B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

विकास का अर्थ | विकास के कारण | विकास में होने वाले परिवर्तन के प्रकार

विकास का अर्थ
विकास का अर्थ

विकास का अर्थ (Meaning of Development)

वृद्धि, विकास, परिपक्वन तथा पोषण आदि आधारभूत धारणाओं में कोई निश्चित प्रतिमान नहीं हैं। सभी आपस में मिले-जुले वाले शब्द हैं। निम्न समीकरण के द्वारा हम कुछ सीमा में उपर्युक्त धारणाओं के भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकते हैं-

परिपक्वन + पोषण विकास परिपक्वन से हमारा अभिप्राय उस आन्तरिक एवं गुणात्मक क्रम से है, जो कि स्वाभाविक होता है अथवा जिस पर किसी बाह्य तत्त्व का प्रभाव नहीं पड़ता। पोषण की कमी होने पर भी परिपक्वन की प्रक्रिया चलती रहती है। “परिपक्वता” (Maturity) शब्द विकास की विशेष अवस्था की प्राप्ति होने पर प्रयोग में लाया जाता है, अर्थात विकास में परिपक्वता की ओर बढ़ने का निश्चित क्रम होता है। पोषण का सम्बन्ध अधिकांश रूप से शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति से है।

उपर्युक्त समीकरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि विकास परिपक्वन और पोषण से उत्पन्न परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बालक के जीवन से आरम्भ से अन्त तक चलती है। विकास की इस प्रक्रिया को हरलॉक शृंखलाबद्ध कहता है, क्योंकि मानव के व्यक्तित्व के समंजन हेतु यह शृंखलाबद्धता अनिवार्य है। “विकास का अर्थ परिवर्तन की उस उन्नतशील शृंखला से है, जो कि परिपक्वन के एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।”

हरलॉक की इस परिभाषा से तीन तथ्य हमारे सम्मुख आते हैं-

1. विकास परिवर्तन का सूचक है।

2. विकास एक निश्चित क्रम अर्थात् नियम होता है।

3. विकास की निश्चित दिशा या लक्ष्य होता है।

गैसल हरलॉक की विवेचना से सहमत हैं। उनका कहना है कि “विकास एक धारण मात्र से अधिक है तथा इसका निरीक्षण एवं कुछ सीमा तक मापन भी किया जा सकता है।” अतः विकास मानव व्यक्तित्व एवं व्यवहार की पूर्णता को जानने का मापदण्ड है। व्यक्ति के विकास से अभिप्राय उसके गर्भ में आने से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त होने की स्थिति से है।

हरलॉक के शब्दों में-“विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके अतिरिक्त, इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील श्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”

विकास के कारण (Reason of Development)

बालकों के शारीरिक, मानसिक एवं सांस्कृतिक विकास के दो महत्त्वपूर्ण कारण बतलाये गये।

(1) परिपक्वता (Maturation) और

(2) अधिगम (Learning)। यहाँ इनका उल्लेख किया जा रहा है-

(1) परिपक्वता- परिपक्वता का तात्पर्य है व्यक्ति के आन्तरिक अंगों का प्रौढ़ होना और उन गुणों का विकसित होना जो उसे वंश परम्परा से प्राप्त होते हैं। बालक के विकास पर परिपक्वता की प्रक्रिया का प्रभाव आरम्भ से लेकर तब तक पड़ता रहता है जब तक कि उसे मांसपेशीय और स्नायुविक दृढ़ता और प्रौढ़ता पूरी तरह से प्राप्त नहीं हो जाती। वुल्फ एवं वुल्फ का विचार है- “परिपक्वता का तात्पर्य, विकास की उस निश्चित अवस्था से है जिसमें वे ऐसे कार्य करने के योग्य हो जाते हैं जो वे इस अवस्था से पूर्व नहीं कर सकते थे।” परिपक्वता आन्तरिक विकास की प्रक्रिया है। इसी के फलस्वरूप बालक के शारीरिक अवयवों में नयी क्रियाओं को सीखने की क्षमता उत्पन्न होती है।

(2) अधिगम- वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करते समय व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में जो परिवर्तन होते हैं उसे अधिगम अथवा सीखना कहा जाता है। परिपक्वता और अधिगम की क्रियाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों का प्रभाव एक-दूसरे पर पड़ता है। विकास के अन्तर्गत इन दोनों का महत्त्व है। परिपक्वता का सम्बन्ध वंशानुक्रम से और अधिगम का सम्बन्ध वातावरण से होता है।

विकास में होने वाले परिवर्तन के प्रकार (Types of Changes in Development)

बालक के विकास में परिवर्तन होते हैं उनका शरीर और मन दोनों से ही सम्बन्ध होता है। विकास के अन्तर्गत होने वाले परिवर्तनों को प्रसिद्ध वैज्ञानिक हरलॉक (Hurlock) चार भागों में बाँटता है, जिनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है

(1) आकार में परिवर्तन (Changes in Size)- यह परिवर्तन विशेष रूप से शारीरिक वृद्धि (Growth) पर दिखलाई पड़ता है, परन्तु यदि इसके लिये प्रमाणित बुद्धि-परीक्षा का प्रयोग किया जाय तो वह मानसिक विकास में भी देखा जा सकता है। ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता है उसकी भार, ऊँचाई, मोटाई आदि में अन्तर आता रहता है। उसके आन्तरिक अवयव (Internal Organs) जैसे फेफड़ा, पित्त, आँतें, पेट आदि बढ़ते रहते हैं। ये अंग शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।

दिखलाई पड़ता है। इसका मापन बुद्धि परीक्षणों द्वारा किया जा सकता है। इस तरह शारीरिक मानसिक विकास के अन्तर्गत शब्द-भण्डार, स्मरण, कल्पना, तर्क शक्ति में विकास विकास के साथ ही बौद्धिक प्रक्रियाओं में भी परिवर्तन दिखलाई देता है।

(2) अनुपात में परिवर्तन (Changes in Proportion)-  बालक का शारीरिक विकास  केवल उसके आकार में परिवर्तन तक ही सीमित नहीं रहता। बालक के सभी अंग एक समान रूप से नहीं बढ़ते। नवजात शिशु का सिर उसके अन्य अंगों की अपेक्षा काफी बड़ा होता है, परन्तु जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता जाता है, उसका सिर शरीर के अनुपात में अपेक्षाकृत कम बढ़ता है।

बालकों में यथार्थता का अंश तो कम होता है परन्तु आयु बढ़ने के साथ-साथ उनकी रुचि का मानसिक विकास के अन्तर्गत भी अनुपात दिखलाई पड़ता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था में क्षेत्र विकसित होता जाता है।

(3) पुरानी आकृतियों का लोप (Disappearance of Old Features)- विकास में पुरानी आकृतियों का लोप हो जाता है। ज्यों-ज्यों बालक का शारीरिक विकास होता है उसके सीने में स्थित थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland) और मस्तिष्क के पास स्थित पीनियल ग्रन्थि (Pineal gland) शनैः-शनैः गायब होती जाती है। बचपन में बालों एवं दाँतों का लोप भी अत्यन्त स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है।

इसी तरह मानसिक गुणों (Mental Traits) में भाषा विकास में बलबलाना (babbling) और अन्य प्रकार की ध्वनियाँ करना जैसे चीखना आदि भी शनैः शनैः समाप्त हो जाते हैं। बचपन का रेंगना एवं घिसटना (Creeping and Crawling) भी शनैः शनैः समाप्त हो जाते हैं।

(4) नई आकृतियों की प्राप्ति (Acquisition of New Features)- पुरानी आकृतियों के समाप्त होने के साथ ही नई शारीरिक एवं मानसिक आकृतियों की प्राप्ति स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है जो परिपक्चन (Maturation) एवं सीखने की प्रक्रिया ( Learning Process) के परिणामस्वरूप होती है। शारीरिक विकास के अन्तर्गत स्थायी दाँतों का निकलना और किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन इसके सूचक हैं। मानसिक विकास के अन्तर्गत जिज्ञासा, विशेष रूप से यौन सम्बन्धी जिज्ञासा, ज्ञान, नैतिकता, धार्मिकता, विश्वास आदि आते हैं।

Important Links…

Disclaimer

Disclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment