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सामाजिक न्याय पर बी. आर. अंबेडकर के विचार | Thoughts of BR Amberdkar on social justice hindi

सामाजिक न्याय पर बी. आर. अंबेडकर के विचार
सामाजिक न्याय पर बी. आर. अंबेडकर के विचार

सामाजिक न्याय पर बी. आर. अंबेडकर के विचार

डॉ० अम्बेडकर के सामाजिक विचार अथवा दलितोद्धार की दिशा में कार्य या विचारों का विवरण इस प्रकार है-

1. डॉ० प्रथा और हिन्दू समाज के परम्परागत विधान पर कठोर प्रहार

बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म, कबीर पंथी, ब्रह्म समाज, आर्य समाज, स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी, इन सबने अपने-अपने तरीके से दलितोद्वार के प्रयत्न किए हैं, लेकिन इनमें से किसी ने जाति-प्रथा और हिन्दू समाज के परम्परागत विधान पर वैसा कठोर प्रहार नहीं किया, जैसा प्रहार डॉ० अम्बेडकर ने किया। डॉ० अम्बेडकर से पूर्व के अधिकांश दलितोद्वारक तो वर्ण-व्यवस्था या जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं, वे तो केवल उच्च जातियों के जातीय अहंकार और विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना का विरोध करते हैं। जिन व्यक्तियों और सम्प्रदायों द्वारा जाति-व्यवस्था का विरोध किया गया है, उनका विरोध भी एक नरम विरोध मात्र है उस विरोध में कोई आक्रोश नहीं है। डॉ० अम्बेडकर ने इस बात पर बल दिया कि चार वर्णों पर आधारित सामाजिक ढाँचे की हिन्दू योजना से ही जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता को है, जो असमानता का एक अमानवीय और चरम रूप है। अतः अस्पृश्यों की समस्या, किसी जन्म दिया छोटे-मोटे उपचार से हल नहीं हो सकती, इसके लिए तो क्रांतिकारी सामाजिक हल की आवश्यकता है और वह क्रांतिकारी सामाजिक हल जाति व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से अस्वीकार करना ही हो सकता है।

2. स्वयं अछूतों के जीवन और प्रवृत्तियों में सुधार पर बल

डॉ० अम्बेडकर जानते थे कि अछूतों की वर्तमान स्थिति के लिए स्वयं अछूत वर्ग भी उत्तरदायी है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अछूतों द्वारा अपनी बुरी आदतों और हीनता की भावना का त्याग कर आत्मसम्मानपूर्ण जीवन की ओर प्रवृत् होना चाहिए। उन्होंने अनेक पत्रों में लेख लिखकर और अपने भाषणों में इस बात पर बल दिया कि अछूतों को माँगना छोड़ देना चाहिए, झूठ बोलना बंद कर देना चाहिए, मुर्दा जानवर खाना छोड़ देना चाहिए तथा इन सबके अतिरिक्त हीनता की भावना का त्याग कर श्रेष्ठ जीवन की ओर प्रवृत्ति होना चाहिए। अछूतों में स्वतन्त्रता, समानता और स्वाभिमान से जीवन बिताने की इच्छा होनी चाहिए और इसके लिए उनके सुझाव थे- (1) अछूत संगठित हों, (2) शक्षित हों, और (3) अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करें। उन्होंने अछूतों को सरकारी नौकरियों में जाने, जंगल तथा खेती की भूमि प्राप्त करने की शिक्षा दी। उन्होंने उपसंहार में कहा, “यदि महार अपने बच्चों को स्वयं के मुकाबले में अच्छी दशा में देखने की इच्छा नहीं. रखते तो एक मनुष्य व एक जानवर में कोई अन्तर नहीं होगा। “

डॉ० अम्बेडकर जानते थे कि दलितों की स्थिति में सुधार के लिए दलित स्त्रियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। 20 मार्च, 1927 को महद में आई हुई स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए डॉ० अम्बेडकर ने कहा – “कभी मत सोचो कि तुम अछूत हो। साफ-सुथरे को जिस तरह के कपड़े सवर्ण स्त्रियाँ पहनती है, तुम भी पहनो, यह देखो कि वे साफ हैं।” उन्होंने कहा, “यदि तुम्हारे पति और लड़के शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। शिक्षा जितनी जरूरी पुरुषों के लिए है, उतनी ही स्त्रियों के लिए भी आवश्यक है। यदि तुम लिखना-पढ़ना जान जाओ तो बहुत उन्नति होगी, जैसी तुम होंगी, वैसे ही तुम्हारे बच्चे बनेंगे। अच्छे कार्यों की ओर अपना जीवन मोड़ दो। तुम्हारे बच्चे इस संसार में चमकते हुए होंगे।”

3. अछूतों को सभी सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग का अधिकार

डॉ० अम्बेडकर ने इस बात पर बल दिया कि मन्दिर, कुएँ और तालाब आदि मनुष्य मात्र के लिए सुलभ होने चाहिए। अछूतों को इनका उपयोग न करने देना अनुचित है। उन्होंने अपने साथियों से सामाजिक कुएँ व तालावों का उपयोग जबरदस्ती करने का आग्रह किया। आवश्यक हो जाने पर उन्होंने इसके लिए सत्याग्रह भी किया। पहला सत्याग्रह 1927 ई० में “महद तालाब सत्याग्रह” के रूप में किया और पर्याप्त संघर्ष के बाद उन्हें इसमें सफलता मिली। इसी प्रकार रामगढ़ के गंगा सागर तालाब का पानी पीने के लिए डॉ० अम्बेडकर एक सौ साथियों को लेकर वहाँ गये और उन्होंने तालाब का पानी पिया। दूसरा सत्याग्रह 1930ई0 में ‘कालाराम मन्दिर प्रवेश’ के लिए किया गया। इसमें संघर्ष की अनेक स्थितियाँ आयीं और ‘गोलमेज सभा’ में भी डॉ० अम्बेडकर ने इस मामले को उठाया। अन्त में अक्टूबर, 1935 में सत्याग्रह बन्द किया गया। डॉ० अम्बेडकर ने हिन्दुओं के व्यवहार में परिवर्तन लाने पर बल दिया और कहा कि यह सत्याग्रह हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन करने के लिए है। ‘मन्दिर प्रवेश’ से सम्बन्धित विधेयक पर बोलते हुए उन्होंने ‘केन्द्रीय सभा’ में कहा था— “धर्म, जो अपने को मानने वालों के बीच में पक्षपात करता है, धर्म नहीं है। किसी भी गलत बात को धर्म के अन्तर्गत नहीं लाया जा सकता। धर्म व दासता का कोई साथ नहीं है।” उन्होंने महार वेतन कानून का विरोध भी किया, जो महाराष्ट्र के महारों के लिए ‘बन्धुआ मजदूरी और दासता’ की व्यवस्था करता था। डॉ० अम्बेडकर ने समता सैनिक दल की स्थापना की।

4. दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व

डॉ० अम्बेडकर ने सदैव इस बात पर बल दिया ब्रिटिश शासन द्वारा प्रारम्भ किये गये साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत जिस प्रकार कि मुसलमानों, ईसाइयों और पंजाब के सिक्खों को पृथक् प्रतिनिधित्व की स्थिति प्राप्त है, उसी प्रकार दलितों द्वारा ही चुने जायें, पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व पर ही सबसे अधिक बल दिया था और महात्मा गांधी के साथ उनका विरोध सबसे अधिक प्रमुख रूप से इसी बात पर था। महात्मा गाँधी का कहना था कि ‘दलित वर्ग’ हिन्दू समाज का एक अविभाज्य अंग है और ऐसी किसी भी स्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिससे हिन्दू समाज का विघटन हो। डॉ० अम्बेडकर दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व के आधार पर एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप चाहते थे और उन्होंने सन् 1932 के ‘पूना समझौते पर हस्ताक्षर परिस्थितियों के दबाव के कारण ही किये थे।

5. दलितों की स्थिति में सुधार के कानूनी उपाय

डॉ० अम्बेडकर का विचार था कि ‘मनुस्मृति’ के आधार पर भारत के अछूतों पर जो कानूनी पाबन्दियाँ लगी हुई हैं, वे कानून से ही दूर की जा सकती है। पुरानी स्मृतियाँ उस समय का कानून थीं, जिसे समाज और राज्य के द्वारा लागू किया गया, अब उनके प्रभाव को राज्य के कानून द्वारा ही दूर किया जाना चाहिए। प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाने के नाते भारत के सभी नागिरकों को कानून की दृष्टि से समानता का अधिकार तो स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता ही है, अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक समानता की व्यवस्था और अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को कानून की दृष्टि में अपराध घोषित करने की जो व्यवस्था की गई है।

डॉ० अम्बेडकर 1930 से ही इस बात पर जोर देते रहे कि दलित वर्ग के सदस्यों को विकास के लिए विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिए। सन् 1930 में ‘स्टारटे कमेटी’ के एक सदस्य के रूप में भी उन्होंने निम्न सिफारिशें की थीं-

(i) दलित छात्रों के वजीफों की संख्या बढ़ायी जाय।

(ii) उनके लिए छात्रावासों की व्यवस्था की जाए।

(iii) उन्हें कारखानों, रेलों की कार्यशालाओं तथा अन्य ट्रेनिंग के लिए वजीफे दिये जाएं।

(iv) विदेश में इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए वजीफा दिया जाय।

(v) इन सभी कार्यों की देखभाल के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त किया जाय।

6. धर्म परिवर्तन

डॉ० अम्बेडकर दलितों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन चाहते थे और जब उन्होंने समझा कि दलित जब तक हिन्दू हैं, तब तक उनके लिए सम्मानपूर्ण जीवन बिता पाना सम्भव नहीं है, तब उन्होंने दलितों के धर्म परिवर्तन की बात सोची। डॉ० अम्बेडकर ने देखा कि जिन दलितों ने इसाई धर्म या सिक्ख धर्म ग्रहण कर लिया है, धर्म परिवर्तन के बाद उन्हें अपने नये धर्म के अनुयायियों के बीच अपमान की स्थितियाँ सहन करनी पड़ रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने सोचा कि यदि दलित इस्लाम ग्रहण करते हैं तो यह उनके लिए अन्तर्राष्ट्रीयकरण की स्थिति होगी। बौद्ध धर्म में उन्होंने समानता का सन्देश पाया और सन् 1956 में 5 लाख व्यक्तियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया। इस धर्म परिवर्तन का उद्देश्य दलित वर्ग को अपनी एक अलग पहचान और एक सम्मानपूर्ण स्थिति प्रदान करना ही था।

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