किशोरावस्था में बौद्धिक तथा मानसिक विकास | Intellectual and mental development in adolescence in hindi
किशोरावस्था में बौद्धिक तथा मानसिक विकास- बाल्यावस्था में बालक का विकास शैशवावस्था की अपेक्षा अधिक तीव्र होता है। इस काल के दौरान भी शैशवावस्था में होने वाले मानसिक विकासों का दायरा और अधिक विस्तृत होता चला जाता है। मीयर के अनुसार बाल्यकाल से किशोरावस्था में भी मानसिक योग्यताएँ अधिक स्थिर हो जाती हैं। किशोरावस्था में भी मानसिक विकास बहुत शीघ्र और अधिक मात्रा में होता है। इस अवस्था में बुद्धि अपने विकास की चरम सीमा पर होती है। किशोरावस्था की अवधि में निम्नलिखित मानसिक विकास होते हैं
(i) अमूर्त चिन्तन- इस अवधि में बालक अमूर्त चिन्तन कर सकता है। बालक के बाल्यकाल की चंचलता लगभग समाप्त हो जाती है।
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(ii) कल्पना-शक्ति का विकास- इस अवधि के दौरान कल्पना-शक्ति का व्यापक विस्तार होता है और इसी विकास के आधार पर वह अपनी अन्य आन्तरिक शक्तियों का विकास करने में सक्षम होता है। लेखक, कवि, दार्शनिक तथा संगीतकार इसी अवस्था का परिणाम होता है। किशोर किसी भी बात को लेकर काल्पनिक संसार में जा सकता है।
(iii) ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता- इस अवस्था में किशोर किसी वस्तु या विषय के बाल्यकाल की अपेक्षा अपना ध्यान अधिक केन्द्रित करने की क्षमता रखता है। अतः किशोरों में ध्यान विस्तार की क्षमता बहुत बढ़ जाती है।
(iv) स्थाई स्मृति का विकास–किशोरावस्था में विकसित हुई स्मृति स्थाई होती है। रटन स्मृति का स्थान स्थाई स्मृति धीरे-धीरे लेती रहती है।
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(v) तर्क-शक्ति का विकास-किशोरावस्था में बालक जल्दी से किसी के साथ सहमत नहीं होते। इसका कारण है कि उनमें तर्क-शक्ति का व्यापक विकास हो जाता है। साथ में उनमें प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति भी प्रबल हो जाती है, जो उनकी तर्क-शक्ति का विकास करती है।
(vi) रुचियों का विकास- रुचियों का विकास किशोरावस्था में बड़ी तीव्रता के साथ होता है। इनमें विभिन्न प्रकार की रुचियों का समावेश होता है। आत्म-प्रदर्शन की रुचि बड़ी प्रबल होती है। लड़के समूह-खेलों में बड़ी रुचि लेते हैं, जबकि लड़कियाँ संगीत, नृत्य आदि में। इन रुचियों के साथ-साथ किशोरों में शारीरिक प्रदर्शन की रुचि भी अत्यधिक विकसित हो जाती है। समय व्यतीत करने के लिए वे पुस्तकें पढ़ते हैं, फिल्में देखते हैं तथा संगीत सुनते हैं। अपने शरीर को सुन्दर बनाने के लिए वेश-भूषा, बालों, नाखूनों आदि की सजावट में वे विशेष रुचि लेते हैं ।
(vii) निर्णय करने की योग्यता- किशोरावस्था में किशोर बाल्यकाल से कुछ अलग प्रकार के विकास का प्रदर्शन करते हैं। जैसे-जैसे उनमें स्वतन्त्र निर्णय लेने की योग्यता विकसित होती जाती है। वे अब अच्छे और बुरे के बारे में तथा ठीक या गलत के बारे में निर्णय लेने में सक्षम हो जाते हैं। इस योग्यता के विकास के परिणामस्वरूप किशोरों में आत्म-विश्वास पैदा होने लगता है, जो उसे भविष्य में समायोजन में सहायता करता है।
(viii) समस्या समाधान की योग्यता- किशोरावस्था के दौरान किशोरों में समस्या समाधान की योग्यता देखने को मिलती है। किशोरों में सूझ-बूझ की योग्यता का इतना विकास हो जाता है कि दिन प्रतिदिन की छोटी-मोटी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के वे योग्य हो जाते हैं। समस्याओं के समाधान में किशोरों को खुशी का अहसास होने लगता है। थार्नडाईक ने समस्याओं को दो वर्गों में बाँटा है—
(a) ये व्यावहारिक समस्याएँ या कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता।
(b) बौद्धिक समस्याएँ या कुछ समझने की आवश्यकता।
बड़े बच्चों में समस्या समाधान की योग्यता अधिक विकसित होती है। किसी समस्या के समाधान को सामान्यीकृत करने की योग्यता किशोरावस्था में अधिक होती है।
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(ix) स्वतंत्र पठन का विकास-किशोरावस्था ही एक ऐसी अवस्था है जहाँ से बालकों में स्वतंत्र पठन की रुचि का विकास शुरू होता है। लड़के अधिकतर रोमांचकारी साहित्य पढ़ने में रुचि रखते हैं और लड़कियाँ अधिकतर प्रेम कहानियाँ पढ़ने में रुचि लेती हैं।
(x) भविष्य के प्रति जागरुकता- किशोरावस्था में प्रवेश पाने के पश्चात् किशोर अपने भविष्य के बारे में अधिक जागरुक होते हैं और भविष्य से सम्बन्धित योजनाओं का निर्माण करते हैं। इस कार्यमें लड़के अधिक सक्रिय एवं जागरुक होते हैं।
(xi) बुद्धि का अधिकतम विकास–किशोरावस्था में बुद्धि का अधिकतम विकास माना गया है। लगभग 14 से 16 वर्ष की आयु तक बुद्धि का अधिकतम विकास जारी रहता है। टर्मन के अनुसार स्कूल के विद्यार्थी और वयस्क 16 वर्ष तक बुद्धि के विकास के शिखर पर होते हैं। वह बुद्धि का विकास कर सकता है? इसका उत्तर पूरे विश्वास के साथ देना बहुत ही कठिन है। 16 वर्ष की आयु के पश्चात् यह अर्थ नहीं कि बालक बौद्धिक रूप से और विकसित नहीं होता।
(xii) सामाजिक कार्यों में रुचि-किशोरावस्था की अवधि में बालक एवं बालिकाएँ विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगते हैं। इस दृष्टि से वह अधिक ‘सामाजिक’ हो जाता है। समाज में उसका कुछ रुतबा बनता है।
(xiii) भाषा ज्ञान और शब्द भण्डार में वृद्धि – इस अवधि में बालक की भाषा का विकास अधिकतम होता है और शब्दों के भण्डार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। इस अवस्था में बालक स्वयं को भाषा के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है।
(xiv) यौन विषयों में रुचि – किशोरावस्था से ही यौवनारम्भ होता है तथा बालक एवं बालिकाओं में यौन सम्बन्धी भावनाओं की उत्पत्ति शुरू हो जाती है। परिणामस्वरूप इस अवस्था में लड़के-लड़कियाँ यौन विषयों में रुचि लेना शुरू कर देते हैं।
(xv) प्रत्ययों का निर्माण- वाल्यकाल में प्रत्ययों का विकास उतनी स्पष्टता से बच्चों में नहीं हो पाता जितना कि किशोरावस्था में हो जाता है। उदाहरणार्थ — ईमानदारी या दूसरे की भावनाओं को ठीक प्रकार से समझ सकना। वह विश्व में अन्य पहलुओं के बारे में स्वयं की रुचि रखता है तथा अपने ही तरीके से सोचता है। इससे उसमें विभिन्न प्रत्यय निर्मित होते हैं, जो उसे भविष्य में भी खोजबीन के कार्य में सहायता देते हैं।
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(xvi) नायक पूजा – किशोरावस्था के दौरान हीरो पूजा प्रमुख हो जाती है। किशोर किसी एक को अपना नायक बना लेते हैं चाहे वह फिल्मी कलाकार हो, राजनीतिज्ञ हो, शिक्षाशास्त्री हो, कवि हो, कलाकार हो, आदर्श अध्यापक हो या धार्मिक व्यक्ति हो। किशोर अपने हीरो अर्थात् आदर्श मनुष्य की पूजा करने लगते हैं तथा स्वयं को उन्हीं के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी वह नायक पूजा प्रेम में भी बदल जाती है। अतः शैक्षिक दृष्टि से अध्यापक स्वयं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें ताकि किशोर उसका अनुसरण करें।
(xvii) संवेगात्मक रूप में अस्थिर-संवेगात्मक रूप से किशोर बहुत ही अस्थिर होते हैं। वे दूसरों से अपनी प्रशंसा और आत्म-सम्मान की बहुत अधिक अपेक्षा करते हैं। ऐसा न होने पर वे मानसिक रूप से अशांत हो जाते हैं। अतः संवेगात्मक रूप से अस्थिरता मानसिक विकास की ओर संकेत करता है।
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