भारत में शक्ति और ऊर्जा की समस्या पर प्रकाश डालिये।
भारत में ऊर्जा और शक्ति की समस्या (Problem of Energy and Power in India)
ऊर्जा एवं शक्ति की समस्या का मतलब अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को जितनी मात्रा में इसकी आवश्यकता होती है उससे कम मात्रा की उपलब्धि से है। जितनी मात्रा में विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में ऊर्जा एवं शक्ति की मांग होती है उतनी मात्रा में उसकी पूर्ति का न होना या पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना ऊर्जा संकट कहलाता है। भारत में आर्थिक विकास के साथ-साथ ऊर्जा एवं शक्ति की कमी का अनुभव किया जा रहा है। ऊर्जा संकट पर दो दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है। एक मांग के दृष्टिकोण से, दूसरे पूर्ति के दृष्टिकोण से मांग की दृष्टिकोण से ऊर्जा की मांग सभी क्षेत्रों में बढ़ी है। कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों में उत्पादन में तकनीकी परिवर्तन तथा ऊंचे संरचना क्षेत्र में यंत्रीकरण के कारण ऊर्जा के मांग में वृद्धि हुई है।
भारत में ऊर्जा की मांग में वृद्धि के कारण (Causes of increase in demand for energy in India)
संक्षेप में भारत में ऊर्जा की मांग के बढ़ने के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-
- कृषि विकास
- ग्रामीण विद्युतीकरण
- सहायक उद्योगों में ऊर्जा की मांग
- औद्योगिक विकास
- अवस्थापना क्षेत्र में ऊर्जा की मांग
- व्यवसायिक क्षेत्र में ऊर्जा की मांग
- पेट्रोलियम पदार्थों की मांग में वृद्धि
(1) कृषि विकास – नवीन कृषि रणनीति के अन्तर्गत कृषि उत्पादन में अधिकतम वृद्धि के लिए कृषि उत्पादन के तरीकों में विविधता लाई जा रही है जिसके अन्तर्गत कृषि में उन्नत तरीकों का प्रयोग किया जा रह है। मशीनों के प्रयोग के अतिरिक्त सिंचाई के साधनों में ऊर्जा एवं शक्ति का प्रयोग विभिन्न रूपों में बढ़ा है। डीजल, तेल तथा विद्युत के उपयोग में वृद्धि हुई है। प्रथम योजना के अन्त में सिंचाई के कार्यों में विद्युत की मांग कुल मांग का 2.2% था, तीसरी योजना के अन्त में यह 6.4%, 1984-85 के अन्त में 18.7% तथा 1990 के अन्त में 22.3% हो गयी है। इसी प्रकार पम्पिंग सेटों की संख्या में वृद्धि हुई है। दूसरी योजना के अन्त में विद्युत से चलने वाले सेटों की संख्या 1.6 लाख थी जो 1988-89 के अन्त में 68 लाख हो गयी थी।
(2) ग्रामीण विद्युतीकरण- विभिन्न योजनाओं में ग्रामीण विद्युतीकरण के कार्यक्रम को पूरा किया जा रहा है। दूसरी योजना के अन्त में 25.6 लाख गाँवों का विद्युतीकरण किया गया। तीसरी योजना के अन्त में 45% गांव तथा 1980 के अन्त में 2.33 लाख गाँव या 40.4% गांवों का विद्युतीकरण किया गया। वर्तमान में बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम के अन्तर्गत इसे प्राथमिकता दी जा रही है। सातवीं योजना के अन्त तक सभी गांवों का विद्युतीकरण किया जाना है जिससे विद्युत के मांग में और भी वृद्धि होगी।
(3) सहायक उद्योगों में विद्युत की मांग- कृषि से सम्बन्धित क्षेत्रों में ग्रामीण एवं सहायक व्यवसायों में रोजगार के अवसर में वृद्धि के लिए द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों के विकास में भी ऊर्जा की मांग बढ़ेगी। ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योगों का विकास, अच्छे संरचना के विकास, सामुदायिक परिस्थितियों में निर्माण में परिवहन व व्यापार वृद्धि होगी जिसके में आधार में अधिक शक्ति एवं ऊर्जा का प्रयोग निहित है जिससे मांग में वृद्धि होगी।
(4) औद्योगिक विकास- विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप शक्ति एवं ऊर्जा की मांग बढ़ी है। औद्योगीकरण में विभिन्न रूपों में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बढ़ती हुई शक्ति एवं ऊर्जा की मांग को विद्युत उपयोग द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। पहली योजना के अन्त में औद्योगिक क्षेत्र में विद्युत का उपयोग का 3.8% था जो 1970-71 में बढ़कर 34.3% तथा 1984-85 में बढ़कर 55.6% तथ 1990 के अन्त में यह 61.3% रहा है। कुल उपयोग
(5) अवस्थापना के क्षेत्र में ऊर्जा की मांग- देश में नियोजन के फलस्वरूप आर्थि अवस्थापना का अत्यन्त तीव्र गति से विकास हुआ है। इस विकास के कारण अर्थव्यवस्था में सड़क परिवहन के साधनों, रेलमार्गों, संचार माध्यमों संवादवाहन के साधनों, शिक्षा व चिकित्सा संस्थान आदि का विस्तार अत्यन्त तीव्र गति से हुआ है। इन सब साधनों में ऊर्जा की मांग होती है।
इन सबके अतिरिक्त देश में परिवहन व्यवस्था के विकास द्वारा विपणन व व्यापार में वृि होती है। परिवहन के साधनों के विकास के साथ-साथ परिवहन क्षेत्र में ऊर्जा एवं शक्ति के मांग वृद्धि हुई है। सन् 1970-71 में विद्युत के परिवहन क्षेत्र में कुल उपयोग का केवल 1.3% उपयोग किया जाता था जो 1980-81 में बढ़कर 2.6% तथा 1990 के अन्त में 3.2% हो गयी है।
(6) व्यवसायिक क्षेत्र में उर्जा की मांग- घरेलू वाणिज्यिक क्षेत्र में शक्ति के मांग में वृद्धि हुई है। 1956 में व्यवसायिक क्षेत्र में कुल मांग का 16.6% विद्युत का उपयोग किया जाता था जो 1990 में बढ़कर 23% हो गया है।
(7) पेट्रोलियम पदार्थों की मांग में वृद्धि – अधोसंरचना के विकास के कारण व्यापार व परिवहन में विकास हुआ है। कृषि क्षेत्र में विद्युत की कमी के कारण डीजल तथा तेलों से चलने वाली मशीनों के प्रयोग में वृद्धि हुई है। परिवहन क्षेत्र में 1953 के अन्त में 40.8% तेल का प्रयोग ऊर्जा के साधन के रूप में होता था जो 1990 के अन्त में बढ़कर 73.2% हो गया है। तेल उपयोग के इस वृद्धि को घरेलू उत्पादन से पूरा नहीं किया जा सका। अतः आयात करना पड़ा है। 1950-51 में पेट्रोलियम का उत्पादन 2.5 लाख टन था तथा लक्ष्य मांग 31 लाख टन थी 1989-90 में उत्पादन बढ़कर 27 करोड़ टन तथा मांग 3.58 करोड़ टन थी। इस मांग को आयात द्वारा पूरा किया गया। सन् 1964-65 में 72.2 करोड़ रुपयों के पेट्रोलियम का आयात किया गया जो 1990-91 के अन्त में 4830 करोड़ रुपये का रहा है।
पूर्ति पक्ष की ओर से ऊर्जा का संकट (Energy Crisis from supply side)
शक्ति एवं ऊर्जा के मांग के बढ़ने के साथ-साथ उसकी उपलब्धि लक्ष्य के अनुरूप नहीं रहा है। अतः इसके बराबर इसकी पूर्ति कम रही है। इसके निम्न कारण रहे हैं-
(1) जल विद्युत उत्पादन में कमी- जल विद्युत उत्पादन में कमी वर्षा की कमी, उत्पादन में तकनीकी खराबी और जल विद्युत योजनाओं को पूरा करने में देर होने के कारण उत्पादन लक्ष्यों के अनुसार नहीं हो पाता है। सन् 1979-80 के अन्त में विद्युत का अभाव 16% था जो 1984-85 में कम होकर 6.7% तथा वर्तमान में यह पूरी कम हो गयी है।
(2) कोयले का अभाव- तापघरों को समय पर कोयला न मिल सकने के कारण विद्युत उत्पादन में कमी हुई है।
(3) परमाणु का सीमित उपयोग- परमाणु शक्ति का उपयोग अभी विस्तृत क्षेत्रों में नहीं होता है।
(4) पेट्रोलियम पदार्थों का कम उत्पादन- देश में ऊर्जा की पूर्ति में कमी का एक प्रमुख कारण यह है कि देश में पेट्रोलियम पदार्थ प्रदान करने वाले खनिज तेल का बहुत कम उत्पादन हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में खनिज तेल की जितनी मांग है उसके लगभग 50 प्रतिशत का उत्पादन ही अपने देश में हो पाता है। यद्यपि इस दिशा में सरकार द्वारा अनेक प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं परन्तु अभी इन प्रयासों के परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं।
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