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Lost Spring (Stories of Stolen Childhood) Summary written by Annes Jung Hindi and English

Lost Spring (Stories of Stolen Childhood) Summary written by Annes Jung Hindi and English
Lost Spring (Stories of Stolen Childhood) Summary written by Annes Jung Hindi and English

Lost Spring (Stories of Stolen Childhood) Summary in English

Introduction

The lesson is an excerpt from Anees Jung‘s book and entitled ‘Lost spring stories of stolen childhood’ she analyses the grinding poverty and traditions which torment the lives of innocent children. be he a Saheb of Seemapuri or Mukesh of Firozabad every child worker leads a life of misery and want. They share the same poverty, dirt and exploitation

1. Searching for Gold in the Garbage

Anees Jung comes across Saheb every morning. He is scrounging for gold in the garbage dumps. He came from Dhaka. He does not even remember his old home. He does not go to school. There is no school in his Neighborhood. His full name is “Saheb-e- Alam”. It means lord of the universe. But he does not know what it means. He roams in the streets with his friends. They are an army of barefoot boys. They work in the morning and disappear at noon. They live in a perpetual state of poverty and can’t afford even shoes. Other young boys wear shoes. But most of the ragpickers like Saheb remain shoeless.

2. Seemapuri-A Home for Ragpickers from Bangladesh

Most of these rag pickers live in Seemapuri. It is a place on the periphery of Delhi. There is no sign of any development and progress here. The houses are of mud. They have roofs of tin and tarpaulin. There is no sewage, drainage or running water. More than 10,000 rag pickers have lived there for 30 years. They came there from Bangladesh in 1971. They have no identity or permits. They do have ration cards that enable them to vote and buy grain. For them food is more important than identity. Women move around in tattered saris.

3. Survival Means Ragpicking

Children grow up. They become partners in survival. Survival in Seemapuri means rag-picking. Through the years it has acquired the status of a fine art. Garbage to them is gold. (Sometimes a child can find a silver coin in a heap of garbage. There is always hope of finding more. Garbage is wrapped in wonder for children. For elders it is a means of survival.

4. Saheb Gets a Small Job

One morning the narrator sees Saheb standing by the fenced gate of a club. Two young men dressed in white are playing tennis. Saheb is also wearing tennis shoes. They are discarded shoes of some rich boy. He refused to wear them because of a hole in one of them. For Saheb even shoes with a hole is a dream come true. Now Saheb works in a tea stall. He gets 800 rupees and all his meals. His face has lost the carefree look. He is carrying a steel canister. It seems heavier than the plastic bag that he used to carry on his shoulder. The bag was his. The canister belongs to the shop-owner. Saheb is no longer ‘his own master’.

5. Mukesh Insists on Being His Own Master

Mukesh wants to be a motor mechanic. He will learn how to drive a car. But his dream looms like a mirage. He lives in a dusty street of Firozabad. The town is famous for its bangles. Every other family is engaged in making bangles. It is the centre of India’s glass blowing industry. Families have spent generations making bangles for women. Mukesh’s family is among them.

6. 20,000 Children Work in the Glass Furnaces

About 20,000 children work illegally in the glass furnaces with high temperatures. They live in stinking lanes. They are choked with garbage. Their homes are hovels with crumbling walls. They have no windows. They are crowded with families of humans and animals. The elder of the family is a poor bangle maker. He has failed to renovate his house. Nor has he been able to send his two sons to school. He knows nothing except the art of making bangles.

7. End up Losing Their Eyesight

Mukesh’s grandmother has watched her own husband go blind with the dust from polishing the glass. But they cannot give up “God- given lineage’. They have been born in the caste of bangle makers. In every other house, in every street of Firozabad, one can see bangles of each and all colours. They are piled on handcarts pushed by Youngman. In dark hutments sit boys and girls with their fathers and mothers welding pieces of coloured glass into circles of bangles. The bangles symbolize an Indian woman’s ‘suhaag’. They symbolize auspiciousness in marriage.

8. Mind-numbing Toil

Little has moved with time in Firozabad. Years of mind-numbing toil has killed the initiative of the young. They cannot organise themselves into a cooperative. Middlemen exploit them. There is no leader among them. There are two worlds. One is the world of bangle-makers. They are caught in a web of poverty. There is another world of moneylenders, middlemen and the policemen who fleece them. Mukesh’s eyes are full of hope. He chooses to be different from others. He wants to be a motor mechanic. The narrator asks him if he dreams of flying a plane. He silently says ‘no’. He is content to dream of cars that move down the streets of his town. Few planes fly over Firozabad.

Lost Spring (Stories of Stolen Childhood) Summary in Hindi

1. कूड़े-कचरे में सोना ढूँढ़ना है।

वह कचरे के ढेरों में सोना ढूँढ रहा है। वह ढाका से आया थी Anees Jung की साहेब से रोज सुबह मुलाकात हो जाती उसे अपने पुराने घर की बिल्कुल भी याद नहीं है। वह पाठशाला नहीं जाता। उसके पड़ोस में कोई स्कूल नहीं है। उसका पूरा नाम “साहेब-ए-आलम” है। इसका अर्थ है ब्रह्मांड का स्वामी। लेकिन वह नहीं जानता कि इसका क्या अर्थ है। वह गलियों में अपने मित्रों के साथ घूमता फिरता है। वे नंगे पैर वाले बालकों की एक सेना है। वे प्रातः काम करते हैं और दोपहर (तक) गायब हो जाते हैं। वे निरन्तर गरीबी की स्थिति में रहते हैं और जूते भी नहीं खरीद सकते। दूसरे युवा लड़के जूते पहनते हैं। लेकिन अधिकतर कबाड़ उठाने वाले साहेब जैसे बच्चे बिना जूतों के ही रहते हैं।

2. सीमापुरी-बंगलादेश से आये कबाड़ चुगने वालों का घर

अधिकतर ये कबाड़ चुगने वाले सीमापुरी में रहते हैं। यह दिल्ली के सीमांत पर एक जगह है। विकास और तरक्की का यहाँ कोई नामो निशान नहीं है। मकान मिट्टी के हैं। उनके ऊपर टीन और तिरपाल की छतें हैं। न कोई सीवेज है, न नालियाँ और न ही चलता हुआ पानी। पिछले 30 साल से 10,000 से अधिक कबाड़ चुनने वाले वहाँ रहे हैं। वे 1971 में बंगलादेश से वहाँ आए थे। उनके पास न कोई पहचान है और न कोई प्रमिट (कार्ड) है। उनके पास राशन कार्ड अवश्य हैं जो उन्हें वोट डालने और अनाज खरीदने के काबिल बनाते हैं। उनके लिए भोजन, पहचान से अधिक जरूरी है। औरतें फट कर तार-तार हो गयी साड़ियों में घूमती रहती हैं।

3. जिंदा रहने का अर्थ है कूड़ा-कचरा चुनना

बच्चे बड़े होते हैं। वे जिंदा रहने (के संघर्ष) में हिस्सेदार बन जाते हैं। सीमापुरी में जिंदा रहने का अर्थ है कूड़ा-कचरा चुनना। सालों से इसने एक महीन कला का रूप धारण कर लिया है। कूड़ा-कचरा उनके लिए सोना है। कई बार कूड़े के ढेर में किसी बच्चे को चाँदी का एक सिक्का मिल सकता है। और अधिक पाने की सदैव आशा रहती है। बच्चों के लिए कचरा आश्चर्य में लिपटा हुआ है। बड़ों के लिए यह जीने का एक जरिया है।

4. साहेब को एक छोटी सी नौकरी मिल जाती है

एक सुबह कथाकार साहेब को एक क्लब के बाड़दार द्वार के पास खड़ा देखती है। दो युवा, सफेद पोशाक पहने टैनिस खेल रहे हैं। साहेब भी टैनिस के जूते पहने हुए है। वे किसी अमीर लड़के के त्यागे हुए जूते हैं। उसने एक में एक सुराख होने के कारण उन्हें पहनने से मना कर दिया था। साहेब के लिए तो एक सुराख वाले जूतों का मिलना भी एक स्वप्न का पूरा होना है। अब साहेब चाय के एक खोखे में काम करता है। उसे 800 रुपये और सभी समय का खाना मिलता है। उसके चेहरे से चिंतामुक्त दृष्टि गायब है। वह स्टील का एक कनस्तर पकड़े हुए है। यह उस प्लास्टिक बैग से भारी प्रतीत होता है जिसे वह अपने कंधे पर उठाए रहता था। थैला उसी का था। कनस्तर दुकान के मालिक का है। साहेब अब ‘अपना मालिक स्वयं नहीं है।

5. मुकेश अपना मालिक स्वयं बनने पर जोर देता है

मुकेश एक मोटर मकैनिक बनना चाहता है। वह कार चलाना सीख लेगा। लेकिन उसका स्वप्न एक अस्पष्ट मरीचिका के समान है। वह फिरोजाबाद की एक धूल भरी गली में रहता है। कस्बा अपनी चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। हर दूसरा परिवार चूड़ी बनाने के काम में जुटा है। यह भारत के काँच पिघलाने के उद्योग का केन्द्र है। परिवारों ने स्त्रियों के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी चूड़ियाँ बनायी हैं। मुकेश का परिवार उन्हीं में से है।

6. 20,000 बच्चे काँच की भट्ठियों में काम करते हैं

लगभग 20,000 बच्चे गैर कानूनी ढंग से अधिक तापमान वाली काँच की भट्ठियों में काम करते हैं। वे बदबूदार गलियों में रहते हैं। वे कचरे से रुकी पड़ी हैं। उनके मकान झोंपड़ियाँ हैं जिनकी दीवारें गिर रही हैं। उनमें खिड़कियाँ नहीं हैं। उनमें मनुष्यों और जानवरों के परिवारों की भीड़ लगी है। परिवार का बुजुर्ग एक में असफल रहा है। न ही वह अपने दो पुत्रों को स्कूल भेजने में गरीब चूड़ी बनाने वाला है। वह अपने मकान का नवनीकरण करने सफल रहा उसे चूड़ी बनाने की कला के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता।

7. अन्त में वे अपनी दृष्टि खो बैठते हैं

काँच को पॉलिश करने की धूल से मुकेश की दादी ने अपने पति को अंधे होते देखा है। लेकिन वे भगवान की दी हुई वंश-परम्परा को छोड़ नहीं सकते। उन्होंने चूड़ी बनाने वालों की जाति में जन्म लिया है। हर दूसरे मकान में, फिरोजाबाद की हर गली में, प्रत्येक और हर रंग की चूड़ियों को देखा जा सकता है। युवाओं द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ियों में उनका ढेर लगा दिया जाता है। अन्धेरी झोंपड़ियो में रंगीन काँच को वैल्ड कर वृत्ताकार चूड़ियों में ढालते लड़के, लड़कियाँ अपने-अपने माँ और बापों के साथ बैठे रहते हैं। चूड़ियाँ भारतीय नारियों के ‘सुहाग’ की प्रतीक हैं। वे विवाहित जीवन में शुभ (लक्षण) की प्रतीक हैं।

8. दिमाग को सुन्न कर देने वाली मेहनत

समय के साथ फिरोजाबाद थोड़ा ही बदला है। दिमागों को सुन कर देने वाले सालों के श्रम ने युवाओं में पहल करने की इच्छा को मार दिया है। वे स्वयं को एक सहकारी (संस्था) के रूप में संगठित नहीं कर सकते। बिचौलिए उनका शोषण करते हैं। उनके बीच कोई नेता नहीं है। दो संसार हैं। एक चूडी बनाने वालों का संसार है। वे निर्धनता के जाल में जकड़े हुए हैं। दूसरा साहूकारों, बिचौलियों और पुलिस वालों का संसार है जो उन्हें लूटता है। मुकेश की आँखें आशा से भरी हैं। वह दूसरे से भिन्न होने का चुनाव करता है। वह एक मोटर मकैनिक बनना चाहता है। कथाकार उससे पूछती है कि क्या वह जहाज उडाने का स्वप्न लेता है? वह चुपचाप कहता है “नहीं”। वह उन कारों के स्वप्न लेने से सन्तुष्ट है जो उसके कस्बे की सड़कों पर चलती हैं। फिरोजाबाद के ऊपर से कुछ जहाज़ ही उड़ते हैं।

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