह विद्यालयों को इस प्रकार की कठिनाइयों से बचाने के लिये उन पर आवश्यक नियन्त्रण रखे ।
4. शिक्षा-संस्थाओं का पथ प्रदर्शन (Guidance to Schools)— शिक्षा – संस्थाओं का कार्य सुचारु रूप से चल सके, इसके लिये राज्य का कर्त्तव्य है कि शिक्षा-संस्थाओं को समुचित निर्देश एवं परामर्श दे क्योंकि आवश्यक निर्देशन के अभाव में शिक्षा-संस्थाओं का विघटन हो सकता है। विद्यालय सम्बन्धी कार्यों के सम्बन्ध में विभिन्न सूचनायें व तथ्य एकत्र करके एवं विद्यालयों को आधुनिकतम प्रविधियों की जानकारी प्रदान करके राज्य उनका समुचित निर्देशन कर सकता है।
5. अभिभावकों को प्रोत्साहन देना (To Encourage Parents)- हमारे देश के अधिकांश अभिभावक अशिक्षित हैं तथा वे शिक्षा के मूल्य एवं उपयोगिता से भी परिचित नहीं हैं। वे प्रायः बच्चों को विद्यालय न भेजकर किसी अन्य कार्य में लगा देते हैं। लेकिन जनतन्त्र की सफलता की दृष्टि से यह स्थिति उपयुक्त नहीं है। अतः सरकार रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म आदि के माध्यम से अभिभावकों को शिक्षा के महत्त्व से अवगत करा सकती है, जिससे वे बालकों को शिक्षा प्राप्त करने हेतु विद्यालयों में भेजें।
6. योग्य शिक्षकों की व्यवस्था (Provision of Efficient Teachers) शिक्षा की सफलता योग्य व कुशल शिक्षकों पर ही निर्भर है, इसलिये राज्य को चाहिये कि वह स्वयं द्वारा संचालित विद्यालयों में अध्यापकों के चयन में विशेष सावधानी बरते। इसके साथ ही वह निजी विद्यालयों में अध्यापकों के चुनाव के लिये नियमों के निर्धारण के द्वारा, विशेषज्ञ समिति में एक सदस्य को नामजद करके अथवा अध्यापकों की नियुक्ति को स्वीकृति या अस्वीकृति प्रदान करके योग्य शिक्षकों की व्यवस्था पर नियन्त्रण रख सकता है ।
7. परिषदें. एवं समितियाँ नियुक्त करना (To Appoint Boards and Committees)- राज्य का एक आवश्यक कार्य परिषदों व समितियों की नियुक्तियाँ भी हैं। उदाहरणार्थ- शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण, पाठ्यक्रम में सुधार, परीक्षा-प्रणाली में सुधार तथा अन्य शिक्षा सम्बन्धी कार्य करने हेतु राज्य द्वारा परिषदों एवं समितियों का गठन किया जाना । ये परिषद् एवं समितियाँ राज्य के कर्मचारियों एवं जनता के प्रतिनिधियों के सहयोग से कार्य करती हैं।
8. परिवार और विद्यालय में सम्बन्ध स्थापित करना (Establishing Relationship between Home and School)— बालक को शिक्षा प्रदान करने की दृष्टि से जहाँ अनौपचारिक अभिकरण के रूप में परिवार का सर्वाधिक महत्त्व है, वहाँ औपचारिक अभिकरण के रूप में विद्यालय का है। दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध का होना आवश्यक है। ऐसा नहीं होना चाहिये कि परिवार जिस आदर्श, मान्यता या परम्परा की शिक्षा देता हो, विद्यालय उसके विपरीत आदर्शों की शिक्षा दे। अतः शिक्षकों के लिये यह आवश्यक है कि वे बालक के परिवार से परिचित हों। राज्य का इस संदर्भ में यह दायित्व है कि वह किसी ऐसी संस्था का गठन करे जिसमें शिक्षकों, अभिभावकों तथा अधिकारियों के प्रतिनिधि सम्मिलित हों।
9. प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था (Provision for Adult Education)— देश की चहुँमुखी प्रगति तभी सम्भव है जब देश का प्रत्येक नागरिक शिक्षित हो व आधुनिक चेतना से परिपूर्ण हो। इसके लिये आवश्यक है कि राज्य बालक, बलिकाओं के अतिरिक्त निरक्षर अथवा अर्द्ध-साक्षर प्रौढ़ों को शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे। प्रो० वी० के० आर० वी० राव के शब्दों में, “प्रौढ़ शिक्षा और प्रौढ़-साक्षरता के बिना न तो उस विस्तार और गति से आर्थिक और सामाजिक विकास सम्भव है जिसकी हमें आवश्यकता है और न ही हमारे आर्थिक और सामाजिक विकास को वह तत्त्व, गुणात्मकता अथवा शक्ति मिल सकती है जो मूल्य और हितकारिता की दृष्टि से उसे सार्थक बनाये। इसलिये आर्थिक और सामाजिक विकास के किसी भी कार्यक्रम में प्रौढ़ शिक्षा और प्रौढ़-साक्षरता को प्रथम स्थान मिलना चाहिए।”
10. नागरिकता का प्रशिक्षण (Training in Citizenship) – किसी भी राज्य की उन्नति उसके श्रेष्ठ नागरिकों पर निर्भर करती है। इसलिये राज्य के लिये आवश्यक है कि वह युवकों को नागरिकता का प्रशिक्षण दे । नागरिकता के प्रशिक्षण में चार प्रकार के प्रशिक्षण सम्मिलित हैं— व्यावसायिक प्रशिक्षण, सांस्कृतिक प्रशिक्षण, सामाजिक प्रशिक्षण तथा राजनीतिक प्रशिक्षण । व्यावसायिक प्रशिक्षण, प्रदान करने के लिए विज्ञान, कृषि, उद्योग व व्यापार आदि के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिये। सांस्कृतिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत युवकों को यह जानकारी दी जानी चाहिए कि जिस समाज में वह रह रहा है, उसकी परम्पराएँ एवं संस्कृति किस प्रकार की हैं ? सामाजिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत उन्हें सामाजिक क्रियाओं व व्यवहार में दक्ष व कुशल बनाया जाना चाहिए तथा राजनीतिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत उन्हें मताधिकार के महत्त्व, अधिकारों व कर्त्तव्यों के बोध के साथ ही देश के शासन-प्रबन्ध का ज्ञान कराया जाना चाहिए।
11. शैक्षिक वित्त की व्यवस्था (Provision for Educational Finance)- राज्य का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बालकों की शिक्षा हेतु वित्त की व्यवस्था करे । वस्तुतः शैक्षिक व्यय को पूरा करने के लिये विभिन्न उपायों की खोज करना राज्य का ही दायित्व है । निःशुल्क शिक्षा का प्रश्न भी वित्तीय व्यवस्था से ही जुड़ा हुआ है। अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी तथा अन्य पश्चिमी देशों में माध्यमिक स्तर तक निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है। भारत में सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क है। लेकिन अब प्राय: भारत का प्रत्येक राज्य माध्यमिक स्तर तक निःशुल्क शिक्षा की दिशा में प्रयत्नशील है ।
12. सैनिक शिक्षा की व्यवस्था (Provision for Military Education)- देश की बाह्य आक्रमणों व आन्तरिक संकटों से रक्षा राज्य का प्रथम दायित्व है, अतः प्रत्येक राज्य का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह विद्यालयों में सैनिक शिक्षा की व्यवस्था करे जिससे कि रक्षा की द्वितीय पंक्ति का निर्माण हो सके तथा आवश्यकता पड़ने पर सैनिक शिक्षा प्राप्त छात्र देश की बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा में अपना योगदान दे सकें ।
13. अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था (Provision for Teacher Education) – अप्रशिक्षित शिक्षक शिक्षण कार्य प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं कर सकते, इसलिये शिक्षण व्यवसाय का चयन करने से पूर्व युवकों को प्रशिक्षित करना पड़ता है। इस प्रशिक्षण की व्यवस्था करना राज्य का कार्य है। इसके साथ ही राज्य का यह भी कर्त्तव्य है कि वह उन प्रशिक्षित अध्यापकों के लिये, जो शिक्षण व्यवसाय में लगे हुए हैं, ‘रिफ्रेशर कोर्स’ तथा ‘सेवाकालीन प्रशिक्षण’ की व्यवस्था करे ।
14. राष्ट्रीय शिक्षा योजना का निर्माण (Building a National System of Education)- वस्तुत: राष्ट्रीय शिक्षा योजना के निर्माण का दायित्व राज्य का है। इस योजना की विशेषता यह होती है कि उसमें शिशु, बालक, स्त्री, पुरुष आदि सभी नागरिकों की शिक्षा की व्यवस्था हो। इस प्रकार की शिक्षा-योजना का निर्माण राज्य ही कर सकता है। इस योजना के निर्माण में राष्ट्रीय शिक्षा-नीति भी सम्मिलित है जिसका संकल्प भारतीय संसद द्वारा भारत के सम्बन्ध में पारित हो चुका है ।
15. बालकों के शारीरिक विकास का ध्यान (Attention towards Physical Development of Children)— आज के बालक कल के नागरिक हैं । अतः स्वस्थ नागरिकों के निर्माण की ओर राज्य का ध्यान अवश्य जाना चाहिये । इस दृष्टि से राज्य के लिये आवश्यक कार्य हैं—विद्यालयों में खेल-कूद को प्रोत्साहित करना, खिलाड़ियों को अपने यहाँ आमन्त्रित करना तथा बालकों के लिये शुद्ध एवं पौष्टिक आहार की व्यवस्था करना आदि ।
16. विद्वानों का आदर (Honouring the Intellectuals)— राज्य का यह भी प्रमुख कर्त्तव्य है कि वह विद्या एवं ज्ञान को प्रोत्साहन देने हेतु कला, संगीत, भाषा तथा साहित्य की प्रगति में उल्लेखनीय योगदान देने वालों का सम्मान करे । एक सभ्य व सुसंस्कृत राज्य में कलाकारों, साहित्यकारों, भाषाविदों, अभिनेताओं, अन्य विद्वानों का सम्मान किया जाना स्वयं राज्य की प्रगति के लिये आवश्यक है। विद्वानों को अलंकृत किया जा सकता है अथवा उन्हें धन का पुरस्कार भी दिया जा सकता है।
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