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पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र, लक्ष्य, उद्देश्य एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।

पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र, लक्ष्य, उद्देश्य एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र, लक्ष्य, उद्देश्य एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।

पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र

पर्यावरण को सम्पूर्णता के रूप में देखा और समझा जाता है जिसमें पृथ्वी के जैविक तथा अजैविक दोनों घटकों को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार से पर्यावरण के क्षेत्र के रूप में अग्रलिखित विषय वस्तुओं का संकलन किया जाता है—

1. जलमण्डल, वायुमण्डल, स्थलमण्डल एवं जैवमण्डल से सम्बन्धित वे सारी बातें जिनका सम्बन्ध मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं एवं वनस्पति जगत् से है।

2. पर्यावरणीय समस्याएँ-वे सारी समस्याएँ जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण विघटन के लिए जिम्मेदार हैं, जैसे

(i) जनसंख्या विस्फोट |

(ii) जल, वायु, मृदा, ध्वनि एवं रेडियोधर्मी प्रदूषण से उत्पन्न समस्याएँ।

(iii) नैतिक प्रदूषण से उत्पन्न समस्याएँ जैसे-चोरी, डकैती, लूटपाट, हत्या, आतंकवाद, अपहरण एवं भ्रष्टाचार इत्यादि।

(iv) ऊर्जा संकट ।

(v) शहरीकरण।

(vi) वन विनाश

(vii) मरुस्थलीयकरण।

(viii) वाहन एवं औद्योगिक प्रदूषण

(ix) घरेलू तथा अन्य अपशिष्टों से उत्पन्न समस्या ।

(x) विषैले भोज्य पदार्थों से उत्पन्न हानियाँ।

3. पर्यावरण का संरक्षण

(i) जैव विविधता के संरक्षण के लिए वनों का संरक्षण, वृक्षारोपण एवं उसकी देखभाल करना।

(ii) सामाजिक वानिकी के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना।

(iii) शिकार पर रोक।

(iv) पालतू पशुओं की देखभाल।

(v) ऐतिहासिक स्थलों, इमारतों एवं स्मारकों की देखभाल।

(vi) जल, वायु, मृदा एवं ऊर्जा के महत्त्व को देखते हुए उसके उचित देखभाल के लिए तत्परता।

इस प्रकार से पर्यावरण के विषय क्षेत्र को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. पारिस्थितिकीय प्रणाली का अध्ययन- इसके अन्तर्गत हम मनुष्यों का पर्यावरण के परस्पर सम्बन्धों, प्रभावों एवं हमारे द्वारा की गयी गतिविधियों एवं क्रिया-कलापों का अध्ययन किया जाता है।

2. पारिस्थितिकीय विश्लेषण- इसके अन्तर्गत किसी भी स्थान की भौगोलिक दशाओं तथा इसके लिए जिम्मेदार तत्त्वों एवं हम मनुष्यों के मध्य जैविक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक सम्बन्धों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

3. स्थानीय प्रणाली – इसके अन्तर्गत स्थानीय पर्यावरण का सम्पूर्णता में अध्ययन किया जाता है।

4. स्थानिक प्रणाली- इसके अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि एक जगह या स्थान का पर्यावरण दूसरे स्थान के पर्यावरण से कैसे प्रभावित होता है। जैसे, आपने भी महसूस किया होगा कि हमारे देश के किसी राज्य जैसे- शिमला या जम्मू और कश्मीर में बर्फ गिरती है तो हमारे यहाँ भी ठंडक बढ़ जाती है, ये कैसे और क्यों होता है? इन्हीं सब बातों का यानि इन्हीं सम्बन्धों का अध्ययन इस प्रणाली के अन्तर्गत किया जाता है-

5. प्रादेशिक सम्मिश्र विश्लेषण- इसके अन्तर्गत पारिस्थितिकीय विश्लेषण एवं स्थानिक विश्लेषण दोनों का अध्ययन किया जाता है।

6. प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन- इसके अन्दर विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं, जैसे—बाढ़, सूखा, भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट एवं चक्रवातीय तूफान इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

अन्य

(i) पर्यावरण के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए कानून व्यवस्था।

(ii) मानव की गतिविधियाँ जो पर्यावरण के लिए घातक हैं।

(iii) मानव के स्वास्थ्य से सम्बन्धित बातें।

पर्यावरणीय शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य

पर्यावरणीय शिक्षा के निम्नलिखित लक्ष्य हैं-

(1) प्रत्येक मनुष्य को इस तथ्य से परिचित कराना कि पर्यावरण के अभिन्न अंश के रूप में हम मनुष्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अगर हम मनुष्य पर्यावरण को नजरअंदाज करेंगे, उसका नुकसान करेंगे, तो अंततः नुकसान हमारा ही होगा।

(2) प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान, मूल्य अभिवृत्तियों एवं कुशलता में अपेक्षित सुधार करना ताकि वे पर्यावरण की सुरक्षा एवं सुधार के लिए प्रेरित हो सकें और स्वच्छ, स्वस्थ और सन्तुलित पर्यावरण के निर्माण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें।

(3) पर्यावरण से सम्बन्धित सभी बातों की समझ जनसामान्य को प्रदान कर उन्हें जागरूक करना क्योंकि जागरूकता के अभाव में व्यक्ति अपने अधिकार एवं कर्त्तव्य दोनों को निभाने में असमर्थ होता है।

(4) पर्यावरणीय समस्याओं को पहचानने की योग्यता का विकास करना ताकि समस्या के विभिन्न कारकों को पहचानकर उनका समाधान निकाला जाये जिससे पर्यावरण संतुलित रहे।

(5) पर्यावरण और उसके घटकों से सम्बन्धित सभी बातों को जानना और अजैविक तथा जैविक तत्त्वों में संतुलन बनाये रखने में रुचि पैदा करना ।

बेलग्रेड वर्कशॉप के अनुसार पर्यावरणीय शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

1. जागरूकता – पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से व्यक्तियों, विभिन्न समुदायों एवं सामाजिक समूहों को पर्यावरण, उसकी समस्याओं, उसके विघटन एवं उनसे पड़ने वाले हमारे स्वास्थ्य पर असर के प्रति जागरूकता का विकास करना क्योंकि जैसे ही व्यक्ति जागरूक हो जाता है वह अपने प्रति, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र यानि सम्पूर्ण पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो जाता है, जैसे— जनसंख्या का आधिक्य, इससे उत्पन्न विभिन्न समस्या, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय असंतुलन, बाढ़, बढ़ते हुए अपराध, जीवन मूल्यों में गिरावट इत्यादि के प्रति संवेदनशील हो जाता है तथा इन समस्याओं को दूर करने में सक्रिय हो जाता है। इस प्रकार से कहा जा सकता है कि पर्यावरणीय शिक्षा का मुख्य उद्देश्य लोगों को पर्यावरण और उसके विभिन्न घटकों के प्रति जागरूक बनाना। इसके माध्यम से लोगों के ज्ञानात्मक पक्ष का विकास किया जाता है।

2. अभिवृत्ति– व्यक्ति एवं सामाजिक समूह में पर्यावरण के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति का विकास करना, जिसके माध्यम से लोगों को पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए प्रेरित किया जा सके।

3. कौशल- व्यक्ति एवं सामाजिक समूह को पर्यावरण की समस्याओं को सुलझाने से सम्बन्धित सारी विधियों, प्रविधियों एवं अन्य कौशलों में पारंगतता प्रदान करना ताकि पर्यावरण संतुलित रहे।

4. ज्ञान– व्यक्ति सामाजिक समूहों एवं समुदायों को उन सारी परिस्थितियों, उनसे सम्बन्धित सारी समस्याओं, पर्यावरण के विभिन्न घटकों और इन सबको प्रभावित करने में हम मनुष्यों की भूमिका इत्यादि सारी बातों का ज्ञान प्रदान करना ताकि हमें इस बात का ध्यान रहे कि अगर हमें खुद का अस्तित्व बचाना है तो पर्यावरण का अस्तित्व सुरक्षित रखना होगा।

5. सहभागिता – पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति की क्रियाशीलता को बढ़ाना ताकि वे पर्यावरण के विभिन्न घटकों को संरक्षित एवं सुरक्षित करने के लिए अपना योगदान सुनिश्चित कर सकें जिसके विभिन्न तरीके हैं, जैसे—आसपास की जगह, जलाशय, झुग्गी झोंपड़ी इत्यादि को गंदगीमुक्त करने के लिए अपने साथ-साथ औरों को भी शामिल करना, विभिन्न प्रकार की विधियों एवं प्रविधियों, जैसे—सेमीनार, वर्कशॉप, शैक्षिक पर्यटन इत्यादि के द्वारा लोगों का ध्यान पर्यावरण की तरफ आकर्षित करवाना। विभिन्न प्रकार के संदेशों द्वारा जनजागरूकता फैलाना इत्यादि।

6. मूल्यांकन योग्यता – व्यक्ति, परिवार, सामाजिक समूह एवं समुदायों द्वारा किये जाने वाले उपायों एवं गतिविधियों का पर्यावरण के गुणात्मक विकास के सन्दर्भ में मूल्यांकन की योग्यता का विकास करना। पर्यावरण के रख-रखाव एवं संरक्षण के लिए जो भी प्रयास किये गये हैं उनका मूल्यांकन करना। अगर निर्धारित लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता है तो हम पुनः उन उपायों एवं गतिविधियों को परिवर्तित कर एक बार से मूल्यांकन द्वारा उनका आकलन करते हैं। ये प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक हम निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त न कर लें।

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि पृथ्वी, पर्यावरण और हम मनुष्यों के जीवन की गुणवत्ता बनी रहे ताकि हम सुखद और संतुलित जीवन व्यतीत करते हुए अपनी भावी पीढ़ी को भी विरासत में प्रदूषणमुक्त पर्यावरण सौंप कर जायें ये पर्यावरण शिक्षा की मुख्य विशेषता और उद्देश्य हैं।

पर्यावरणीय शिक्षा का महत्त्व

पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से हम पर्यावरण के विभिन्न घटकों, उसके आपसी अन्तः निर्भरता, पारस्परिक संतुलन इत्यादि के बारे में जानते और समझते हैं। इसके द्वारा हमें निम्न बातों की भी जानकारी प्राप्त होती है-

(1) पारिस्थितिकीय प्रणाली।

(2) पारिस्थितिकीय विश्लेषण |

(3) स्थानिक प्रणाली।

(4) स्थानिक विश्लेषण

(5) प्रादेशिक सम्मिश्र विश्लेषण।

(6) प्राकृतिक आपदाओं एवं समस्याओं तथा उसका हम मनुष्यों पर पड़ने वाला प्रभाव एवं उसके समाधान के लिए किये जाने वाले उपाय।

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सजीव एवं निर्जीव के मध्य घटने वाली समस्य क्रिया-कलाप एक प्रक्रिया जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को प्रभावित करती है, हम मनुष्यों को प्रभावित करती है, इत्यादि की जानकारी हमें पर्यावरणीय शिक्षा से ही प्राप्त होती है। पर्यावरणीय शिक्षा से हमें पता चलता है कि कैसे और क्यों हम पर्यावरण का संरक्षण और संवर्द्धन करें ताकि हम गुणवत्तापूर्ण जीवन बिता सकें। हालाँकि पर्यावरणीय शिक्षा एक गतिशील और व्यापक संकल्पना है और इसकी सीमाओं को बाँधना बहुत मुश्किल कार्य है फिर भी इसके महत्त्व को हम उन जानकारियों के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं जो हमें यह समझाने का प्रयास करती हैं कि कैसे हम उस पर्यावरण एवं उसके विभिन्न घटकों और उत्पन्न समस्याओं का सामना करें, उपायों की सहायता लें जिससे भविष्य में हमें उनका सामना नहीं करना पड़े ताकि हम एक स्वस्थ और संतुलित पर्यावरण में जीवन बिता सकें। इसके महत्त्व को कुछ मुख्य बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-

(i) पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से हम पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक घटकों के महत्त्व को समझने में समर्थ होते हैं और उनके संरक्षण के लिए प्रयासरत होते हैं, जैसे-वन, वन्य जीव-जन्तु, नदी एवं अन्य घटकों के संरक्षण का प्रयास करना तथा जनजागरूकता फैलाना।

(ii) इसके माध्यम से जनसंख्या विस्फोट से होने वाले विभिन्न प्रकार की समस्याओं जैसे बेकारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, आतंकवाद, अराजकता, शहरीकरण, जल, वायु एवं भूमि प्रदूषण एवं अन्य प्रदूषण इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इन जानकारियों एवं इनके दुष्परिणामों को जनसामान्य, विभिन्न समुदाय के लोगों एवं विद्यार्थियों को बताकर सभी में एक स्वस्थ और सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करवाया जा सकता है। सभी को इस बात का एहसास करवाया जा सकता है कि छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। अतः हमें परिवार को सीमित रखना चाहिए। अगर परिवार में सदस्यों की संख्या ज्यादा होगी तो उसी अनुपात में भोजन, वस्त्र और आवास के साथ-साथ अन्य सुविधाएँ भी होनी चाहिए जो कि नहीं हो पाती जिससे विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। औद्योगिक विकास, वन विनाश, कृषि भूमि का विस्तार इत्यादि कई ऐसी गतिविधियाँ हैं जिसकी वजह से पर्यावरण पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं जिसका समाधान पर्यावरणीय शिक्षा द्वारा ही हो सकता है।

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