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नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा,प्रकार,विशेषताएँ,कार्य, सामाजिक महत्व

नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा
नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा

नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषा

नातेदारी को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित किया है। उनमें से कुछ विद्वानों के विचार निम्नलिखित हैं-

“संगोत्रता ( बन्धुत्व) की मेरी परिभाषा उस सम्बन्ध से है, जो वंशवलियों के माध्यम से निर्धारित है तथा वर्णित भी की जा सकती है।”– डा. रिवर्स

“नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश सम्बन्ध है जोकि सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश सम्बन्ध है जोकि सामाजिक सम्बन्धों के परम्परात्मक सम्बन्धों का आधार है।”- रैडक्लिफ ब्राउन

“बन्धुत्व में सामाजिक सम्बन्धों को जैविक शब्दों में व्यक्त किया जाता है।” – लूसी मेयर

नातेदारी केवल मात्र स्वजन अर्थात् वास्तविक, ख्यात अथवा कल्पित समरक्ता वाले व्यक्तियों के मध्य सम्बन्ध है ।”– राबिन फॉक्स

नातेदारी के प्रकार

सामाजिक सम्बन्धों में से सार्वभौमिक और आधारभूत सम्बन्ध वे हैं जो प्रजनन पर आधारित होते हैं। प्रजनन की कामना दो प्रकार के सम्बन्धों को जन्म देती है:

1. समरक्त सम्बन्ध

प्रजनन के आधार पर उत्पन्न होने वाले सामाजिक सम्बन्ध में से एक प्रकार वह है जो रक्त के आधार पर बनता है अर्थात् माता-पिता तथा सन्तान के मध्य का रिश्ता।

2. विवाह सम्बन्ध

प्रजनन पर आधारित नातेदारी के सम्बन्धों में विवाह सम्बन्ध भी है जो विषम-लिंगियों के मध्य समाज की स्वीकृति के परिणामस्वरूप स्थापित होता है।

नातेदारी की श्रेणियाँ

हमारे जितने भी नातेदार हैं, उन सबसे हम समान रूप से संपर्क, निकटता एवं घनिष्ठता नहीं रखते हैं कुछ हमारे अधिक निकट हैं तो कुछ दूर। इस निकटता, घनिष्ठता एवं संपर्क के आधार पर हम नातेदारों को विभिन्न श्रेणियों में बाँट सकते हैं जैसे- प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक आदि ।

1. प्राथमिक सम्बन्धी- वे व्यक्ति जिनका हमसे सीधा सम्बन्ध या जिनके सम्बन्ध को प्रकट करने के लिए कोई और सम्बन्धी बीच में नहीं है। एक परिवार में आठ प्रकार के प्राथमिक सम्बन्ध हो सकते हैं।

2. द्वितीयक सम्बन्धी- यह सम्बन्ध वे हैं जो उपर्युक्त सम्बन्धियों के प्राथमिक सम्बन्धी है उदाहरण के लिए, एक माता-पिता के अपने प्राथमिक सम्बन्ध जैसे- चाचा, बुआ, मामा, मौसी, सास-ससुर, पुत्रवधू, दामाद, ननद, भाई, देवर, भाभी, साला-बहनोई आदि आते हैं।

3. तृतीयक सम्बन्धी- यह वे सम्बन्धी है जो हमारे द्वितीयक सम्बन्धियों के प्राथमिक सम्बन्धी हैं या हमारे प्राथमिक सम्बन्धियों के द्वितीयक सम्बन्धी हैं। पितामह हमारे तृतीयक सम्बन्धी हैं क्योंकि वे हमारे पिता के प्राथमिक सम्बन्धी के प्राथमिक सम्बन्धी है।

नातेदारी के प्रमुख कार्य

नातेदारी मानवीय सम्बन्धों को विस्तृत बनाती है। इसके कार्यों को निम्नवत् जाना जा सकता है-

1. नातेदारी की श्रेणियाँ रिश्तों की निकटता को निश्चित करती है।

2. नातेदारी में रिश्तों के अनुरूप मर्यादा निश्चित होती है, सभी उसका पालन करते हैं।

3. यह सामाजिक व्यवस्था में सन्तुलन स्थापित करती है।

4. नातेदारी से ही व्यक्ति के अन्दर उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य बोध का भाव आता है कि किस नातेदार के प्रति उसका अधिकार और कर्त्तव्य क्या है? उनकी पूर्ति भी करता है।

5. नातेदारी से भावात्मक सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है।

6. मनुष्य के मध्य होने वाली अन्तः क्रियाओं में वृद्धि होती है।

नातेदारी की विशेषताएँ

नातेदारी की विशेषताएँ, भूमिका एवं महत्व को विभिन्न शीर्षको के अन्तर्गत निम्न प्रकार से प्रकट कर सकते हैं-

(1) मानवशास्त्रीय ज्ञान का आधार- मानवशास्त्रीय अध्ययन में नातेदारी का ज्ञान एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रारम्भिक मानवशास्त्रियों ने अधिकांश महत्वपूर्ण अध्ययन नातेदारी से ही प्रारम्भ किये थे।

(2) आर्थिक हितों की सुरक्षा- नातेदारी समूह, एक व्यक्ति नहीं, वरन् द्वितीय रक्षा पंक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब एक व्यक्ति संकट अथवा कठिनाई में होता है अथवा जब उसे किसी आर्थिक कार्य का सांस्कृतिक दायित्व को पूरा करना होता है तब वह अपने विस्तृत नातेदारी समूह की ओर सहायता के लिये निहारता है।

(3) सामाजिक दायित्वों का निर्वाह- नातेदारी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह हमें सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने योग्य बनाता है। विक्टोरिया परिवार का प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान केवल इसलिए ही था कि वे एक ही रक्त के थे।

(4) मानसिक सन्तोष- नातेदारी के मनोभाव एक व्यक्ति को मानसिक सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। रक्त सम्बन्धी हमारे सबसे अधिक परिचित होते हैं क्योंकि वे हमारे सम्बन्धी हमारे सबसे अधिक परिचित होते हैं क्योंकि वे हमारे ही अंग के हिस्से समझे जाते हैं। नातेदारों के बीच अपने को पाकर एक व्यक्ति अपने में अपार मानवीय आनन्द प्रसन्नता और सन्तोष महसूस करता है।

(5) विवाह एवं परिवार का निर्धारण- अन्तर्विवाह, बहिर्विवाह, समलिंग सहोदरज एवं विषमलिंग सहोदरज विवाह आदि का निर्धारण नातेदारी के आधार पर होता है।

(6) वंश, उत्तराधिकार एवं पदाधिकार का निर्धारण- नातेदारी वंशावली का निर्धारण करती है। वंशावली की लम्बाई प्रतिष्ठा का मापदण्ड होती है। परिवार वंश गोत्र, भ्रातृदल एवं अद्धांश नातेदारी के ही विस्तृत स्वरूप हैं।

नातेदारी की सामान्य आचरण प्रथाएँ

नातेदारी की कुछ प्रमुख आचरण प्रथाओं को इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है –

1. परिहार प्रथा- कुछ नातेदारों के मध्य रिश्तों में दूरी रखने की प्रथा पाई जाती है, उसके बीच का भाव चाहे सम्मान हो या फिर उस सम्बन्ध से परहेज।

2. परिहास प्रथा- जहाँ दो सम्बन्धों के मध्य हास- परिहास का सम्बन्ध होता है जैसे जीजा-साले, ननद-भाभी, देवर-भाभी, मामा-भान्जे के मध्य हंसी-मजाक, दिल्लगी और मजाक के ढंग से गाली-गलौज भी होती रहती है।

3. अनुनामिता प्रथा- अनुनामिता प्रथा में कुछ रिश्तों में व्यक्ति विशेष को उसका नाम न लेकर संकेतात्मक नाम से परिचय देना या बुलाना। P

4. मातुलेय प्रथा- मातृ सत्तात्मक परिवार में मामा का सम्बन्ध पिता से घनिष्ठ माना जाता है। मामा का सम्बन्ध पितृ सत्तात्मक परिवारों में अधिक घनिष्ठ होता है।

नातेदारी का सामाजिक महत्व (Social Importance of Kinship)

सरल और आदिम समाजों में नातेदारी एक वास्तविक संस्था है। सामाजिक संरचना में इसके महत्व को निम्न प्रकार से भली-भाँति समझा जा सकता है –

1. नातेदारी विवाह एवं परिवार का निर्धारण करती है- नातेदारी द्वारा अन्तर्विवाह, बर्हिविवाह, समलिंगी एवं विषमलिंगी विवाह आदि का निर्धारण किया जाता है। परिवार में रक्त एवं विवाह सम्बन्ध पर आधारित सदस्य होते हैं। दोनों ही प्रकार के सदस्यों को हम नातेदार कहते हैं। परिवार का विस्तार नातेदारी का विस्तार ही है। रैडक्लिफ ब्राउन जैसे मानवशास्त्री की मान्यता है कि विवाह एवं नातेदारी एक-दूसरे के मध्य व्यवस्था उत्पन्न करते हैं।

2. नातेदारी वंश उत्तराधिकार एवं पदाधिकार का निर्धारण करती है- नातेदारी वंशावली का निर्धारण करती है। परिवार, वंश, गोत्र आदि नातेदारी के ही विस्तृत स्वरूप है। एक व्यक्ति की सम्पत्ति एवं पद का हस्तान्तरण किन लोगों में होगा, कौन-कौन उसके दावेदार होंगे, यह नातेदारी के आधार पर ही तय किया जाता है।

3. नातेदारी आर्थिक हितों की सुरक्षा करती है- मरडॉक का कहना है कि जब एक व्यक्ति संकट अथवा कठिनाई की स्थिति में होता है या जब उसे किसी आर्थिक अथवा सांस्कृतिक कार्यों को पूरा करना होता है तब वह अपने विस्तृत नातेदारी समूह की ओर सहायता के लिये निहार सकता है। अतः समुदाय अथवा सम्पूर्ण जाति में अन्य सदस्यों की अपेक्षा नातेदारों को उसे सहायता देने का दायित्व सर्वाधिक है। इस प्रकार आर्थिक संकटों के समय नातेदार ही एक व्यक्ति को शरण देते हैं एवं उसकी सुरक्षा करते हैं।

4. नातेदारी सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करती है- नातेदार एक नैसर्गिक परामर्शदाता होता है। वह कठिन परिस्थितियों में भी एक सहायक के रूप में अपने दायित्वों को निभाता है। यद्यपि आधुनिक समाज में नातेदारों के सम्बन्धों में कमी देखने को मिलती है जिससे आधुनिक समाज नातेदारी सम्बन्धों में कमी वाला समाज कहा जा सकता है, फिर भी उनमें नातेदारी के मनोभाव और दायित्व पर्याप्त रूप में विद्यमान है। लेवी का कहना है कि एक नातेदार दूसरे नातेदार को बिना फल की आशा किये हुये निःशुल्क सेवाएँ देता है।

5. नातेदारी व्यक्ति को मानसिक सन्तुष्टि प्रदान करती है- नातेदारी के मनोभाव एक व्यक्ति को मानसिक सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। नातेदारों के बीच अपने को पाकर एक व्यक्ति अपार मानवीय आनन्द और सन्तोष महसूस करता है।

  1. परिवार की विशेषताएँ | Characteristics of Family in Hindi
  2. परिवार में आधुनिक परिवर्तन | Modern Changes in Family in Hindi
  3. परिवार की उत्पत्ति का उद्विकासीय सिद्धान्त
  4. परिवार का अर्थ एवं परिभाषा | परिवार के प्रकार | परिवार के कार्य

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