विज्ञान शिक्षण / Teaching of science

पौधों के विभिन्न भाग एवं उनके कार्य| Different Parts of Plants & Their Functions) in Hindi

पौधों के विभिन्न भाग एवं उनके कार्य

पौधों के विभिन्न भाग एवं उनके कार्य

पौधों के विभिन्न भाग एवं उनके कार्य
(DIFFERENT PARTS OF PLANTS AND THEIR FUNCTIONS)

पौधों के विभिन्न भाग एवं उनके कार्य- पौधे के विभिन्न भागों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। इन्हें क्रमशः मूल तन्त्र (Root system) तथा प्ररोह तन्त्र (Shoot system) कहते हैं।

जड़ का अर्थ
(Meaning of Root)

1. मूल या जड़ तन्त्र (Root System)— पादप अक्ष का अवरोही (descending) भाग जो नीचे मृदा की ओर और उसके अन्दर वृद्धि करता है, मूल तंत्र या जड़ तंत्र (root system) कहलाता है। जब बीज अंकुरित होता है तब सबसे पहला अंग मूलाकुर (radicle) निकलता है। मूलांकुर वृद्धि करके प्राथमिक (primary) अथवा मूसला (tap) जड़ बनाता है। इससे पार्वीय (lateral) शाखाएँ (द्वितीयक तथा तृतीयक जड़ें) निकलती हैं और जड़ तंत्र बनता है। यह भूमिगत होकर बहुत गहराई तक शाखित तथा फैला रहता है तथा पादप को मिट्टी में जमाए रखने का कार्य करता है। जड़ का एक और मुख्य कार्य है पौधे के लिए मिट्टी से जल एवं लवणों का अवशोषण (absorption) करके पौधे के ऊपरी भागों तक पहुँचाना। मूल या

जड़ तन्त्र के अभिलक्षण (Characteristics of Root System)

जड़ के मुख्य गुण निम्न हैं, जिनसे आप उसे पहचान सकते हैं-

  • यह हरी नहीं होती हैं क्योंकि इनमें पर्णहरित नहीं होता।
  • इनमें पर्व (internode) एवं पर्वसंधियों (nodes) में विभेद नहीं होता।
  • इनमें पत्तियाँ एवं कलिकाएँ (buds) नहीं होती।
  • वृद्धि धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती (गुरुत्व की ओर वृद्धि) होती है।
  • वृद्धि धनात्मक जलानुवर्ती (जल की ओर वृद्धि) होती है।
  • वृद्धि ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती (यानी प्रकाश अपवर्ती-प्रकाश की दिशा के विपरीत दूर वृद्धि) होती है।

मूल या जड़ तन्त्र के प्रकार (Types of Root System)

जड़-तन्त्र प्रमुखतया दो प्रकार के होते हैं-

(i) मूसला जड़-तन्त्र (Tap root system)- इस जड़-तंत्र का परिवर्धन मूलाकुर (radicle) से होता है जिसकी वृद्धि द्वारा प्राथमिक जड़ (मूसला जड़) बनती है। यह जड़ निरंतर वृद्धि करती है तथा इससे पार्वीय जड़े (lateral roots) निकलती है। मूसला जड़-तंत्र पौधे को भूमि में दृढता से जमाए रखता है क्योंकि ये जमीन को भेदती हुई वृद्धि करके बहुत गहराई तक पहुँच जाती हैं। यह द्विबीजपत्री पौधों; जैसे— चना, गुडहल, नीम का मुख्य जड़-तंत्र है।

(ii) अपस्थानिक (झकड़ा)जड़-तंत्र (Adventitious root system)— इस जड़-तंत्र में, प्राथमिक जड़ छोटी तथा अल्पविकसित रह जाती है और महीन एवं पतली रेशेदार जड़ों का गुच्छा मूलांकुर एवं प्रांकुर (plumule) के आधारीय भाग से बढ़ता है तथा यह झकड़ा जड़-तंत्र कहलाता है। इसमें जड़ें, छोटी, कम शाखित, सतही तथा क्षैतिज रूप से फैली होती हैं। यह जड़-तंत्र पौधे को दृढ़ता से जमाए नहीं रख पाता क्योंकि जड़ें भूमि में गहराई तक नहीं पहुँच पातीं। यह एकबीजपत्री पौधों, जैसे-मक्का, घास, गेहूँ आदि का मुख्य जड़-तंत्र है।

मूल या जड़ तन्त्र के कार्य (Functions of Root System)

(i) स्थिरीकरण- जड़ें पौधे को जमीन में मजबूती से जमाए रखती हैं (यांत्रिक कार्य)।
(ii) अवशोषण— जड़ें मृदा से जल एवं खनिज लवण अवशोषित करके ऊपर की ओर परिवहन करती हैं (कार्यिकीय प्रकार्य)।
(iii) विशिष्ट प्रकार्य- जड़े अपने आकारिकीय रूपांतरण से विशिष्ट कार्यिकी कार्य करने में;
जैसे— खाद्य भंडारण, स्वांगीकरण (assimiation), वायुमंडलीय आर्द्रता का अवशोषण, परपोषी पौधे से पोषण चूसना, गैसीय विनिमय तथा यांत्रिकीय कार्य जैसे— प्लवन (floating) या उत्प्लावन (buoyancy), दृढ़ स्थिरीकरण और आरोहण करने में सक्षम हो जाती हैं।

2. प्ररोह तन्त्र (Shoot System)— प्ररोह तन्त्र पादप का वायवीय तथा सीधा भाग होता है जो ऊपर की ओर वृद्धि करता है। यह अधिकतर भूमि की सतह के ऊपर होता है तथा भ्रूण के प्राकुर से विभेदित होता है। प्ररोह तन्त्र में तना (स्तम्भ), शाखाएँ, पत्तियाँ, पुष्प, फल तथा बीज सम्मिलित होते हैं। यहाँ हम स्तम्भ, पत्ती, पुष्प तथा फल की संरचना तथा कार्यों का वर्णन करेंगे।

तना का अर्थ
(MEANING OF STEM)

जड़ के ठीक ऊपर वाले भाग को जो नीचे मोटा होता है तथा ऊपर की ओर क्रमशः पतला होता जाता है, तना कहते हैं। तने की विशेषता होती है कि इसमें गाँठ जिन्हें पर्वसन्धि (Node) कहते हैं, होती है। दो पर्वसन्धियों के बीच की दूरी को पर्व (Internode) कहते हैं । तने पर पत्तियाँ पर्वसन्धि से विकसित होती है। प्रत्येक पर्वसन्धि एवं पत्ती के बीच एक कलिका होती है जिसे कक्षस्थ कलिका (Axillary bud) कहते हैं। तने के शीर्ष पर अग्रस्थ कलिका (Epical bud) होती है।

तने के विशिष्ट लक्षण (Specific Characteristic of Stem)

  1. यह प्रांकुर (भ्रूण का एक सिरा) के दीर्धीकरण (बढ़े हुए भाग) से बनता है।
  2. तना प्रकाश की ओर (धनात्मक प्रकाशानुवर्ती) तथा गुरुत्व के विपरीत (ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती यानी गुरुत्वापवर्ती) वृद्धि करता है।
  3. तना पर्वसंधियों (nodes) (पत्तियाँ लगने के स्थान) तथा पर्वो (internodes) में विभाजित होता है।
  4. पर्वसंधियों पर पत्तियाँ, शाखाएँ तथा कलिकाएँ पाई जाती हैं।
  5. तने पर कायिक कलिकाएँ या तो उसके अग्र सिरे (शीर्षस्थ कलिका-apical bud) पर पाई जाती हैं, जिससे पौधा ऊपर की ओर वृद्धि करता है या फिर पत्ती के कक्ष क्षेत्र में (कक्षीय कलिकाएँ) पाई जाती हैं जो पार्श्व शाखा बनाती हैं।
  6. तने पर पुष्पी कलिकाएँ (शीर्षस्थ अथवा कक्षीय) बनती हैं जिनसे पुष्प बनते हैं।

तने के कार्य (Functions of Stem)

तने के निम्न कार्य होते हैं।

(क) प्राथमिक कार्य (Primary Function)

  1. पत्तियों को सहारा देना तथा उन्हें इस प्रकार दिशान्यास प्रदान करना ताकि वे सूर्य के प्रकाश के सामने हों तथा प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन के लिए कुशलतापूर्वक गैस विनिमय कर सकें।
  2. यह जल एवं खनिज लवणों को जड़ से पत्तियों तक तथा भोजन को पत्तियों से पौधे के अन्य भागो तक संवहन करता है।
  3. इस पर फूल और फल लगते हैं।

(ख) द्वितीयक कार्य (Secondary Function)

  1. संचय— स्तम्भ पौधों में भोजन तथा जल का संचय करता है, जैसे—आलू ।
  2. चिरकालिकता— भूमिगत स्तम्भ प्रतिकूल वृद्धि काल को पार करने में मदद करता है, जैसे- अदरका
  3. कायिक प्रजनन – स्तम्भ द्वारा पौधों में कायिक जनन होता है, जैसे—गुलाब, गन्ना।
  4. प्रकाश-संश्लेषण— मरुद्भिद पौधे (desert plants) के समान कुछ पौधे जिनमें पत्तियाँ लघुकृत (reduced) हो जाती हैं, प्रकाश संश्लेषण का कार्य पर्णहरितयुक्त स्तम्भ द्वारा होता है, जैसे- नागफनी।
  5. सुरक्षा— कुछ पौधों में कक्षीय कलिकाएँ काँटों में रूपांतरित हो जाती हैं तथा उन्हें पशुओं से सुरक्षा प्रदान करती हैं, जैसे—नींबू, डुरैटा।
  6. आरोहण— प्रतान या हुक रूपांतरित शाखाएँ अथवा कलिकाएँ होती हैं। ये आस-पास की वस्तुओं के चारों ओर लिपटकर दुर्बल पौधे को चढ़ने में मदद करती हैं, जैसे- अंगूर की बेल।

तना तथा जड़ में विभेद
(DIFFERENCE BETWEEN ROOT AND STEM)

तना तथा जड़ में विभेद निम्न प्रकार हैं-

तना जड़
1. प्रांकुर से परिवर्धित 1. मूलांकुर से विकसित
2. तरुण स्तम्भ हरा होता है, क्योंकि इसमें पर्णहरित उपस्थित होता है। 2. अहरित होता है, क्योंकि पर्णहरित अनुपस्थित होता है
3. पर्व एवं पर्वसंधियों में विभाजित 3. पर्व एवं पर्वसधियाँ अनुपस्थित
4 पत्तियाँ, कायिक तथा पुष्पी कलिकाएँ
विद्यमान
4. यह अंग अनुपस्थित
5. अग्रस्थ सिरे पर कोई गोप (cap) नही 5. अग्रस्थ सिरे पर गोप उपस्थित
6. धनात्मकत प्रकाशानुवर्ती परंतु ऋणात्मकता
गुरुत्वानुवर्ती (यानी गुरुत्वापवर्ती)
6. ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती परतु धनात्मक
गुरुत्वानुवर्ती
7. पार्श्व शाखाओं की उत्पत्ति बहिर्जात (बाहर
से उत्पन्न-exogenous)
7. पार्श्वय मूलों की उत्पत्ति अंतर्जात (अंदर की परतों की परतों से उत्पन्न- endogenous)

पुष्प का अर्थ
(MEANING OF FLOWER)

प्ररोह के अग्र भाग पर अथवा कक्षस्थ कलिका से विकसित होने वाला पादप शरीर का यह अंग उसका जन्म-अंग होता है। यह गुच्छे के रूप में अथवा एकल रूप में हो सकते हैं। सभी पुष्पों को मिलाकर एक पुष्पक्रम (Inflorescence) कहते हैं। पुष्प में विभिन्न अंग पाये जाते हैं, जो क्रमश. पुष्पाधर, पुष्प वृन्त, बाह्यदल, बाह्यदलपुंज, दलपुंज. पुंकेसर तथा स्त्रीकेसर होते हैं।

कुछ पौधों में पुष्प के उपर्युक्त सभी भाग होते हैं। इन पौधों को उभयलिंगी पौधे कहते है, जैसे-सरसों, गुड़हल आदि। लेकिन कुछ पौधों में अन्य भागों के साथ केवल पुकेसर अथवा स्त्रीकेसर ही होते हैं। ऐसे पौधे को एकलिंगी पौधे कहते हैं, जैसे-लौकी, पपीता आदि। स्त्रीकेसर के तीन भाग होते है, इन्हें क्रमश: वर्तिकाग्र (Stigma), वर्तिका (Style) तथा अण्डाशय (Ovary) कहते है।

पुष्प के कार्य (Functions of Flower)

  1. पुष्प लैगिक प्रजनन में भाग लेने वाला रूपान्तरित प्ररोह है। इसकी उर्वर पत्तियों सूक्ष्म बीजाणुपर्ण (अर्थात् पुमंग) तथा महाबीजाणुपर्ण (अर्थात् जायांग) होती है जिन पर क्रमशः परागकोष तथा बीजाण्ड होते हैं। परागकोष में परागकण तथा बीजाण्ड में अण्डे उत्पन्न होते है।
  2. अधिकांश आवृतबीजीयों में परागण की विधियों के लिये पुष्प रूपान्तरित होते हैं।
  3. पुष्प के बाह्य दलपुंज तथा दलपुंज परागण की क्रिया में सहायक होते हैं।
  4. पुष्प परागण के लिये स्थान प्रदान करते हैं। परागकण अंकुरण तथा निषेचन की क्रिया को सफल बनाते हैं।
  5. पुष्प के अण्डप का अण्डाशय परिवर्धित होकर फल बनाता है जिसमें बीज सुरक्षित रहते हैं।

पत्ती का अर्थ
(MEANING OF LEAF)

प्रत्येक पर्वसन्धि से विकसित होने वाली रचना को पत्ती कहते हैं। यह हरे रंग की एवं आकार में चपटी तथा तने के पार्श्व से निकली हुई होती है। पत्ती तने के साथ जो कोण बनाती है, उसे कक्ष (Axial) कहते हैं। नवीन विकसित पत्तियों में कक्ष अपेक्षाकृत कम होता है, जबकि पूर्ण विकसित पत्तियों में यह अधिक होता है।

पत्ती के कार्य (Functions of Leaves)

पत्तियों के निम्नलिखित कार्य होते हैं।

  1. प्रकाश-संश्लेषण— सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पत्ती भोजन का संश्लेषण करती है।
  2. गैस विनियम– इनमें विद्यमान रंध्रों द्वारा गैस विनिमय होता है जो श्वसन एवं प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक है।
  3. वाष्पोत्सर्जन— रंधों द्वारा अतिरिक्त जल का वाष्पीकरण (वाष्प के रूप में) होता है जो पत्ती की सतह को ठंडक देता है तथा रसारोहण (ascent of sap) में मदद करता है।
  4. बिंदुनाव- नम जलवायु में पाए जाने वाले पौधों की पत्तियों के किनारों से अतिरिक्त लवणीय जल की बूंदों के रूप में रिसाव (exudation) होता है।
  5. विशिष्ट कार्यो के लिए रूपांतरण— कुछ पादपों में पत्तियाँ रूपांतरित होकर अन्य कार्य करती हैं, जैसे—भोजन-संश्लेषण एवं संग्रह, आधार एवं सुरक्षा, कायिक प्रवर्धन (propagation) तथा कीटों को फंसाना।

पत्ती के प्रकार (Types of Leaves)

पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं—

  • सरल (Simple)
  • संयुक्त (Compound)

चूँकि पत्ती के कक्ष में कलिका होती हैं अतः आप संयुक्त पत्ती को सरल पत्ती से भिन्न कर सकते हैं। इसकी जानकारी के लिए आपको कक्षीय कलिका की स्थिति पता लगानी पड़ेगी। कलिका, दोनों सरल तथा संयुक्त पत्ती के कक्ष में पाई जाती है। परंतु संयुक्त पत्ती के पर्णकों (leaflets) के कक्ष में नहीं । पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं।

1. सरल पत्ती (Simple leaf)— वह पत्ती, जिसका फलक अधिक हो और यदि कटा भी हो तो कटाव कभी-भी मध्य शिरा या पत्रवृन्त तक न पहुँचे, सरल पत्ती कहलाती है, जैसे—आम की पत्ती।

2. संयुक्त पत्ती (Compound leaf)— वह पत्ती जिसका पत्रफलक का कटाव कई स्थानों पर फलक की मध्य शिरा (Midrib) या फलक के आधार तक पहुंच जाता है तथा जिसके फलस्वरूप फलक अनेक छोटे-छोटे खण्डों में बँट जाता है, संयुक्त पत्ती कहलाती है।

फल का अर्थ
(MEANING OF FRUIT)

वास्तविक फल एक परिपक्व अण्डाशय है जो निषेचन के उपरांत विकसित होता है। बीजाण्ड बीज में विकसित होता है तथा अण्डाशय भित्ति परिपक्व होकर फल की भित्ति बनाता है जिसे अब फलभित्ति (pericarp) कहते हैं । फलभित्ति मोटी अथवा पतली हो सकती है सरस या मांसल गूदेदार (fleshy) फलों में जैसे आम में फलभित्ति मोटी होती है तथा तीन भागों में विभेदित होती है—

  1. बाह्यभित्ति (epicarp) फल का छिलका बनाती है
  2. मध्यभित्ति (mesocarp) के बीच में गूदेदार भाग
  3. अंतःमित्ति (endocarp) कठोर तथा काष्ठीय (आम, नारियल) या अधिकतर पतली एवं झिल्लीमय (संतरा) होती है। शुष्क फलों में फलभित्ति पतली कागज की तरह, शुष्क अथवा मोटी एवं काष्ठीय परंतु तीन भागों में विभेदित नहीं होती है।

कभी-कभी अण्डाशय के साथ-साथ अन्य पुष्पी भाग, जैसे— पुष्पासन (Thalamas) स्तम्भक (Receptacle) या बाह्यदल पुंज (calyx) विकसित होकर फल का हिस्सा बन जाते हैं, ऐसे फल को आभासी फल (False fruit) कहते हैं, जैसे-सेब, नाशपाती (पुष्पासन), अंजीर (सस्तम्भक)।

अनिषेक फल (Parthenocarpic fruit) — यह ऐसा फल है जो बिना निषेचन के विकसित हो जाता है। इसमें बीज अनुपस्थित होते हैं अथवा बीज जीवनाक्षम होते हैं जैसेकेला, अंगूर उद्यान विशेषज्ञ कृत्रिम रूप से ऐसे फल पैदा कर रहे हैं।

फलों के प्रकार (Types of Fruit)

फल मूल रूप से तीन प्रकार के होते हैं-

1. एकल फल (Simple fruit)— यह फल एक अंडपी-बहुअंडपी, युक्ताडपी अण्डाशय से विकसित होता है, जैसे— मटर, टमाटर ।

2. पुंज फल (Aggregate fruit)— यह एक ही पुष्पासन पर लगे असंख्य एकल फलों या सूक्ष्मफलो (fruitlets) का समूह अथवा पुंज (etareio) है जिससे प्रत्येक फल बहुअंडपी, वियुक्तांडपी (apocarpou-sfree carpels) अण्डाशय से विकसित होता है जैसे— आक/मदार (कैलोट्रोपिस) रैननकुलस ।

3. संग्रथित पफल (Composite or multiple fruit) – यह फल सम्पूर्ण पुष्पक्रम से या असंख्य पास-पास स्थित तालिका पुष्पों से विकसित होता है, जैसे—शहतूत, अनानास (pineapple) |

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