अपकृत्य विधि (Law of Tort)

सामूहिक सेवा का सिद्धान्त क्या है? भारत में यह प्रतिरक्षा किस सीमा तक मान्य है? 

सामूहिक सेवा का सिद्धान्त क्या है?
सामूहिक सेवा का सिद्धान्त क्या है?

सामूहिक सेवा का सिद्धान्त क्या है? भारत में यह प्रतिरक्षा किस सीमा तक मान्य है? 

सामूहिक सेवा का सिद्धान्त – इसका तात्पर्य यह है कि किसी नियोजन के अनुक्रम में सेवक द्वारा किये गये दोषपूर्ण कार्यों के लिए नियोजनकर्ता दायी होता है। सामूहिक सेवा का सिद्धान्त इस नियम का अपवाद था कि नियोजन के अनुक्रम में सेवक द्वारा किये गये दोषपूर्ण कार्य के लिए स्वामी उत्तरदायी होता है। यह नियम सर्वप्रथम पीस्टले बनाम फाउलर के वाव में सन् 1837 ई. में लागू किया गया और उसके वाद सन् 1850 ई. में हचिन्सन बनाम यार्क, न्यू कौंसिल एण्ड वारविक रेल कम्पनी के वाद में विकसित किया गया। पश्चातवर्ती निर्णयों द्वारा यह नियम इंग्लिश विधि का एक अंग बन गया। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक सेवक असावधानी के साथ अपने सहकर्मी को हानि पहुँचाता है, तो उसके लिए उसका स्वामी उत्तरदायी नहीं होगा।

प्रीस्टले बनाम फाउलर के वाद में वादी, जो प्रतिवादी का सेवक था, अपने जॉब में चोट लगने के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। यह चोट उसको तब लगी जब उसके सहकर्मी के कार्यभार के अधीन वह वाहन अत्यधिक लदाई के कारण टूट गया था। वादी और उसका सहकर्मी, दोनों ही प्रतिवादी के सेवक थे। यह धारित किया गया कि चूंकि अपकृत्यकारी और क्षतिग्रस्त व्यक्ति दोनों एक ही स्वामी के सेवक थे अतः यहाँ सामूहिकसेवा का सिद्धान्त लागू होगा और स्वामी को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया। सामूहिक सेवा की प्रतिरक्षा लागू करने के लिए निम्न आवश्यक संघटकों की उपस्थिति अनिवार्य है-

(1) यह कि अपकारी और क्षतिग्रस्त व्यक्ति, दोनों सह-सेवक हों; और

(2) यह कि दुर्घटना के समय, वे सामूहिक सेवा में कार्य कर रहे हों।

यह सिद्धान्त इस परिकल्पना पर आधारित था कि स्वामी तथा सेवक में एक विवक्षित संविदा है, जिसमें सेवक उस खतरे को सहने के लिए सहमत होता है,जो उसके नियोजन के साथ आनुषंगिक रूप से सम्बद्ध है, जिसमें उसके सहकर्मी की ओर से किये जाने वाले लापरवाही से परिपूर्ण सम्भाव्य व्यवहार के खतरे भी सम्मिलित हैं। अपहानि यदि स्वयं स्वामी की उपेक्षा से होती है, तो सामूहिक सेवा का सिद्धान्त लागू नहीं होता तथा सेवक प्रतिकर की माँग कर सकता है।

इस सिद्धान्त की आलोचना की गई है, विधान-निर्माण और न्यायिक-निर्णयों के माध्यम से इसका विस्तार-क्षेत्र सीमित कर दिया गया और अन्ततः लॉर रिफॉर्म (परसनल इन्जरीज) ऐक्ट, 1948 द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया। जिसमें यह व्यवस्था की गयी है कि-“किसी नियोजक के लिए, जिसके विरुद्ध उसी के द्वारा नियोजित व्यक्ति की उपेक्षा से कारित व्यक्तिगत क्षति के निमित्त वाद लाया गया, प्रतिरक्षा का यह तर्क मान्य नहीं होगा कि वह व्यक्ति जिसने क्षति कारित की है, क्षति कारित करते समय क्षति व्यक्ति के साथ सामूहिक सेवा में कार्य कर रहा था।”

भारतीय स्थिति

भारत में कुछ वादों में इस विषय पर विचार किया गया-

सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाम रुकमिनी बाई के वाद में वादी का पति, जो जी.आई.पी. रेलवे का कर्मचारी था, एक सह-कर्मचारी की उपेक्षा के कारण मृत्युग्रस्त हो गया। नागपुर उच्च न्यायालय ने उसकी कार्यवाही को स्वीकृति प्रदान की। मुख्य न्यायाधीश स्टोन ने अभिमत व्यक्त किया कि भारत में निर्णयों के सन्दर्भ में सामूहिक सेवा का सिद्धान्त एक असुरक्षित मार्गदर्शक है।  न्यायाधीश पोलक ने कहा है कि “चाहे भले ही मुझे यह धारित करना पड़े कि सामूहिक सेवा का सिद्धान्त इंग्लैण्ड की आधुनिक स्थिति के सन्दर्भ में साम्यपूर्ण है, फिर भी मैं इस सिद्धान्त को भारत में विस्तारित करने के पक्ष में नहीं हूँ, क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि यह सिद्धान्त भारत की स्थितियों के अनुरूप नहीं है। टी.एण्ड जे. ब्रोकल बैंक लिमिटेड बनाम नूर मोहम्मद के वाद में प्रिवी कौंसिल ने नागपुर उच्च न्यायालय के उपर्युक्त निर्णय का हवाला दिया, परन्तु उसने इस विषय वेल्स के एक अन्य निर्णय में प्रिवी कौंसिल ने यह धारित किया कि सामूहिक सेवा का सिद्धान्त पर कोई अन्तिम मत व्यक्त नहीं किया। गवर्नर-जनरल इन कौंसिल बनाम कान्सटैन्ट जेना यद्यपि भारत में लागू है किन्तु इसका विस्तार क्षेत्र इण्डियन इम्प्लायर्स लायेबिलिटी ऐक्ट, 1938| की धारा 3 (डी) द्वारा प्रसीमित कर दिया गया है। इस वाद में वादी का पति, जो प्रतिवादी की रेल-गया। प्रिवी कौंसिल ने यह धारित किया कि प्रतिवादी को सामूहिक सेवा की प्रतिरक्षा का तक सुलभ सेवा में एक फायरमैन था, अपने सह-कर्मचारी रेलवे ड्राइवर की उपेक्षा से कारित दुर्घटना में मारा है, और वादी का प्रतिकर का दावा नामंजूर कर दिया गया।

एम्प्लायर्स लायेबिलिटी ऐक्ट, 1938 के अलावा सामान्य नियोजन के सिद्धान्त का विस्तार स्टेट इन्श्योरेन्स ऐक्ट, 1948 तथा परसनल इन्जरी (कम्पेन्सेशन इन्श्योरेन्स) ऐक्ट, 1963 के वर्कमेन्स कम्पेन्सेशन ऐक्ट। 1923 द्वारा भी सीमित किया गया है। इसके अतिरिक्त एम्प्लायीज अधिनियमों द्वारा विभिन्न प्रकार के मामलों में अपने कर्मचारियों को प्रतिकर देने के लिए नियोजकों को उत्तरदायी माना गया है। गवर्नर-जनरल इन कौंसिल बनाम कान्सटैन्सजेना वेल्स के द्वारा उत्पन्न कठिनाई को ध्यान में रखते हुए एम्प्लायर्स लायबिलिटी ऐक्ट की धारा 3 को 1951 वाद में दिये गये निर्णय के दृष्टिकोण से भारत में सामूहिक सेवा की प्रतिरक्षा मान्य थी। इस निर्णय में संशोधित कर दिया गया है जिससे सामूहिक सेवा के सिद्धान्त को भारत में समाप्त कर दिया गया।। अब इस सिद्धान्त का केवल ऐतिहासिक महत्त्व ही रह गया है।

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