शारीरिक रूप से निशक्त, दुर्बल, क्षीण विकलांग बालक से आप क्या समझते हैं? इनकी शिक्षा हेतु आप क्या विशिष्ट व्यवस्था करेंगें।
निशक्त या विकलांग बालकों की समस्याएँ
बालक अपंग हों, अन्धे हों, आधे अंधे हो, पूर्ण बहरे हों या अपूर्ण बहरे हों अथवा वे मानसिक रूप से अपंग या विकलांग हों, ऐसे बालकों को विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। ऐसे बालकों की इन समस्याओं की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
शारीरिक दोषों के परिणामस्वरूप बालकों को हर क्षेत्र में समायोजन सम्बंधी कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। ऐसे अपंग बालकों में संवेगात्मक परिपक्वता नहीं आती। इन बालकों में हीन भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और ये अधिकतर क्रियाओं में भाग नहीं लेते। इन्हें अपनी इच्छाओं को दबाना पड़ता है। इनके मन में यह बात भी घर कर जाती है कि अन्य लोग भी उन्हें तुच्छ मानते हैं। इस प्रकार के विचारों के परिणामस्वरूप इनका संवेगात्मक सन्तुलन स्थिर नहीं होने के कारण ये स्वयं को अन्य बालकों में समायोजित नहीं कर पाते। अतः विकलांगों या अपंगों के समायोजन से सम्बंधित समस्याओं पर शिक्षकों को सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए।
कक्षा में शारीरिक रूप से अपंग बालकों को बैठने की समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसे बालकों को कक्षा में बिठाने के लिए विशेष प्रकार की कुर्सी-मेज की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि कक्षा में कार्य करते समय उन्हें किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो।
इसी प्रकार कक्षा में अन्धे और अर्द्ध-अन्धे बच्चों को भी बैठने की समस्या का सामना करना पड़ता हैं उन्हें श्यामपट्ट से इतनी दूर बिठाया जाना चाहिए कि श्यामपट्ट पर लिखे शब्द उन्हें स्पष्ट दिखाई दें। पूर्ण या अपूर्ण बहरों को सुनने की समस्या का सामना करना पड़ता है।
कम सुनने वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ ही रखा जाना चाहिए ताकि वे अन्य बच्चों के होठों की हलचल का अनुकरण करके कुछ सीख सकें। ऐसे बच्चे प्रायः उत्तेजक प्रवृत्ति के होते हैं। अत: ऐसे बच्चों के साथ विशेष प्रकार के व्यवहार की आवश्यकता है। जिन बच्चों में बोलने का दोष हो उन्हें बोलने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। शब्दों को बार-बार बुलवाना .चाहिए। दोषपूर्ण वाणी वाले बच्चों को हीन भावना की समस्या का सामना करना पड़ता है। अतः ऐसे बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
इस प्रकार मानसिक रूप से अपंग बालकों को समायोजन सम्बंधी मुख्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे परिवार में समायोजन सम्बन्धी समस्या, स्कूल में समायोजन की समस्या समाज में समायोजन की समस्या मानसिक रूप से अपंग बालक स्वयं को घर, स्कूल और समाज में कुसमायोजित महसूस करता है। उसे अपनी असफलताओं से निराशा होने लगती है और वह कुंठित रहने लगता है। दूसरे लोगों की निगाहों में वह निम्न स्तर का बनकर रह जाता है। स्कूल में अन्य गतिविधियों में वह रुचि नहीं लेता। सामाजिक विकास में भी वह पिछड़ जाता है।
समायोजन की समस्या के अतिरिक्त ऐसे बच्चों को संवेगात्मक समस्याओं और शारीरिक तथा मानसिक विकास की समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। ऐसे बालक संवेगात्मक रूप से परिपक्व नहीं हो सकते। इनका मानसिक विकास भी सामान्य बालकों की तरह नहीं हो पाता।
उपरोक्त समस्याओं की ओर अध्यापक और माता-पिता को ध्यान देना अनिवार्य है ताकि ऐसे अपंग बालकों का घर, स्कूल तथा समाज में उचित रूप से समायोजन हो सके और वे किसी पर बोझ न बनकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
विकलांग बालकों की शिक्षा
शारीरिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा सामान्य बालकों के साथ सम्भव नहीं। इन विकलांग बालकों को अधिगम और समायोजन सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं के परिणामस्वरूप बालकों में हीन भवनाओं का विकास होता है। अतः विभिन्न दृष्टिकोणों से विकलांग बालकों को विशेष शैक्षणिक सुविधाओं की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न दृष्टिकोणों से विकलांग बालकों के लिए विशेष शिक्षा प्रबन्धों का वर्णन निम्नलिखित है-
1. अपंग बालकों की शिक्षा- पंगु या अपंग बालकों में शारीरिक दोष होने के कारण वह अपने शरीर के विभिन्न अंगों का सामान्य प्रयोग नहीं कर सकता और यही दोष उनके कार्यों में बाधा डालते हैं। इस प्रकार के दोष बालकों की हड्डियों, ग्रन्थियों या जोड़ों में होते हैं जो दुर्घटना या बीमारी के कारण उत्पन्न हो जाते हैं। अपंग बालकों की बुद्धि-लब्धि कम या अधिक हो सकती है। ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए निम्नलिखित विशेष प्रबन्ध किये जाने चाहिए-
(1) अपंग बालकों का मानसिक स्तर सामान्य बालकों जैसा होता है। अतः उन्हें उनके साथ ही शिक्षा ग्रहण करने और मानसिक विकास के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
(2) उनके शारीरिक दोष के अनुसार ही उनके बैठने के लिए कुर्सी-मेज की व्यवस्था होनी चाहिए।
(3) उन्हें विशेष व्यवसायों का प्रशिक्षण भी मिलना चाहिए ताकि वे दूसरों पर बोझ न बन सकें। उनके शारीरिक दोष का ध्यान रखा जाना चाहिए।
(4) विकलांग बच्चों को विकल अंगों के डाक्टरों के पास भेजना चाहिए ताकि विकल अंगों के आपरेशन द्वारा ठीक होने के अवसरों का लाभ उठाया जा सके। इनके लिए कृत्रिम अंगों की व्यवस्था होनी चाहिए। इस कार्य के लिए विकलांग बालकों के माता-पिता को शिक्षित करना अति आवश्यक है।
(5) विकलांग बच्चों को अपनी त्रुटि के बारे में दृष्टिकोण बदलने की शिक्षा देनी चाहिए और दूसरे सामान्य लोगों के साथ सम्पर्क बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए।
(6) निशक्त या विकलांग बालकों का संवेगात्मक समायोजन करना बहुत आवश्यक है। इनके मन में हीन भावना को दूर करना शिक्षा का केन्द्रीय उद्देश्य होना चाहिए।
2. सम्पूर्ण और अर्द्ध-अंघों की शिक्षा- सम्पूर्ण रूप से अंधे या आधे-अंधे बालकों की शिक्षा के लिये अध्यापक को निम्न प्रयत्न करने चाहिए-
(1) इनका अन्धापन किसी ऐनक से ठीक हो सके तो इनके लिये ऐनकों का प्रबन्ध करना चाहिए।
(2) बिल्कुल अन्धे बालक सामान्य शिक्षण पद्धति के अनुसार नहीं चल सकते और न ही सामान्य बालकों के साथ ये उसी प्रकार सीख सकते हैं। अतः इन्हें अन्ध-विद्यालयों में भेज देना चाहिए। वहाँ पर ऐसे बालकों की शिक्षा के लिये विशेष विधियों का प्रयोग किया जाता है।
(3) इनके लिये मोटे टाइप की पुस्तकों का प्रयोग होना चाहिए।
(4) ऐसे बालकों की कक्षाओं में हवा और रोशनी का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
(5) इन बालकों की लिखाई-पढ़ाई की आदतों में सुधार किया जाना चाहिए।
(6) श्यामपट्ट स्पष्ट लिखने वाले हों ताकि इनपर लिखी हुई सामग्री को ये बालक उचित प्रकार से पढ़ सकें। साथ ही, श्यामपट्टों का स्थान इतनी दूरी पर हो कि बालकों की आँखों पर किसी प्रकार का दबाव न पड़े।
(7) पूर्ण या अपूर्ण अन्धे बालकों को पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा किसी हस्त कार्य का प्रशिक्षण मिलना चाहिए।
3. पूर्ण बहरे या अपूर्ण बहरों की शिक्षा- बिल्कुल बहरे बच्चे वे होते हैं जिन्हें बिल्कुल भी सुनायी नहीं देता। ये या तो जन्म से बहरे होते हैं या किसी रोग के कारण बहरे हो जाते हैं। कई बच्चे सुनते तो हैं लकिन कम सुनते हैं। ऐसे बालक भी सामान्य बालकों की तरह नहीं सीख पाते। इनकी शिक्षा की निम्नलिखित व्यवस्थायें होनी चाहिए-
(1) बहरे बच्चों के लिए विशेष प्रकार के स्कूलों की व्यवस्था की जानी चाहिए। इन स्कूलों में विशेष प्रविधियों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है। कई शहरों में ऐसे स्कूलों की व्यवस्था भी है, जैसे- गुड़गाँव, रोहतक, दिल्ली आदि। ऐसे बालकों के माता-पिता का शिक्षण भी आवश्यक है। ऐसा एक स्कूल अमेरिका के लॉस ऐंजल्स में जॉन ट्रेसी की निदानशाला है जो डाक द्वारा ऐसा प्रशिक्षण देती है।
(2) कम बहरे बच्चों के लिए अलग स्कूलों की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए क्योंकि ऐसे बालक अध्यापकों के होठों से बहुत कुछ जान सकते हैं तथा सीख सकते हैं।
(3) ऐसे बालकों और अध्यापकों में अच्छे सम्बन्ध स्थापित होने चाहिए ताकि उनके समायोजन के लिए अध्यापक व्यक्तिगत ध्यान दे सकें।
4. हकलाने वाले या दोषपूर्ण वाणी वाले बालकों की शिक्षा- दोषपूर्ण वाणी में हकलाना, तुतलाना, बहुत धीरे बोलना या बहुत मोटी आवाज में बोलना या बिल्कुल ही न बोलना इत्यादि दोष शामिल होते हैं। अस्पष्ट बोलना भी वाणी दोष में सम्मिलित है। इन दोषों के कारण बालकों में हीन-भावना, आत्म-विश्वास की कमी, संवेगात्मक अस्थिरता आदि का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अतः ऐसे बालकों की विशेष शिक्षा का प्रबंध होना अति आवश्यक है। इसके लिये निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं-
(1) इनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार होना चाहिए।
(2) अध्ययन की गलत आदतों पर नियन्त्रण करना आना चाहिए।
(3) शल्य क्रिया के योग्य दोषों का शल्य-क्रिया द्वारा इलाज करवाना चाहिए।
(4) विशेष शब्दों का उच्चारण बार-बार कराया जाना चाहिए।
(5) कई बार बिल्कुल न बोलने वाले बालकों को या तो बिल्कुल ही सुनाई नहीं देता या फिर वे कम सुनते हैं। बोलने और सुनने में गहरा सम्बन्ध होता है। अत: ऐसे बालकों को श्रवण सामग्री द्वारा सुनने के योग्य बनाकर उनकी वाणी में सुधार किया जा सकता है।
(6) बालकों को बोलने का उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
5. निर्बल बालकों की शिक्षा- ऐसे बालकों को कोई रोग या इनमें कोई शारीरिक दोष तो नहीं होता परन्तु इनका स्वास्थ्य इतना सुदृढ़ नहीं होता। स्वास्थ्य का इन्हें विशेष ध्यान रखना पड़ता है। इस निर्बलता का कारण दोषपूर्ण पालन-पोषण, असन्तुलित भोजन या छूत के रोगों का आक्रमण होता है। ऐसे बालकों की शिक्षा के लिये डाक्टरी परीक्षण और मनोवैज्ञानिक ढंग की शिक्षण विधियों की व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे बालकों को सन्तुलित भोजन व स्वस्थ पालन-पोषण आवश्यक है।
6. मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की शिक्षा मानसिक रूप से विकलांग बालकों शिक्षा के लिए निम्नलिखित सुझाव है-
(1) अध्यापक द्वारा विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
(2) मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के माता-पिता को शिक्षित करना आवश्यक है।
(3) ऐसे बालकों के लिए विशेष स्कूल या अस्पताल होने चाहिये।
(4) इन बालकों के शिक्षण के लिए विशेष शिक्षण विधियाँ अपनायी जानी चाहिये क्योंकि सामान्य शिक्षण विधियाँ इन बालकों के लिए अहितकर हैं।
(5) मंद बुद्धि बालकों या मानसिक रूप से विकलांग बालकों का पाठ्यक्रम भी विशेष प्रकार का होना चाहिए। इनको किसी हस्तकला का प्रशिक्षण दिया जाना इनके लिये लाभकारी हो सकता है।
7. संवेगात्मक और सामाजिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा- संवेगात्मक और सामाजिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा और उपचार के लिये निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं-
(1) इन बालकों के परिवार के वातावरण में सुधार करना चाहिए।
(2) स्कूल के वातावरण में सुधार करना आवश्यक है।
(3) सामाजिक वातावरण में सुधार करना आवश्यक है।
(4) इन बालकों के उपचार के लिए मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाये।
( 5 ) इनका उपचार मानसिक चिकित्सा द्वारा होना चाहिए ताकि इनका मानसिक तनाव और द्वन्द्व दूर हो सकें।
(6) इनके लिये विशेष बाल न्यायालय होने चाहिए जहाँ पर कदाचारियों का बाल अपराधि यों के मामले तय किये जायें।
कर्मचारियों के लिए सुधार विद्यालयों का होना भी अति लाभकारी सिद्ध हो सकता है। उपरोक्त विषयों द्वारा विभिन्न प्रकार के विकलांग बालकों की शिक्षा और उनके उपचार का प्रबन्ध करने में अध्यापक अपना योगदान दे सकता है।
- समावेशी शिक्षा की अवधारणा, विशेषताएँ, इतिहास एवं विकास
- समावेशी शिक्षा की अवधारणा, आवश्यकता एवं महत्व
- समावेशी शिक्षा (Inclusive Education) का अर्थ एंव परिभाषा
- समावेशी शिक्षा के सिद्धान्त
Important Links
- विश्व शांति के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलु और इसके अन्तर
- विश्व शांति के महत्त्व एवं विकास | Importance and development of world peace
- भारत एवं विश्व शान्ति |India and world peace in Hindi
- विश्व शांति का अर्थ एवं परिभाषा तथा इसकी आवश्यकता
- स्वामी विवेकानन्द जी का शान्ति शिक्षा में योगदान | Contribution of Swami Vivekananda in Peace Education
- अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के कार्य एवं दायित्व | objectives and Importance of international organization
- भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा | concept of world peace in the Indian context
- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता | Relevance of International Organization
- भारतीय परम्परा के अनुसार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का स्वरूप
- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के उद्देश्य एवं महत्त्व | Objects & Importance of International Organization
- मानवीय मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा की भूमिका
- मूल्यों के विकास के स्त्रोत अथवा साधन क्या हैं? What are the source or means of Development of values?
- मानव मूल्य का अर्थ एंव परिभाषा तथा इसकी प्रकृति | Meaning and Definition of human value and its nature
- व्यावहारिक जीवन में मूल्य की अवधारणा | Concept of value in Practical life
- सभ्यता एवं संस्कृति का मूल्य पद्धति के विकास में योगदान
- संस्कृति एवं शैक्षिक मूल्य का अर्थ, प्रकार एंव इसके कार्य
- संस्कृति का मूल्य शिक्षा पर प्रभाव | Impact of culture on value Education in Hindi
- संस्कृति का अर्थ, परिभाषा तथा मूल्य एवं संस्कृति के संबंध
- मूल्य शिक्षा की विधियाँ और मूल्यांकन | Methods and Evaluation of value Education
- मूल्य शिक्षा की परिभाषा एवं इसके महत्त्व | Definition and Importance of value Education
- मूल्य का अर्थ, आवश्यकता, एंव इसका महत्त्व | Meaning, Needs and Importance of Values
- विद्यालय मध्याह्न भोजन से आप क्या समझते है ?
- विद्यालयी शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य शिक्षा के उद्देश्य
- स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ एंव इसके लक्ष्य और उद्देश्य | Meaning and Objectives of Health Education
- स्कूलों में स्वास्थ्य शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of health education in schools
- स्वास्थ्य का अर्थ एंव इसके महत्व | Meaning and Importance of Health in Hindi
- स्वास्थ्य का अर्थ एंव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
- स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ एंव इसके सामान्य नियम | Meaning and Health Science and its general rules in Hindi
- व्यक्तिगत स्वास्थ्य का अर्थ एंव नियम | Meaning and Rules of Personal health in Hindi
- शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक | Factors Affecting Physical Health in Hindi
- एक उत्तम स्वास्थ्य का अर्थ एंव परिभाषा और इसके लक्षण
- बजट का अर्थ एंव इसकी प्रक्रिया | Meaning of Budget and its Process in Hindi
- शैक्षिक व्यय का अर्थ प्रशासनिक दृष्टि से विद्यालय व्यवस्था में होने वाले व्यय के प्रकार
- शैक्षिक आय का अर्थ और सार्वजनिक एवं निजी आय के स्त्रोत
- शैक्षिक वित्त का अर्थ एंव इसका महत्त्व | Meaning and Importance of Educational finance
- भारत में शैक्षिक प्रशासन की समस्याएं और उनकी समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव
- प्राथमिक शिक्षा के प्रशासन | Administration of Primary Education in Hindi
Disclaimer