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अपील क्या है? | अपील के प्रकार एवं प्रारूप | What is an appeal in Hindi

अपील क्या है
अपील क्या है

अपील क्या है?(What is an Appeal)

अपील क्या है – अपील एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के विनिश्चय (निर्णय) की सत्यता को श्रेष्ठ न्यायालय में चुनौती दी जाती है। ऐसी त्रुटि, तथ्य एवं प्रक्रिया सम्बन्धी हो सकती है। ऐसा नहीं माना जाना चाहिये कि वह प्रत्येक निर्णय जो अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दिया। गया है उसके विरुद्ध अपील की जा सकती है। दूसरे शब्दों में अपील साधिकार नहीं की जा सकती है।

अपील वहाँ किया जा सकता है जहाँ ऐसा करने का अधिकार किसी संविधि या संविधि की शक्ति रखने वाले नियम द्वारा प्रदान किया है। अपील का अधिकार संविधान या परिनियम द्वारा सृजित अधिकार है, कोई भी पक्षकार उपयुक्त विधि के प्रावधान के बिना, अधिकारिक रूप में किसी निर्णय, आदेश या डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं कर सकता।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जैर हुसैन खान बनाम खुरशीद जान नामक बाद में अपने निर्णय के माध्यम से कहा कि अपील के अधिकार का अपने आप से कोई अस्तित्व नहीं अगर उसे किसी संविधि द्वारा प्रदान नहीं किया गया है। परन्तु कोई भी वाद संस्थित करने का इच्छुक व्यक्ति (litigant) किसी संविधि में अधिकार प्रदान किये बिना भी स्वतन्त्र रूप से सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के अधीन वाद संस्थित कर सकता है, अगर ऐसे वाद का संज्ञान (cognizance) अभिव्यक्ति या विवक्षित रूप से वर्जित नहीं है।

अपील का अधिकार एक सारभूत अधिकार (substantive right) है न कि प्रक्रिया ३ सम्बन्धी अधिकार। यह न तो नैसर्गिक अधिकार है और न ही अन्तर्निहित अधिकार सारभूत संविधिक अधिकार होने के नाते इसका विनियमन विधि के अनुसार होना चाहिये। विधि के सारवान प्रश्न और तथ्य के सारवान प्रश्न अन्तर किया जाना चाहिये।

अपील का अधिकार संविधि द्वारा पक्षकार को प्रदत्त सारभूत अधिकार है। इस अधिकार को प्रथम न्यायालय में वाद दाखिल करते समय उपलब्ध अधिकार द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता। अपील का अधिकार किसी पक्षकार में उस दिन ही निहित हो जाता है जिस दिन वह वाद संस्थित करता है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा यह भी निर्णय दिया गया कि एक नये 1 अधिनियम (legislation) के माध्यम से वर्तमान अपील के अधिकार का ह्रास (impair) नहीं किया जा सकता। अतः एक विधि जो अपीलों पर देय न्यायालय शुल्क को बढ़ाती है, वह उन अपीलों पर नहीं लागू होगी जो इसके अधिनियमित किये जाने से पूर्व क कार्यवाहियों से उत्पन्न हुयी है।

इसके विपरीत अपील का एक नया अधिकार जो एक संविधि ने सृजित किया है वह उन पक्षकारों को उपलब्ध नहीं होगा जिनकी कार्यवाहियाँ इस संविधि के पूर्व प्रारम्भ हुयी हैं। अपील के माध्यम से प्राप्त उपचार स्वयं संविधि की एक उपज है, न कि एक व्यक्ति का अन्तर्भूत अधिकार अतः जहाँ विधायिका (legislation) अतः जहाँ विधायिका (legislation) अपने विवेक से किसी वाद में यह समझती है कि अपील की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, वहाँ यह नहीं माना जा सकता है कि ऐसा विधान बुरा है।

 जहाँ अपील के लम्बित रहते विधि में परिवर्तन हो जाता है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय लक्ष्मी नारायण गुई बनाम निरंजन मोदक में यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसे विधि के परिवर्तन पर विचार करना आवश्यक है और ऐसी विधि पक्षकारों के अधिकारों का विनियमित करेगी।

जहाँ विशेष अनुमति के आधार पर अपील की जाती है वहाँ उच्चतम न्यायालय ने लक्ष्मन मारोत राव नवखरे बनाम केशवराम इकनथसा तापर नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 136 अपील का अधिकार नहीं प्रदान करता अपील के लिये विशेष अनुमति प्राप्त करने हेतु आवेदन देने का अधिकार प्रदान करता है।

उच्चतम न्यायालय की विशेष अनुमति देने की शक्ति वैवेकिक (discretionary) है। अनुच्छेद 136 के वैवेकिक अधिकार का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिये वह उन स्थितियों में अपील का अधिकार प्रदान करता है जहाँ अपील का कोई अधिकार नहीं है।

अपीलीय न्यायालय को यह अधिकार है कि वह विचारण न्यायालय के विनिश्चय को पलट दे या उसकी पुष्टि करे। प्रथम अपील पक्षकारों का बहुमूल्य अधिकार है और जब तक विधि द्वारा प्रतिबन्धित न हो पूरा मामला सुनवाई के लिये खुला हुआ है, तथ्य के मामले और विधि के मामले दोनों के लिये। अतः प्रथम अपीलीय न्यायालय को तथ्य और विधि दोनों विवाद्यकों पर विचार करना चाहिये, और कारण देते हुये अपने विनिश्चय के समर्थन में निर्णय देना चाहिये।

इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि एक अपील वाद की निरन्तरता है गरिका पत्ती वीराय्या बनाम सुब्बिया चौधरी AIR 1957S.C. एक बाद में अपील भी सम्मिलित है। (An appeal is a Continuation of suit A suit includes an appeal) एक अपील वास्तव में मामले की पुनः सुनवाई है। एक अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित डिक्री को प्रथम कर के न्यायालय द्वारा पारित डिक्री की भाँति माना जायेगा। एक अपीलीय न्यायालय को विचारण न्यायालय की भाँति अधिकार और कर्तव्य है।

अपील कौन कर सकता है?(Who can file an Appeal)

धारा 96 के अधीन यह उपबन्ध किया गया है कि कौन अपील कर सकता है। परन्तु सामान्य नियम यह है कि निम्नलिखित व्यक्ति अपील कर सकते हैं |

(1) कोई भी व्यक्ति जो वाद का पक्षकार रहा है और जिसके हित पर डिक्री से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है या अगर ऐसे पुक्षकार की मृत्यु हो गयी है, तो उसका विधिक प्रतिनिधि |

(2) उपर्युक्त लिखित पक्षकार के हित का अन्तरिती (transferee) जो, जहाँ तक ऐसे हित का सम्बन्ध है, डिक्री की शर्तों या निर्देशों से बाध्य है, परन्तु शर्त यह है कि ऐसे व्यक्ति का नाम बाद में अभिलेख पर दर्ज होना चाहिये।

(3) एक नीलामी-क्रेता एक ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है जिसके माध्यम से निष्पादन में डिक्री को धोखे के आधार पर निरस्त कर दिया गया है। कोई भी व्यक्ति जो वाद का पक्षकार नहीं है वह इस धारा के अधीन अपील करने का अधिकारी नहीं है।

परन्तु एक ऐसा व्यक्ति भी जो वाद का पक्षकार नहीं है वह भी अपीलीय न्यायालय की अनुमति से अपील कर सकता है, अगर उसके हित पर ऐसे निर्णय से प्रतिकूल

प्रभाव पड़ता है और ऐसा निर्णय उस पर प्राङ्न्याय (res judicata) के रूप में लागू होगा। जहाँ धन के प्रत्युद्धरण (प्राप्ति) के लिये एक वाद लाया गया है, धन की प्राप्ति का दावा दोनों प्रतिवादियों के विरुद्ध है, बाद में यह प्रार्थना की गयी है कि डिक्री दोनों प्रतिवादियों के विरुद्ध पारित की जाये ताकि वन की वसूली किसी एक से की जा सके, डिक्री केवल एक प्रतिवादी के विरुद्ध पारित की जाती है |

वहाँ उच्चतम न्यायालय ने ईश्वर भाई सी० पटेल बनाम हरिहर बेहेरा में यह अभिनिर्धारित किया कि वादी ऐसी डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है। वादकारी का अपील फाइल करने का अधिकार एक बहुमूल्य अधिकार है और पहली अपील को प्रारम्भ में नहीं खारिज किया जा सकता। न्यायालय की इसे पहले स्वीकार करना चाहिये और तब अन्तिम रूप से अभिनिर्धारित करना चाहिये ?

अपील का न्यायालय ( Forum of Appeal )

यह वाद की विषय-वस्तु का मूल्य है जो यह निर्धारित करता है कि अपील किस न्यायालय में की जायेगी। इस प्रकार वाद के विषय-वस्तु का मूल्य या धन यह निर्धारित करता है कि अपील किस न्यायालय में की जायेगी। जहाँ किसी अधीनस्थ न्यायालय में संस्थित किये गये वाद में, वाद-पत्र में दिये गये मूल्यांकन के आधार पर अपील जिला न्यायालय (District Court) में की जा सकेगी, वहाँ कोई प्रतिवादी उच्च न्यायालय में इसके आधार पर अपील नहीं दाखिल कर सकता है कि वादी ने वाद का मूल्यांकन कम किया था या मेमोरैण्डम ऑफ अपील (अपील का ज्ञापन) में अपना स्वयं मूल्यांकन देकर न्यायालय में अपील नहीं कर सकता।

अपील के प्रकार(Types of an Appeal)

संहिता के अन्तर्गत निम्न प्रकार की अपीलों की व्यवस्था की गयी है |

(1) मूल डिक्रियों की अपीलें (Appeals from original decrees) (धारा 96 से 99 एवं आदेश 41 ) ।

(2) अपीलीय डिक्रियों की अपीलें (Appeal from appellate decrees) (धारा 100 से 103 एवं आदेश 42 ) ।

(3) आदेश की अपीलें (Appeal from orders) (धारा 104 से 106 एवं आदेश 43) |

(4) उच्चतम न्यायालय में अपीलें (Appeals to the Supreme Court) (धारा 109 एवं 112 तथा आदेश 45 ) ।

अपील का प्रारूप (Form of Appeal)

प्रत्येक वाद संस्थित करने के लिये एक वाद-पत्र का प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है, निष्पादन की कार्यवाही करने के लिये निष्पादन का आवेदन चाहिये, और ठीक उसी प्रकार अपील दाखिल करने के लिये जिस प्रपत्र की आवश्यकता पड़ती है उसे अपील का ज्ञापन ( memorandum of appeal) कहते हैं। हर अपील, अपील के ज्ञापन के रूप में की जायेगी जो अपीलार्थी या उसके प्लीडर द्वारा हस्ताक्षरित होगी।

ज्ञापन के साथ उस डिक्री की प्रति होगी जिसके विरुद्ध अपील की जाती है और जब तक अपील न्यायालय ऐसा करने की छूट न दे दें उस निर्णय की प्रति होगी जिस पर वह डिक्री आधारित है। अब संशोधित नियमों के अनुरूप ज्ञापन के साथ निर्णय की एक प्रति संलग्न होगी।

मेमोरैण्डम (ज्ञापन) में संक्षिप्त रूप से और विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत उस डिक्री (जिसमें अपील की गयी है) के प्रति किये गये आक्षेपों के आधार पर लिखे जायेंगे, किन्तु ऐसे आधार की पुष्टि में कोई तर्क या विवरण नहीं होंगे और ऐसे आधार क्रम से संख्यांकित किये जायेंगे (such grounds shall be numbered consecutively)।

किन आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं होगी ?Against which orders appeal shall not lie?

किसी आदेश के विरुद्ध अपील तब तक नहीं जा सकेगी जब तक कि वह डिक्री का रूप न धारण कर लेता हो आदेश 43, नियम (1) की सूची में वर्णित न हो। इसलिए निम्नलिखित आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती है।

(1) जहाँ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाद बहुलता के कारण विधि की दृष्टि से दोषपूर्ण है।

(2) जहाँ न्यायालय ने यह अभिप्रेरित किया है कि न्यायालय को वाद पक्षकारों की के विचारण की अधिकारिता प्राप्त है|

(3) एक ऐसा आदेश जिसके माध्यम से अन्तर्वर्ती लाभ को निश्चित करने के लिए कमीशन की नियुक्ति की गई है।

(4) आदेश 37, नियम (3) के अधीन बचाव के लिए अनुमति प्रदान करने या अस्वीकार करने सम्बन्धी आदेश।

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