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ई-अधिगम या ई-लर्निंग, विशेषताएँ, प्रकृति एवं क्षेत्र, सीमाएँ (कमियाँ)

ई-अधिगम या ई-लर्निंग
ई-अधिगम या ई-लर्निंग

ई-अधिगम या ई-लर्निंग

ई-अधिगम या ई-लर्निंग (E-Learning )-  ई-लर्निंग अधिगम की वह प्रक्रिया है, जिसमें सूचना या सामग्री के वितरण के लिए एक साथ नेटवर्क (Network), अंतर्क्रिया (Interaction) तथा सुविधा (Falicitation) का प्रयोग किया जाता है।

केनेट (Kenet) के शब्दों “ई-लर्निंग एक प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया है, जिसकी रचना ई-डिजिटल शिक्षण सामग्री, स्थानीय समुदाय, ट्यूटर तथा वैश्विकी समुदाय की सहायता व सम्पर्क द्वारा संयुक्त रूप से होती है।”

इस प्रकार ई-लर्निंग शिक्षा और प्रौद्योगिकी का मिश्रण है।

ई-लर्निंग के अन्तर्गत, अधिगम उद्देश्य से विभिन्न स्रोतों द्वारा सामग्री या पाठ्यवस्तु को विभिन्न संचार प्रणालियों के माध्यम से वितरित किया जाता है। यह एक प्रकार से उन विद्यार्थियों के लिए सतत् शिक्षा प्रणाली है जो औपचारिक विधियों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हो जाते हैं।

ई-लर्निंग को अन्य नामों से भी जाना जाता है; जैसे- डिस्ट्रीब्यूट लर्निंग, डिस्टेंस लर्निंग, टेक्नोलॉजी एनेबल्ड लर्निंग तथा आन लाइन लर्निंग आदि ।

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बी. ई-लर्निंग की विशेषताएँ एवं प्रकृति (Characteristics and Nature of E-Learning)

ई-लर्निंग की विशेषताओं के बारे में निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं

1. ई-लर्निंग एक प्रगतिशील प्रत्यय है, इसमें नित नये आयाम सृजन होते रहते हैं; जैसे- मोबाइल लर्निंग ।

2. ई-लर्निंग समकालिक या असमकालिक हो सकती है, अर्थात् इसे कई रूपों में प्रयोग किया जा सकता है।

3. ई-लर्निंग को दूरवर्ती शिक्षा के समतुल्य नहीं देखना चाहिए, दोनों के प्रत्ययों में कुछ समानता तथा असमानताएँ हैं।

4. कम्प्यूटर सहाय अनुदेशन, कम्प्यूटर प्रबन्धित अनुदेशन तथा मल्टीमिडिया आदि को ई-लर्निंग का दर्जा तब तक नहीं दिया जा सकता जब तक ई-सेवाओं का प्रयोग कर उन्हें शिक्षण अधिगम में प्रयुक्त न किया जाए।

5. ई-लर्निंग के लिए अध्यापक तथा छात्रों की तकनीकी का ज्ञान आवश्यक है।

6. ई-लर्निंग बिना बिजली / ऊर्जा के साधन के बिना निष्क्रिय हो जाती है।

7. ई- लर्निंग इण्टरनेट सेवाओं तथा वेब सुविधाओं के बिना सम्भव नहीं है।

8. ई-लर्निंग में इलेक्ट्रॉनिक्स ही (ई) उपकरणों; जैसे-कम्प्यूटर, सी. डी. रोम, दृश्य-श्रृव्य उपकरणों, मल्टीमीडिया आदि का प्रयोग किया जाता है।

ई-लर्निंग का क्षेत्र (Scope of E-Learning)

इन्हीं इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों तथा इण्टरनेट सेवाओं का प्रयोग कर अन्य क्षेत्रों में ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग, ई-मेल तथा ई-बुकिंग जैसे कार्यों को सम्पादित किया जाता है, अर्थात् ई. लर्निंग का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसी प्रकार ई-लर्निंग युक्त सुविधाओं के सन्दर्भ में रोजेनवर्ग (2001) ने ई-लर्निंग को इस प्रकार परिभाषित किया है- “ई-लर्निंग से तात्पर्य इण्टरनेट तकनीकियों के ऐसे प्रयोग से है जिनसे विविध प्रकार ऐसे रास्ते खुलें जिनके द्वारा ज्ञान और कार्य क्षमताओं में वृद्धि की जा सके।

ई-लर्निंग की विधियाँ (Mehods of E-Learning)

ई-लर्निंग की विधियों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-

(1) समकालिक (Synchronous)- इस विधि में कक्षाएँ वास्तविक या निश्चित समय पर एक साथ चलाई जाती हैं। कक्षाएँ निर्देशन व प्रशिक्षण आधारित होती हैं। विद्यार्थियों/अधिगमकर्त्ताओं से सम्पर्क चैट रूम के द्वारा होता है।

(2) विषमकालिक (Asynchronous) – इस विधि में विद्यार्थी / अधिगमकर्ता को प्रशिक्षण के लिए पहले से तैयार पैकेज (Pre-packaged Training) उनकी आवश्यकता और सुविधानुसार उपलब्ध कराये जाते हैं।

ई-अधिगम की प्रमुख अवस्थाएँ एवं शैलियाँ (Various Modes and Styles of E-Learning)

ई-अधिगम की प्रक्रिया एडवॉन्स इलेक्ट्रॉनिक साधनों द्वारा प्रदान की जाती है ये इलेक्ट्रॉनिक साधन कम्प्यूटर, मल्टीमीडिया, मोबाइल एवं सूचना संचार तकनीकी के साधन आदि हो सकते हैं। इस अधिगम की दशाओं की पूर्ति प्रमुख ई-अधिगम की अवस्थाओं द्वारा देखी जा सकती हैं एवं निम्न में से किसी भी अवस्थाओं एवं शैलियों का प्रयोग किया जा सकता है ये ई-अधिगम की अवस्थाएँ एवं शैलियाँ निम्न प्रकार स्पष्ट की जा सकती हैं-

1. आलम्ब अधिगम या सर्पोट लर्निंग

2. मिश्रित अधिगम या ब्लैंडेड लर्निंग

3. पूर्ण अधिगम या कम्पलीट लर्निंग

इनको निम्न प्रकार वर्णित किया जा सकता है-

1. आलम्ब अधिगम (Support Learning)

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में ई-अधिगम कक्षा में विभिन्न प्रकार से सहयोग एवं आलम्ब प्रदान कर सकता है। परिणामस्वरूप एक शिक्षक अपने शिक्षण प्रक्रिया को एक शिक्षार्थी की आवश्यकताओं के अनुरूप बेहतर बना सकता है। वह मल्टीमीडिया, इण्टरनेट, वेब सेवाओं का प्रयोग करके अपने शिक्षण एवं अधिगम प्रक्रिया को कक्षा-कक्ष गतिविधियों द्वारा उन्नत बना सकता है। यह निम्न प्रकार से हो सकता है

(i) आनॅलाइन, ऑफलाइन लर्निंग (Online and Offline Learning)

ऑनलाइन एवं ऑफलाइन कम्प्यूटर तकनीकी एवं दूरसंचार के क्षेत्र में प्रयोग होने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रत्यय है। यहाँ ऑनलाइन, नेटवर्क से जुड़े होने की अवस्था को प्रदर्शित करता है तथा ऑफलाइन नेटवर्क से बाहर होने की अवस्था को ।

हमें यह ज्ञात है कि इंटरनेट का उपयोग करने के लिए हमें किसी भी नेटवर्क कम्पनी के माध्यम से किसी उपकरण (मॉडेम या डाटा केबल या डाटा कार्ड) के द्वारा इंटरनेट सेवाओं को प्राप्त करते हैं। जब हम इन सेवाओं को प्राप्त कर रहे होते हैं तब हम ऑनलाइन होते हैं। यदि हम इन उपकरणों का प्रयोग हटा दें, अथवा इसे बन्द कर दें तब हम नेटवर्क क्षेत्र से बाहर हो जाएँगे तथा हमारा सबसे सम्पर्क टूट जाएगा, इसे हम ऑफलाइन होना कहेंगे। उदाहरण लिए जब हम अपने मोबाइल में नेट पैक डालते हैं तथा उसका उपयोग करते हैं तब हम के ऑनलाइन रहते हैं। डेटापैक समाप्त होने पर अथवा उसका उपयोग न करने पर हम ऑफलाइन हो जाते हैं।

(ii) मोबाइल लर्निंग (Mobile Learning)

मोबाइल लर्निंग वर्तमान समय की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। मोबाइल लर्निंग से तात्पर्य किसी भी ऐसे उपक्रम से है जिसके द्वारा हम किसी भी प्रकार की शैक्षिक विषयवस्तु को अपने व्यक्तिगत मोबाइल सेट पर प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ शैक्षिक विषयवस्तु से अर्थ वेब सेवाओं से प्राप्त अधिगम सामग्री से है जिसका प्रयोग हम इण्टरनेट द्वारा ई-लर्निंग में करते हैं।

मोबाइल लर्निंग को ई-लर्निंग का तात्कालिक वंशज या ई-लर्निंग से उत्पन्न मानते हैं। मोबाइल लर्निंग को परिभाषित करते हुए पिंकवार्ट लिखते हैं, “मोबाइल लर्निंग ई-लर्निंग का वह रूप है जिसमें सूचनाओं का आदान-प्रदान मोबाइल अथवा ताररहित उपकरण से होता है।”

मोबाइल लर्निंग द्वारा हमें सम-सामयिक घटनाओं की जानकारी निरन्तर प्राप्त होती रहती आज इसकी उपयोगिता प्रत्येक क्षेत्र में गाँवों, कस्बों एवं शहरों, नगरों में उच्च स्थान पर बनी हुई है।

2. ब्लेण्डेड लर्निंग या मिश्रित अधिगम (Blended Learning)

यदि ई-लर्निंग के उपागमों Synchronous या Asynchronous तथा परम्परागत शिक्षण पद्धति का प्रयोग एक साथ शिक्षण-अधिगम में किया जाता है तो इसे मिश्रित अधिगम या blended learning की संज्ञा दी जाती है।

सामान्यतः परम्परागत शिक्षण में इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों या जैसे कम्पूयटर, सी. डी. डी. वी. डी. तथा इंटरनेट सुविधाओं या वेब ज्ञान का प्रयोग न्यूनतम होता है, और पूर्णरूपेण ई-लर्निंग में वास्तविक कक्षा-कक्ष की प्रभावशाली अन्तःक्रिया का अभाव रहता है। मिश्रित अधिगम में इन दोनों प्रणालियों की विशेषताओं को इस प्रकार नियोजित या संयोजित किया जाता है जिससे दोनों की विशेषताओं या गुणों का समावेश हो सके तथा शिक्षण-अधिगम को और अधिक प्रभावी बनाया जा सके।

उदाहरण के लिए परम्परागत शिक्षण के कुछ पाठ्यक्रम को ई-लर्निंग या कम्प्यूटर और देव ज्ञान पर आधारित करके पढ़ाये जायें।

3. पूर्ण ई-अधिगम (Complete E-Learning)

इस प्रकार कक्षा शिक्षण-अधिगम में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। यहाँ पर कक्षा का स्कूलों का एवं अधिगम की अवस्था में परम्परागत कक्षा शिक्षण को पूर्ण रूप से आभासी शिक्षण अधिगम वातावरण का कोई अस्तित्व नही रहता है। जो परम्परागत रूप से स्कूल शिक्षण में वातावरण प्रदान किया जाता रहा है उस वातावरण स दूर हटकर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को सफल बनाया जाता है। शिक्षार्थी स्वतंत्रतापूर्वक अपना ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्णतः ई-अधिगम के पाठ्यक्रमों की सहायता से अधिगम के लिए स्वतंत्र होत है। अधिकतम अधिगम प्रक्रियाएँ ऑनलाइन ही प्राप्त की जाती हैं लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उन्हें पूर्ण रूप से भण्डारित सूचनाओं एवं संग्रहित अधिगम पैकेजों द्वारा शिक्षण अधिगम प्रदान किया जाता हैं। । ये पैकेज अधिगम रिकर्डिंग किये गये CD-ROM, DVD इत्यादि के रूप में होते हैं। 

इस प्रकार के ई-अधिगम के क्रियाकलाप संचार की दो निम्नलिखित शैलियों में स्वीकार किये जा सकते हैं-

(i) समकालिक ई-अधिगम (Sychronous E-Learning)

समकालिक अधिगम से तात्पर्य शिक्षक तथा शिक्षार्थी का एक ही समय में अधिगम के लिए उपस्थित होना है। जैसा कि हम जानते हैं कि ई-लर्निंग में इंटरनेट और वेब सुविधाओं के मध्य किसी भी स्थान से शिक्षक एवं शिक्षार्थी में अन्तःक्रिया द्वारा शिक्षण एवं अधिगम की क्रिया संपादित होती है।

समकालिक अधिगम में शिक्षक एवं शिक्षार्थी एक ही समय पर इण्टरनेट पर उपस्थित होकर एक-दूसरे से दूर होते हुए भी विचारों का आदान-प्रदान करते हुए अधिगम में सहायक होते हैं। जैसे शिक्षार्थी किसी भी शंका का समाधान उसी समय प्राप्त कर सकता है। जैसा कि परम्परागत शिक्षण में होता है क्योंकि शिक्षक भी उसी समय में उपस्थित रहता है । इस प्रकार वास्तविक रूप से सामने न होते हुए भी इण्टरनेट के माध्यम से किया जाने वाला सेंक्रोनस सम्प्रेषण काफी सीमा तक शिक्षक और शिक्षार्थी को आभासी रूप से आमने-सामने लाकर शिक्षण एवं अधिगम में प्रभावी भूमिका निभाता है।

(ii) असमकालिक ई-अधिगम (Asychronous E-Learning )

जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह समकालिक अधिगम के विपरीत है, इसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी इण्टरनेट व कम्प्यूटर के माध्यम से अन्तःक्रिया करते हैं किन्तु वे एक ही समय में एक साथ उपलब्ध नहीं रहते हैं। अध्ययन सामग्री वेब पर पहले से ही उपलब्ध रहती है, शिक्षार्थी अपनी सुविधानुसार या इच्छानुसार शिक्षण सामग्री का प्रयोग कर सकता है व अपनी शंका समाधान हेतु वह शिक्षक से प्रश्न भी पूछ सकता है। शिक्षक भी अपनी सुविधानुसार उसे प्रतिपुष्टि या उत्तर देकर आगे की अध्ययन सामग्री पढ़ने का निर्देश दे सकता है। इस प्रकार का अधिगम सुविधाजनक तो होता है किन्तु इसमें वास्तविक कक्षाकक्ष जिसमें आमने-सामने (face to face) अन्तःक्रिया होती है, का नितान्त अभाव होता है।

ई-लर्निंग के शैक्षिक उद्देश्य (Learning Objectives of E-Learning )

अन्य पाठ्यक्रमों की तरह ई-लर्निंग भी छात्रों को किसी विशेष विषय पर ज्ञान या दक्षता प्रदान करता है। मुख्य अन्तर सिखाने के तरीके एवं प्रक्रिया में है। जहाँ कक्षा शिक्षण में छात्र अपने शिक्षक एवं सहपाठियों से सीधे सम्पर्क में रहकर ज्ञान का अनुभव लेते हैं, वहीं ई-लर्निंग या ई-अधिगम में छात्र इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के माध्यम से अभासी कक्षाकक्ष में ज्ञान प्राप्त करते हैं। वह ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिक स्वतन्त्र होते हैं।

ई-लर्निंग में अधिगम उद्देश्यों को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) छात्रों को अपने पाठ्यक्रम को समय सीमा के अन्दर समाप्त करने के लिए प्रेरित करना।

(2) अधिगम विषय-वस्तु को प्रभावी एवं सरल रूप में छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करना। 

(3) छात्रों के ई-अधिगम अनुभव को गुणवत्तापूर्ण बनाना।

(4) छात्रों को अपनी सुविधानुसार सीखने के लिए अपेक्षित वातावरण प्रदान करना।

(5) छात्रों में स्वअनुशासन, स्वअधिगम एवं स्वमूल्यांकन के गुणों का विकास करना। छात्रों में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने (blogging, tweet, writing on line articles) में सक्षम एवं कुशल बनाना।

(6) छात्रों को (Peer learning interaction) सहपाठी अन्तःक्रिया के लिए प्रेरित करना।

(7) छात्रों को ई-अधिगम में आने वाली समस्याओं का निवारण करने के लिए समय-समय पर प्रतिपुष्टि प्राप्त करना ।

ई-अधिगम के शैक्षणिक प्रारूप (Pedagogical Designs of E-Learning)

ई-अधिगम के शैक्षिक प्रारूप इस प्रकार हैं-

1. ई-लर्निंग के पाठ्यक्रम या पाठ्यवस्तु को तैयार करने में भी अधिगम के सिद्धान्तों को आधार बनाया जाता है तथा उनको अपनाते हुए ही पाठ्यक्रम का विकास किया जाता है। उदाहरण के लिए छात्र जैसे ही अपना अध्याय पूरा करते हैं उन्हें प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है।

2. तकनीकी विशेषज्ञों एवं विषयवस्तु विशेषज्ञों के ज्ञान को एकीकृत करना अर्थात् ई-लर्निंग के पाठ्यक्रम को डिजाइन करने (प्रारूप तैयार करने में तकनीकी विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है।

3. कक्षाकक्ष अधिगम एवं ई-अधिगम की विधि एवं स्वरूप में अन्तर होने के कारण इनके प्रारूप में भी पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है।

4. ई-अधिगम का प्रारूप करने में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक पाठ के प्रस्तुतिकरण में सही तकनीकी का चुनाव एवं प्रयोग किया जाए।

5. आज ई-अधिगम के क्षेत्र में विभिन्न ‘अधिगम प्रबन्धन प्रणालियों का विकास हो चुका है तथा ये ई-अधिगम में विशेष भूमिका निभा रही हैं। आज ब्लैक बोर्ड (Black board), फर्स्ट क्लास (First class), मूडल (Moodle), लोटस (Lotus) तथा नोट्स (Notes) नामक ‘अधिगम प्रबन्धन प्रणालियाँ’ विशेष लोकप्रिय हैं।

ई-लर्निंग के विभिन्न घटक एवं भूमिका (Different Factors and its Role in E-Learning)

ई-लर्निंग के प्रमुख घटक निम्न प्रकार के होते हैं-

(1) सामग्री वितरण की विधियाँ (Content Delivery Method)- पारम्परिक अधिगम प्रणाली में शिक्षण सामग्री पाठ के रूप में होती है लेकिन ई-लर्निंग सामग्री में पाठ के साथ-साथ श्रव्य-दृश्य सामग्रियाँ भी उपलब्ध कराई जाती हैं। व्यक्तित्व रूप से अधिगमकर्ता के स्तर और प्रगति के आधार पर सामग्री का अनुकूलन और आपूर्ति की जाती है। ई-लर्निंग की प्रक्रिया की दूसरी पीढ़ी की निम्न विधियाँ हैं

(i) लाइव ब्रॉडकास्टिंग- टेलीविजन के समान ही ई-लर्निंग द्विमार्गी प्रणाली की तरह कार्य कर सकती है। अधिगमकर्ता को परीक्षा देने, प्रश्न पूछने, प्रश्नावली के उत्तर देने की छूट मिलती है।

(ii) वीडियो आन डिमांड (VOD)- यह तकनीकी केबिल टेलीविजन (CATV) प्रणाली के द्वारा प्रस्तुत की जाती है। अधिगमकर्ताओं का एक बड़ा समूह वीडियो सामग्रियों को प्राप्त कर सकता है। यह लाइव ब्रॉडकास्टिंग की तरह ही द्विमार्गी प्रणाली की तरह कार्य करती है।

(2) अंतर्क्रियात्मक सम्प्रेषण- इस प्रकार की ई-लर्निंग में तकनीकी की द्वि-मार्गी क्षमता का प्रयोग ही होता है। इस विधि के दो उपागम हैं

(i) दूरस्थ शिक्षा- दूरस्थ शिक्षा उपागम में प्रशिक्षक तथा विद्यार्थी अलग-अलग स्थानों पर रहते हुए भी ब्लैकबोर्ड की तरह शेयर फाइल का प्रयोग करते हुए अंतर्क्रिया करते

(ii) सामुदायिक उपागम- सामुदायिक उपागम में प्रशिक्षक ही पूरी आभासी कक्षा का केन्द्रबिन्दु होता है लेकिन इस विधि में संभव होता है कि विद्यार्थी विशेष विषयों पर विशेषताओं से परामर्श ले सकते हैं तथा परिचर्चा कर सकते हैं।

(3) लिखने या निर्माण के उपकरण (Authoring Tools)- ये तैयार किए गए सॉफ्टवेयर (Software products) हैं। ये वे उपकरण हैं जिनका प्रयोग शिक्षण सामग्री के निर्माण के लिए किया जाता है।

(4) अधिगम प्रबन्धन प्रणाली (Learning Management System LMS)- प्रारम्भ से ही ई-लर्निंग का सबसे प्रमुख घटक ‘अधिगम प्रबन्धन प्रणाली’ रहा है। इस प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थी, मैनेजर तथा ऑपरेटर को यह सुविधा मिलती है कि वह अपनी व्यक्तिगत प्रगति तथा निष्पादन क्षमता (Performance) को जान सके और उसका मूल्यांकन भी कर सकें ।

ई-लर्निंग में हमेशा यह प्रयास रहता है कि व्यक्तिगत अधिगम आवश्यकताओं की पूर्ति सुविधा के लिए बहुत ही सूक्ष्म रूप से तैयार निर्देशों का निर्माण किया जाय।

ई-लर्निंग की प्रासंगिकता (Relevance of E-Learning)

विगत वर्षों में ई-बिजनेस (E-business) तथा ई-कॉमर्स (E-Commerce) जैसे शब्दों का सामान्य प्रयोग प्रारम्भ हुआ, इन्हीं शब्दों के साथ-साथ ई-लर्निंग भी विश्व पटल पर उभरा है। ई-लर्निंग को वेब-बेस्ड ट्रेनिंग (Web Besed Training) के नाम से भी जाना जाता है ई-लर्निंग की अवधारणा नई नहीं है। इंटरनेट (Internet), कम्प्यूटर की सहायता से प्रशिक्षण (CAI) तथा कम्प्यूटर आधारित प्रशिक्षण (CBT) आदि के पीछे भी ई-लर्निंग की अवधारणा ही रही है। सन् 70 के दशक में पर्सनल कम्प्यूटर (PC), CAI तथा CBT का प्रयोग अवश्य प्रारम्भ हो गया था लेकिन अधिगम व प्रशिक्षण के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन ‘इंटरनेट’ के आगमन के साथ माना जा सकता है

ई-लर्निंग की सीमाएँ (Limitations of E-Learning)

ई-लर्निंग की कमियाँ या सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) ई-लर्निंग को प्रयोग में लाने के लिए शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होती है। विद्यालय प्रशासन, यहाँ तक कि शिक्षकों में भी इसके लिए पर्याप्त उत्साह देखने को नहीं मिलता, वे परम्परागत शिक्षण से हटकर कुछ करने में रुचि नहीं लेते, इसे भार समझते हैं।

(2) ई-लर्निंग में छात्रों में सामाजिक मेलजोल या मानवीय सम्बन्धों की सांवेगिक विशेषताओं का सर्वथा अभाव रहता है। इसके अभाव में ई-लर्निंग की प्रभावशीलता कम हो जाती है।

(3) ई-लर्निंग में विद्यार्थियों तथा शिक्षकों को मल्टीमीडिया, कम्प्यूटर इण्टरनेट तथा वेब टेक्नोलॉजी के प्रयोग में दक्ष होना चाहिए। इसके अभाव में ई-लर्निंग सम्भव ही नहीं है।

(4) ई-लर्निंग के लिए मल्टीमीडिया, कम्प्यूटर तथा वेब सुविधा शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों के पास होना आवश्यक है, अत्यधिक महँगा होने के कारण ये सभी के पास उपलब्ध होना सम्भव नहीं है। हमारे विद्यालयों में भी इनकी पर्याप्त व्यवस्था न होने से ई-लर्निंग को प्रयोग में लाने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं।

(5) विद्यार्थियों, शिक्षकों, अभिभावकों तथा समाज के अन्य वर्गों में भी प्रायः ई-लर्निंग के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रायः अभाव पाया जाता है। इस प्रकार का नकारात्मक तथा उपेक्षित दृष्टिकोण से ई-लर्निंग को परम्परागत शिक्षण का एक विकल्प बनाने में बाधा उत्पन्न हो रही है।

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