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पुनरीक्षण का अर्थ, उद्देश्य,आवश्यक शर्तें और आवेदन | Revision in Hindi

पुनरीक्षण का अर्थ
पुनरीक्षण का अर्थ

पुनरीक्षण का अर्थ (Meaning of Revision)

पुनरीक्षण का अर्थ – पुनरीक्षण द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा किसी बाद में उत्तर की गयी क्षेत्राधिकार सम्बन्धी त्रुटियों को दूर किया जाता है। पुनरीक्षण का अधिकार केवल उच्च न्यायालय को प्राप्त होता है।

पुनरीक्षण कब किया जायेगा (धारा 115) 

(1) उच्च न्यायालय किसी भी ऐसे मामले के अभिलेख को मंगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय ने विनिश्चिय किया है और जिसकी कोई भी अपील नहीं होती है और यदि यह प्रतीत होता है कि

(क) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो द्वारा निहित नहीं है, अथवा उसमें विधि

(ख) ऐसा अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल है जो इस प्रकार निहित है, अथवा

(ग) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है।

तो उच्च न्यायालय उस मामले में ऐसा आदेश कर सकेगा जो ठीक समझे, परन्तु उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में पारित किये गये किसी आदेश में या कोई विवाद्यक विनिश्चित करने वाले किसी आदेश में फेरफार नहीं करेगा या उसे नहीं उलटेगा सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसा आदेश यदि वह पुनरीक्षण के लिए आवेदन करने वाले पक्षकार के पक्ष में किया गया होता तो वाद या अन्य कार्यवाही का अन्तिम रूप से निपटारा कर देता।

(2) उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी ऐसी डिक्री या आदेश में, जिसके विरुद्ध या तो उच्च न्यायालय में या उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में अपील की गई है, फेरफार नहीं करेगा अथवा उसे नहीं उलटेगा।

(3) एक न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण किसी वाद या अन्य कार्यवाही के स्थगन के रूप में लागू नहीं होगा सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसे याद या अन्य कार्यवाही को उच्च न्यायालय द्वारा स्थगित कर दिया गया है।

स्पष्टीकरण- इस धारा में ऐसे मामले के अभिलेख को मँगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय ने विनिश्चित किया है, अभिव्यक्ति के अन्तर्गत किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में किया गया कोई आदेश कोई विवाद्यक विनिश्च करने वाला कोई आदेश भी है।

पुनरीक्षण के उद्देश्य 

धारा 115 का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता के प्रयोग में मनमाने ढंग से चंचल या अस्थिर मन से अविधिमान्य तरीके से, या अनियमित तरीके से कार्य करने से रोकना है। दूसरे शब्दों में, इस धारा का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता की सीमाओं के भीतर रखना है और यह देखना उच्च न्यायालय का कार्य है।

पुनरीक्षण की शक्ति धारा 115 उच्च न्यायालय को प्रदान करती है। पुनरीक्षण के आवेदन को याद नहीं माना जा सकता। पुनरीक्षण की अधिकारिता का प्रयोग केवल क्षेत्राधिकार सम्बन्धी प्रश्नों तक ही सीमित है। पुनरीक्षण की अधिकारिता के अन्तर्गत उच्च न्यायालय साक्ष्य का पुन: परीक्षण और पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता।

किन्तु तथ्यों के विनिश्चय में हस्तक्षेप अनुज्ञेय है यहाँ जहाँ नए साक्ष्य को अभिलेख पर प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की गई थी। जहाँ एक दस्तावेज को, मुकदमे में बहस समाप्त होने के पश्चात्, स्वीकार किया गया, यहाँ ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय नहीं है।

विवाद को विवाचन के लिए निर्दिष्ट न करना- वहाँ जहाँ विवाचन करार की विद्यमानता को लेकर पक्षकारों में कोई विवाद नहीं है। एच०पी० कार्पोरेशन लि० बनाम मेसर्स पिंक सिटी मिडने पेट्रोलियम (2003 SC) के बाद में उच्चतम न्यायालय के अनुसार न्याय की विफलता है तथा उस पक्षकार को, जो विवाद को विवाचन के लिए निर्दिष्ट करने का आवेदन करता है, अपूर्णनीय क्षति कारित करता है।

अतः ऐसा आदेश जो विवाद को विवाचन को सौंपने या निर्दिष्ट करने से अस्वीकार करता है, पुनरीक्षण योग्य है। दूसरे शब्दों में ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय है।

राम अवतार बनाम रामधनी (1997 SC) के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ही नहीं कोई पदाधिकारी जिसे संविधिक पुनरीक्षण की शक्ति प्राप्त है उसकी ऐसी शक्ति कितनी ही विस्तृत क्यों न हो वह अपीलीय न्यायालय की भाँति तथ्य सम्बन्धी प्रश्नों पर निष्कर्ष अभिलिखित करने के लिए अभिलेख पर के साक्ष्य का पुनरीक्षण और पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकता।

पर ध्यान रहे उच्च न्यायालय का पुनरीक्षण का अधिकार इसका विवेकाधीन अधिकार है जिसका उपयोग वह कर भी सकता है और नहीं कर सकता है। परन्तु जहाँ पुनरीक्षण अधिनियम द्वारा विशिष्ट रूप से प्रतिबन्धित है, वहाँ पुनरीक्षण नहीं हो सकेगा।

एक बार जब पुनरीक्षण का आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है तो उसका निस्तारण गुण दोष के आधार पर होना चाहिये। पुनरीक्षण का आवेदन भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत दी गई। यांचिका से अलग और भिन्न है।

धारा 115 के अन्तर्गत दिये गये आवेदन को अनुच्छेद 227 के में अन्तर्गत याचिका में, न्यायालय की इच्छा पर परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय धारा 115 के अन्तर्गत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का प्रयोग तभी कर सकता है जब निम्न शर्तें पूरी हो|

पुनरीक्षण की आवश्यक शर्तें (Essential Conditions of Revision)

(1) मामले का विनिश्चय- अधीनस्थ न्यायालय द्वारा हुआ हो पुनरीक्षण के लिए प्रथम आवश्यक शर्त है कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मामले का विनिश्चय होना चाहिए। यहाँ  प्रयुक्त मामला शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थों में किया गया है और उसमें वाद के अतिरिक्त दीवानी कार्यवाहियाँ भी सम्मिलित हैं।

इसके अन्तर्गत न केवल सम्पूर्ण दीवानी कार्यवाही बल्कि दीवानी कार्यवाही का एक अंश भी आता है और इस आधार पर उच्चतम न्यायालय ने मेजर खन्ना बनाम ब्रिगेडियर ढिल्लन नामक बाद में अभिनिर्धारित किया कि धारा 115 अन्तर्वर्ती आदेश पर भी लागू होती है। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय की पुष्टि पुनः बलदेवदास बनाम फिल्मिस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स नामक वाद में किया।

उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मामला शब्द का अभिप्राय सीमित नहीं है, अपितु उससे उस विवाद के पूरे विषय का बोध होता है। यह शब्द व्यापक अर्थ वाला है जिसमें सिविल प्रक्रिया सम्मिलित है। यह धारा 115 में दिये गये किसी उपबन्ध से सीमित नहीं है।

धारा 115 के स्पष्टीकरण के अनुसार मामले का विनिश्चय पद के अन्तर्गत किसी बाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में किया गया कोई भी आदेश या विवाधक विचित करने

वाला कोई भी आदेश सम्मिलित है। फूलचन्द्र बनाम के०वी०सी० इन्वेस्टरमेंट (1991 SC) के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय पुनरीक्षण सम्बन्धी क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत विधि एवं तथ्य दोनों प्रकार की त्रुटियों को ठीक कर सकता है।

(2) अधीनस्थ न्यायालय

एक उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के अधिकार का प्रयोग तब तक नहीं कर सकता है जब तक कि वह न्यायालय (जिसके विनिश्चय के विरुद्ध पुनरीक्षण मांगा जा रहा है) उस उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय न हो।

न्यायालय से तात्पर्य दीवान अधिकारिता रखने वाले न्यायालय से है जिसके अन्तर्गत प्रशासनिक हैसियत से कार्य करने वाल कोई व्यक्ति नहीं आता, उदाहरण के लिए मजदूरी भुगतान अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त कोई अधिकारी एक न्यायालय नहीं होता) एक न्यायालय उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय होगा अगर ऐसा न्यायालय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है।

ध्यान रहे मोटर वेहिकिल्स अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत गठित दावों सम्बन्धी ट्रिब्यूनला एक दीवानी न्यायालय नहीं है। अत: वह उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता के अन्तर्गत नहीं आता है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक पूर्ण पीठ के निर्णय के अनुसार मोटर वेहिकल्स एक्ट 1988 के अन्तर्गत गठित मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स ट्रिब्यूनल, कर्नाटक प्राइवेट येजूकेशन्स इन्स्टीट्यूशन्स (डिसिपालन एण्ड कन्ट्रोल) एक्ट, 1975 और कर्नाटक एजूकेशन एक्ट, 1989 के अन्तर्गत गठित रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल धारा 115 के अर्थों में “उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय” नहीं है।

अत: इन ट्रिब्यूनलस् या अधिकरणों द्वारा पारित आदेशों का पुनरीक्षण उच्च न्यायालय द्वारा नहीं हो सकता। यद्यपि सभी न्यायालय अधिकरण हैं, परन्तु सभी अधिकरण न्यायालय नहीं है।

(3) ऐसा विनिश्चिय जिसके विरुद्ध अपील नहीं होती- अधीनस्थ न्यायालय का विनिश्चय ऐसा होना चाहिये जो अपील योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में जहाँ विनिश्चिय के विरुद्ध उच्च न्यायालय को अपील नहीं हो सकती। अपील शब्द के अन्तर्गत प्रथम और द्वितीय दोनों

अपीलें सम्मिलित है। अर्थात् जहाँ उच्च न्यायालय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी प्रकार की उच्च न्यायालय को अपील हो सकती हैं, पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता।

जहाँ अपील का फोरम उपलब्ध है वहाँ यदि उसका लाभ नहीं उठाया गया तो पुनरीक्षण पोषणीय नहीं है। दूसरे शब्दों में पुनरीक्षण नहीं कराया जा सकता। धारा 115 के अन्तर्गत न्यायालय स्वप्रेरणा से अपनी अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है। लेकिन ऐसे अधिकार का प्रयोग एक ऐसे मामले में होना चाहिये |

जिस पर अधीनस्थ न्यायालय का विनिश्चय हुआ है और न्यायालय का ऐसा विनिश्चय धारा 115 की उपधारा (क), (ख) और (ग) के प्रावधानों के अतिलंघन में हुआ है। जब तक कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विनिश्चय किया हुआ मामला न हो तब तक उच्च न्यायालय को अपने अधिकार का प्रयोग स्वप्रेरणा से नहीं करना चाहिए।

श्रीमती नमिताधार बनाम अमलेन्दु सेन (1977 कलकत्ता) के वाद में निर्णीत हुआ कि ऐसे आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण के लिये आवेदन नहीं किया जा सकता, जो अपील योग्य है परन्तु अपील नहीं की गयी है।

(4) क्षेत्राधिकार सम्बन्धी त्रुटि- चौथी और अन्तिम शर्त यह है कि अधीनस्थ न्यायालय ने अधिकारिता सम्बन्धी त्रुटि या गलती की हो। वह निम्नलिखित रूप में हो सकती है-

(अ) या तो अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है, या

(ब) ऐसा अधीनस्थ न्यायालय ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है, जो इस प्रकार निहित है, अथवा

(स) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अवैध रूप या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है।

(अ) अधीनस्थ न्यायालय द्वारा ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया जाना उसमें निहित हैं- यदि अधीनस्थ न्यायालय ने आर्थिक, प्रादेशिक या विषयवस्तु सम्बन्धी ऐसे का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है तो उच्च न्यायालय पुनरीक्षण कर सकता है जय किसी अधीनस्थ न्यायालय में स्थानीय, आर्थिक या विषय वस्तु सम्बन्धी क्षेत्राधिकार में से सभी प्रकार के क्षेत्राधिकार का या किसी एक का अभाव होता है तो कहा जाता है कि अमुक न्यायालय में क्षेत्राधिकार विधि द्वारा निहित नहीं है।

(ब) अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया जाना- यदि कोई अधीनस्थ न्यायालय विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में असफल रहता है तो उच्च न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण किया जा सकता है।

रतन लाल बनाम कमला देवी (1992 राजस्थान) के मामले में एक गवाह ने दस्तावेज पर किए गए हस्ताक्षर को पहचानने से अस्वीकार कर दिया। उसकी प्रतिपरीक्षा दूसरे दस्तावेज पर उस हस्ताक्षर को दिखा कर की गई। पिटिशनर के गवाह के बयान की सत्यता की जांच के आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया। यह निर्णीत किया गया कि न्यायालय विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में असफल रहा है।

(स) अधीनस्थ न्यायालय द्वारा क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य करना-अधीनस्थ न्यायालय यदि क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य करता है तो उच्च न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण किया जा सकता है।

स्टेट ऑफ बिहार बनाम भगौती सिंह (1976 पटना) के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता का अभिप्राय विधिक उपबन्धों की अवहेलना अथवा प्रक्रिया सम्बन्धी तात्विक दोष से है जो विनिश्चय को प्रभावित करने वाला हो। हुकुम चन्द्र बनाम माधव (1983 SC) के मामले में निर्धारित किया गया कि यदि किस व्यक्ति के विरुद्ध उसकी बिना सुने ही कोई आदेश पारित किया जाता है तो उसे अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य करना माना जाएगा।

सतीश चन्द्र बनाम भोनरी लाल (1992 राजस्थान) के मामले में उपचट्टा के आधार पर वाद लाया गया, उपचट्टाधारी को आवश्यक पक्षकार न बनाने से उसके साथ अन्याय हुआ है एवं अपूरणीय क्षति भी होगी इसलिए पुनरीक्षण किया जा सकता है।

पुनरीक्षण के आवेदन में तथ्य सम्बन्धी प्रश्न नहीं उठाये जा सकते। किन्तु पुनरीक्षण की अधिकारिता के अन्तर्गत पश्चात्वर्ती तथ्यों एवं घटनाओं को ध्यान में रखकर उस पर विचार किया जा सकता है। परिसीमा- पुनरीक्षण के आवेदन की परिसीमा 90 दिन है। अर्थात् पुनरीक्षण के लिए आवेदन, जिस आदेश या डिक्री के विरुद्ध पुनरीक्षण की मांग की जा रही है, उसके पारित होने की तिथि से 90 दिनों के भीतर दिया जाना चाहिए।

पुनरीक्षण का आवेदन (Application of Revision)

धारा 115 के अन्तर्गत पुनरीक्षण के आवेदन को संविधान के अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत याचिका में नहीं बदला जा सकता। उत्तर प्रदेश संशोधन- सिविल प्रक्रिया संहिता (उ०प्र० संशोधन) अधिनियम 2009 के माध्यम से धारा 115 में संशोधन किया गया है। नये संशोधन के अनुसार अब उ० प्र० में जिला न्यायाधीश उन आदेशों का पुनरीक्षण जो उनके अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पाँच लाख रुपये मालकियत के मूल वादों में पारित किये गये ( या जो ऐसे वादों से उत्पन्न होते हैं) कर सकेंगे। पाँच लाख रुपये से ऊपर के मालकियत के वादों में आदेशों का पुनरीक्षण उच्च न्यायालय द्वारा होगा।

पुनर्विलोकन और पुनरीक्षण में अन्तर (Distinguish Between Revision and Review)

(अ) पुनर्विलोकन वही न्यायालय करता है जिसमें निर्णय (डिक्री या आदेश दिया है, किन्तु पुनरीक्षण उच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है।

(ब) उच्च न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण उन्हीं मामलों में किया जा सकता है जिसमें उच्च न्यायालय को अपील नहीं होता किन्तु पुनर्विलोकन उन मामलों में भी हो सकता है जिनमें अपील उच्च न्यायालय को हो सकती हैं।

(स) पुनर्विलोकन कोई भी न्यायालय कर सकता है, किन्तु पुनरीक्षण की अधिकारिता या शक्ति केवल उच्च न्यायालय को है।

(द) पुनरीक्षण उच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से भी कर सकता है, किन्तु पुनर्विलोकन के लिए दुखी पक्षकार के द्वारा आवेदन किया जाना आवश्यक है।

(य) पुनर्विलोकन और पुनरीक्षण के आधार भिन्न भिन्न हैं।

(क) पुनर्विलोकन के बाद पारित आदेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है, किन्तु पुनरीक्षण के बाद पारित आदेश के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।

कुछ उदाहरण जहाँ पुनरीक्षण हो सकेगा

(1) आदेश 14, नियम 2 के अन्तर्गत दिए गए आदेश को पुनरीक्षण

(2) सम्मन जारी किये जाने सम्बन्धी आवेदन को खारिज करना।

(3) निर्णय से पूर्व कुर्की का आदेश।

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