दृष्टि दोष बालकों की क्या समस्याएँ हैं ? आप कम देखने वाले बालकों को शिक्षा कैसे प्रदान करेंगें ? विवेचना कीजिए।
दृष्टि दोष बालकों को पूर्णतया अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहना पड़ता है। उनको घर, विद्यालय तथा समाज में अपने आप को समायोजित करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जिन बालकों को दृष्टि दोष के साथ-साथ मानसिक दोष भी होते हैं, उनकों परेशानी का सामना करना पड़ता है क्योंकि दृष्टि दोष बालकों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अतः उनकों सूघने, सुनना तथा स्पर्श द्वारा वस्तुओं की लम्बाई, चौडाई, मोटाई आदि का अनुभव करने में कठिनाई होती है।
दृष्टि दोष बालकों की निम्नलिखित समस्याएँ हैं-
(1) दृष्टि दोष बालकों को बाहर जाने के लिए एक सहायक की आवश्यकता होती है। वह अपनी इच्छानुसार कही भी नहीं जा सकते।
(2) दृष्टि-दोष बालकों को अपने निरीक्षण के लिए बार-बार अस्पताल जाना पड़ता अतः उनका काफी समय इन चक्करों में बीत जाता है तथा वह शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ जाते हैं।
(3) उनकों अपने आप को घर, विद्यालय तथा समाज में समायोजित करने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। वह बिना किसी की सहायता के इधर-उधर नहीं जा सकते। यह निर्भरता कई बार उनके मन में झुंझलाहट पैदा करती है और उसमें चिड़चिड़ापन आ जाता है। कई बार उनमें हीन भावना भी आ जाती है।
(4) अगर कोई दृष्टि दोष बालक सामान्य बालकों के साथ पढ़ रहा है तो प्राय: दूसरे बालक उसका मजाक उड़ाते हैं। इससे उस पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और उसका मन पढ़ाई में कम लगता है।
(5) प्रायः दृष्टि दोष बालकों को समाज में हेय की दृष्टि से देखा जाता है। वह दृष्टि दोष को पूर्व जन्म के कर्मों के साथ जोड़ते हैं तथा उनको तरह-तरह की बातों का सामना करना पड़ता है। इससे उन्हें आत्मग्लानि होने लगती है और वह जीवन के प्रति उदासीन रहने लगते हैं।
(6) दृष्टि दोष बालकों को जब विषय-वस्तु के बारे में जानकारी देनी होती है तो उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें पूर्णतया अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहना पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर हमने उनकों किसी खतरनाक जानवर या वस्तु के बारे में जानकारी देनी है तो उन्हें यह जानकारी स्पर्श के द्वारा ही करवाई जा सकती है।
(7) जिन बालकों को दृष्टि दोष के साथ-साथ मस्तिष्क दोष भी होता है या मानसिक शक्ति कमजोर होती है तो उनको और भी अधिक मुश्किल का सामना करना पड़ता है। प्रायः यह पाया जाता है कि दृष्टि दोष वाला बालक मानसिक रूप से भी कमजोर होता है।
(8) दृष्टि दोष बालकों को वस्तुओं की लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई तथा गोलाई आदि को मापने में असमर्थता का सामना करना पड़ता है। वह इस प्रकार का कार्य नहीं कर सकते ।
आंशिक रूप से अन्धे बालकों की शिक्षा
प्रत्येक विद्यालय में आंशिक रूप से अन्धे बालक अवश्य होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की अपेक्षा इनकी संख्या अधिक होती है। समाज और विद्यालय का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करें। उनकी आवश्यकताएँ व अन्धेपन के स्तर को ध्यान में रखकर, ग्रुप बनाकर उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया जा सकता है। वैसे तो आंशिक रूप में अन्धे बालकों को सामान्य बालकों के साथ ही पढ़ाया जाता है व उनका पाठ्यक्रम भी समान ही होता है लेकिन इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उनसे ऐसा कोई भी कार्य न करवाया जाए जिससे उनका आँखों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ें। कुछ विद्यालय मिलकर किसी एक स्थान पर उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनकी शिक्षा का प्रबन्ध कर सकते हैं। उनकी शिक्षा देते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) किताबें- साधारणतया किताबें 10 या 12 पॉइन्ट प्रिन्ट में छापी जाती है लेकिन दृष्टि-दोष बालकों के लिए किताबें 18 से 24 पॉइन्ट के मध्य में होनी चाहिएँ। काली स्याही का प्रयोग होना चाहिए। अध्यापक को चाहिए कि वह ब्लैकबोर्ड पर सफेद रंग की चॉक के साथ-साथ रंगदार चॉक का भी प्रयोग करे। घर, विद्यालय में कोई भी ऐसा सामान प्रयोग में नहीं लाना चाहिए जिससे उनकी आँखों पर प्रभाव पड़ता हो ।
(2) रोशनी- आंशिक रूप से अन्धे बालकों के लिए रोशनी एक वरदान है चाहे वह प्राकृतिक रोशनी हो या बनावटी रोशनी हो। आंशिक रूप से अन्धे बालकों का कमरा रोशनीयुक्त होना चाहिए। छत सफेद रंग की तथा दीवारें हल्के रंग की होनी चाहिए। कमरा ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहाँ पर प्राकृतिक रोशनी आती हो।
(3) फर्नीचर- कक्षा में रखा फनीचर हल्के रंग का तथा हल्का होना चाहिए ताकि आवश्कता पड़ने पर आसानी से बाहर निकाला जा सके। कक्षा-कक्ष में फर्नीचर ऐसे रखना चाहिए ताकि बालकों को आने जाने में कोई असुविधा न हो।
(4) प्रेरणा- आंशिक रूप से अन्धे बालकों को हमें प्रेरणा से भरी कहानियाँ सुना कर उनको प्रेरित करना चाहिए। महाभारत काल में श्रवण व उसके माता-पिता की कहानी एक अच्छा उदाहरण है। उनकी सकारात्मक व आशावादी जीवन की प्रेरणा देनी चाहिए।
(5) शारीरिक निरीक्षण- आंशिक रूप से अन्धे बालकों का समय-समय पर शारीरिक परीक्षण करवाना चाहिए। उनकी बीमारियों का एक रिकार्ड रखना चाहिए तथा कम से कम छः महीने में एक बार उनकी आँखों व शरीर का निरीक्षण अवश्य होना चाहिए। आँख से सम्बन्धि त बीमारियों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। उन्हें आँखों की कसरत, आँखों की सफाई, चश्में का प्रयोग आदि की पूरी जानकारी देनी चाहिए। समय-समय पर मनोवैज्ञानिक व मनोचिकित्सक की सलाह भी लेते रहना चाहिए। उनके माता-पिता के साथ लगातार सम्पर्क में रहना चाहिए।
(6) शैक्षिक प्रगति- विद्यालय को चाहिए कि वह इस प्रकार के बालकों की शैक्षिक प्रगति का ध्यान रखें। यदि बालकों को किसी प्रकार की कोई शैक्षिक शिकायत हो तो उसे तुरन्त दूर करना चाहिए। माता-पिता का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह भी अपने बालक की शैक्षिक प्रगति के बारे में जानकारी प्राप्त करते रहें।
(7) व्यावसायिक निर्देशन- हमें इन बालकों की आवश्यकताओं रूचियों, अभिरूचियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं को ध्यान में रखकर उन्हे व्यावसायिक निर्देशन देना चाहिए। शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन का गहरा सम्बन्ध है अतः हमें उन्हें व्यावसायिक निर्देशन देना चाहिए ताकि वह आत्मनिर्भर होकर समाज में सुखी व सम्मानपूर्वक जीवन जी सके।
(8) विशेष अध्यापक कम देखने वाले बालकों की शिक्षा के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापक का प्रबन्ध करना चाहिए। उसे आँखों से सम्बन्धित बीमारियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। उसे बालकों की मनोवैज्ञानिक, शैक्षिक तथा संवेगात्मक कठिनाइयों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। एक अच्छा अध्यापक बालक में अच्छे गुणों का विकास कर सकता है। वह उसे अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरित करके उसका शैक्षिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक समायोजन कर सकता है।
आंशिक रूप से अन्धे बालकों को शिक्षा देते समय अगर उपरोक्त बातों को ध्यान में रखेंगें तो उन्हें अपना उद्देश्य प्राप्त करने में अवश्य ही सफलता प्राप्त होगी।
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