सुदूर-पूर्व एशिया की प्रमुख वनस्पतियाँ
किसी भू-खण्ड की प्राकृतिक वनस्पति उस प्रदेश के भौतिक परिवेश का समुच्चय प्रकट करती है। प्राकृतिक वनस्पति न केवल पृथ्वी का परिधान है वरन् उसकी धड़कनों का स्पन्दन भी है। वानस्पतिक आवरण के विकास में जलवायु, धरातल एवं मृदा का सहयोग सर्वाधिक होता है। इनमें भी जलवायु सबसे प्रधान नियन्त्रक है। कहा जाता है कि प्राकृतिक वनस्पति जलवायु का प्रतिबिम्ब है जो सर्वथा उचित है। एशिया में प्राकृतिक वनस्पति का विकास जलवायु की पेटियों के अनुरूप पाया जाता है। चूँकि एशिया महाद्वीप में विश्व में पाई जाने वाली लगभग सभी प्रकार की जलवायु यत्र-तत्र विद्यमान है, स्वभावतः यहाँ वानस्पतिक विविधता भी सर्वाधिक है। अतः यह ग्राह्य सत्य है कि एशिया विश्व का वानस्पतिक उद्यान है। उत्तर में टुण्ड्रा के लाअकेन से लेकर भू-मध्य रेखीय वनों में विशाल वृक्षों की उपस्थिति एशिया की अपनी विशेषता है। एशिया की विशालता ने वानस्पतिक भूखण्डों को भी विशाल बना दिया है। टैगा के सदाबहार कोणधारी वन, साइबेरिया का घास का मैदान, मानसूनी पतझड़ वन और आन्तरिक पठारें और पर्वतों को अल्पाइन वनस्पति इसके प्रमाण हैं।
सामान्य विशेषताओं के आधार पर एशिया की प्रकृतिक वनस्पति को अनेक प्रखण्डों में विभक्त किया जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि यहाँ की वनस्पति के प्रमुख प्रकारों में विभिन्न प्रकार के वन, घास और कँटीली झाड़ियाँ प्रमुख हैं। यहाँ प्रधानतः तीन प्रकार के वन पाये जाते हैं-
(क) कोणधारी वन- ढुँगा और ऊँचे पर्वतीय भागों में
(ख) चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन- भू-मध्यरेखीय प्रखण्ड और मानसूनी भागों के अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में,
(ग) चौड़ी पत्ती वाले पतझड़ वन- मौसमी वर्षां वाले भागों में।
इसी प्रकार अनेक प्रकार की घासों के मैदान भी मौजूद हैं जैसे साइबेरिया का समशीतोष्ण घास का मैदान (स्टेपी), उच्च पर्वतीय भागों में युग्याल, मानसूनी क्षेत्रों में लम्बी घास के मैदान और पश्चिमी एशिया के शुष्क भागों में छोटी घासों और झाड़ियों से युक्त विरल घास के मैदान। यहाँ के अर्द्धशुष्क भागों में लघु वृक्ष और घास के मैदानों को पार्कलैण्ड कहा जाता है। जहाँ वर्षा की मात्रा नगण्य है वहाँ मात्र कँटीली झाड़ियाँ ही पाई जाती हैं, जैसे मरुस्थलीय भागों में तटवर्ती भागों, जैसे सुन्दर वन, म्यंमार एवं इण्डोनेशिया में कच्छ वनस्पति पाई जाती है जिसमें विविध प्रकार के लघु पेड़, घासें और खारे जल में उगने वाले पौधे होते हैं। भौतिक परिवेश के अनुरूप यहाँ के वनस्पति भू-खण्ड वनस्पति का आदर्श रूप उपस्थित करते हैं। इसमें से कुछ क्षेत्रों की प्राकृतिक वनस्पति का आवरण विद्यमान है। क्षेत्रीय विशेषताओं के आधार पर एशिया को 12 वानस्पतिक प्रदेशों में बाँटा गया है।
वानस्पतिक प्रखण्ड
(1) उष्ण आर्द्र सदाबहार वन- एशिया के विषुवत् रेखीय प्रखण्डों और उसके समीपवर्ती मानसूनी भू-भागों में जहाँ वार्षिक वर्षा अधिक लम्बी अवधि तक वितरित हैं, वहाँ चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन पाये जाते हैं। इन वृक्षों की लकड़ी कड़ी और तने मोटे होते हैं। इनका विस्तार समुद्र तट से ऊँची पहाड़ियों तक होता है। ऐसे वन घनी झाड़ियों से आवृत्त होते हैं। कही-कहीं बाँस, घास और घनी झाड़ियाँ इतनी सघन होती हैं कि उनमें होकर आना-जाना दुष्कर होता है। ऐसे क्षेत्रों में वनस्पति के प्रकार पर ऊँचाई का प्रभाव कम से कम 1,800 मीटर तक नगण्य होता है। एशिया में ऐसी वनस्पति का प्रसार दक्षिणी-पूर्वी एशिया के द्वीप समूहों, तटवर्ती म्यांमार, इण्डोनेशिया और पूर्वी भारत में है जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमी. से अधिक है। अधिक वर्षा और तापमान के कारण यहाँ के वृक्ष 50-60 मीटर तक ऊँचे होते हैं। यहाँ विकसित होने वाली घासें, बेलें और लताएँ इनकी सघनता को बढ़ा देती हैं फिर भी अमेजन बेसिन की तुलना में एशिया के विषुवत रेखीय वन कम सघन हैं। यहाँ भी एक साथ विभिन्न जातियों के पेड़ और झाड़ियाँ उगती हैं जिससे उनका व्यावसायिक महत्त्व घट जाता है। इन सघन जंगलों में पाये जाने वाली कठोर लकड़ी के वृक्ष विविध कार्यों के लिए प्रयोग में आते हैं। इन जंगलों में पेड़ बहुत जल्दी विकसित होते हैं. अतः न्यूनतम वन संरक्षण के परिणामस्वरूप वनों की हरीतिमा बनी रहती है। यहाँ पाये जाने वाले प्रमुख वृक्षों में महोगनी, गटापार्चा, सन्दल उड़, बाँस, बेंत, रबड़, ताड़, आइबरी, सिनकोना, गंजउड आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। तटवर्ती भागों में कच्छ वनस्पति की प्रधानता है। इस प्रकार घने जंगलों में जहाँ एक और उड़ने और कूदने वाले जीव पाये जाते हैं, वहीं विशाल स्थलीय जानवर जैसे हाथी, दरियायी घोड़ा और गैंडा आदि भी मौजूद हैं।
(2) मानसूनी पतझड़ वन- एशिया के विशाल दक्षिणी एवं पूर्वी भार्गों में मानसूनी जलवायु पाई जाती है जिसकी विशेषताओं में ग्रीष्मकालीन वर्षा और शुष्क शीतकाल की प्रधानता है। जहाँ वर्षा की मात्रा 200 सेमी. के आस-पास है वहाँ चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वृक्ष पाये जाते हैं और जहाँ वर्षा 100 से 200 सेमी. के मध्य है वहाँ चौड़ी पत्ती वाले पतझड़ वन पाये जाते हैं। शुष्ककालीन न्यून सापेक्षिक आर्द्रता के कारण ये वृक्ष अपनी पत्तियों को गिरा कर अपनी रक्षा करते हैं जिसके कारण इन्हें पतझड़ वन कहा जाता है। जहाँ वर्षा 30 से 100 सेमी. के मध्य होती है वहाँ छोटे वृक्ष और घासें पाई जाती हैं जिनमें कँटीली झाड़ियों और लघु वृक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। इससे कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मात्र कँटीली झाड़ियाँ और छोटी घासें पाई जाती हैं। एशिया महाद्वीप में इस प्रकार की वनस्पति सम्पूर्ण दक्षिणी एशिया भारत, म्यांमार, पाकिस्तान, बांगलादेश, इण्डो-चीन और दक्षिणी चीन में पाई जाती है।
(3) पर्वतीय वनस्पति – हिमालय से लेकर उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के पर्वतीय ढालों पर पाई जाने वाली वनस्पति को अल्पाइन के नाम से भी पुकारा जाता है। ऊँचाई ने तापमान को इस स्तर तक प्रभावित किया है कि हिमालय के ऊँचे ढालों और साइबेरिया की वनस्पति का समान है। इन वनों में चीड़ देवदार जैसे नरम लकड़ी के वृक्षों के साथ वृक्षों की आकृत्ति छोटी होती जाती है और लगभग 4,000 मीटर के बाद मात्र घासें पाई जाती हैं। 5,000 मीटर से ऊपर इनकी उपस्थिति भी मौसम के अनुरूप ही पाई जाती है क्योंकि जाड़े में निचले भागों में भी बर्फ जम जाती है।
(4) कोणधारी पतझड़ मिश्रित वन- इस प्रकार की वनस्पति प्रधानतः जापान, कोरिया, उत्तरी चीन, दक्षिणी-पूर्वी साइबेरिया और तुर्की के पठारी भागों और पहाड़ों के ढालोंपर पाई जाती हैं। उच्च अक्षांशीय स्थिति, न्यून वर्षा और ऊँचाई के कारण यहाँ दोनें प्रकार के वृक्ष, (पतझड़ और सदाबहार) पाये जाते हैं। इन वृक्षों में जहाँ नरम लकड़ी वाले वृक्ष जैसे मेपल, बैतूल, चीड़, हेमलाक अदि प्रमुख हैं वहीं कठोर लकड़ी के चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष भी पाये जाते हैं। जहाँ वर्षा पर्याप्त होती है वहाँ चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वृक्ष जैसे तुंग, शहतूत, कपूर आदि भी खूब उगते हैं।
(5) मिश्रित सदाबहार एवं पतझड़ वन- सम्पूर्ण पूर्वी एशिया में जहाँ पर्याप्त मौसमी वर्षा और सामान्य तापमान का प्रभाव है वहाँ चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पतझड़ वन के रूप में मिश्रित वन पाये जाते हैं। चीन और हिन्द चीन के सम्भाव ऐसी ऐसी वनस्पतियों का प्रमुख क्षेत्र हैं। यहाँ जनाधिक्य के कारण इनका वृहद् पैमाने पर विनाश हो गया है और अब केवल ऊँचे ढालों पर इनके अवशेष बच गये हैं। चीन में नानशान, टिसिनलिंग श्रेणी और पश्चिमी उच्च भूमि के क्षेत्रों में ये बच गये हैं। यहाँ अनेक प्रकार की इमारती और तेल वाले वृक्ष पाये जाते हैं। इनके मध्य बाँस, घास आदि के विसतार भी पाये जाते हैं। तीव्र वन विनाश के कारण चीन में वृक्षारोपण राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में स्वीकार किया गया है।
वन सम्पदा
वनोत्पादन, भूमि संरक्षण, बाढ़ नियन्त्रण, मिट्टी की उर्वरता वृद्धि आर्द्रता संरक्षण एवं पशुपालन अनेक महत्त्वपूर्ण योगदानों के कारण वनों की गरिमा आदिकाल से मानव के लिए महत्त्वपूर्ण रही हैं। लम्बी अवधि के वन दोहन, अवैज्ञानिक आचरण और अज्ञानता के कारण जिन देशों में कुल क्षेत्रफल के एक तिहाई से कम भूमि पर वन हैं उन देशों में चिंता व्याप्त हो गयी है और कानूनी वन संरक्षण और वृक्षारोपण अभियान चलाया जा रह है।
लकड़ी के उत्पादन में एशिया का प्रमुख स्थान है, जाहँ विश्व की एक तिहाई से अधिक लकड़ी प्रति वर्ष उत्पादित होती है। अग्रणी उत्पादकों में रूस, चीन, भारत, हिन्देशिया मलेशिया, थाईलैण्ड, जापान, फिलीपीन्स, म्यांमार, बंगलादेश और नेपाल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अकेले रूस टैंगा वन से विश्व की 16 लकड़ी उत्पादित करता है। वर्ष 1992 में चीन का उत्पादन अंश 8.2 प्रतिशत, भारत का 5.3 प्रतिशत और अन्य देशों का पाँच प्रतिशत से कम था। एशिया में वन आधारित कागज उद्योग कुछ ही देशों में विकसित हो पाया है जिसमें ‘साइबेरियाई रूस, जापान, कोरिया, चीन, फिलीपीन्स और भारत अग्रणी देश है।
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