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मीड का समाजीकरण का सिद्धांत | Mead’s theory of Socialization in Hindi

मीड का समाजीकरण का सिद्धांत
मीड का समाजीकरण का सिद्धांत

मीड का समाजीकरण का सिद्धांत (Mead’s theory of Socialization)

मीड का समाजीकरण का सिद्धांत-अमेरिकन विचारक जार्ज हरबर्ट मीड एक दार्शनिक एवं समाज मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने समाजीकरण सम्बन्धी अपने विचार “Mind Self and Society” नामक अपनी कृति में प्रकट किया है। एक दार्शनिक के रूप में वे यह जानना चाहते थे कि व्यक्ति और समाज में पहले कौन आया। मूलरूप से कूले एवं मीड के विचारों में कुछ समानता है किन्तु आत्म के विकास में कूले व्यक्ति व समाज के पारस्परिक सम्बन्धों पर अधिक बल देते हैं जबकि मीड व्यक्ति की तुलना में समाज को अधिक महत्व देते हैं।

मीड ने “आत्म की चेतना” को समाजीकरण का आधार माना है। यह आत्म की चेतना पूर्णतया सामाजिक है क्योंकि इसका निर्माण सामाजिक अन्तक्रिया के द्वारा होता है। अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए मीड ने दो स्वरूपों का उल्लेख किया है-(क) जैविकीय व्यक्ति, तथा (ख) सामाजिक रूप से आत्म चेतन व्यक्ति। जन्म के समय बच्चा एक जैविकीय प्राणी होता है जिसमें तार्किक बुद्धि का अभाव होने के कारण वह अपनी आन्तरिक प्रेरणाओं के अनुसार ही कार्य करता है। धीरे-धीरे उसके व्यवहार पर समाज का प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हो जाता है। परिवार और दूसरे प्राथमिक समूहों से होने वाली अन्तक्रियाओं से बच्चा यह समझना शुरू कर देता है कि उससे किस तरह के व्यवहार करने की आशा की जाती है तथा उसके व्यवहारों का दूसरे लोग क्या अर्थ लगाते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे बच्चे का आत्म दूसरे लोगों के व्यवहारों से प्रभावित होने लगता है। मीड ने दूसरे लोगों के इस व्यवहार को ही “सामान्यीकृत व्यवहार” कहा है जो बच्चे को “सामाजिक रूप से आत्मचेतन व्यक्ति” के रूप में परिवर्तित करता है।

मीड के समाजीकरण सिद्धान्त को हम संक्षेप में इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं-

(1) समाजीकरण का अर्थ व्यक्ति के “आत्म” के समुचित विकास से है।

(2) “आत्म” का विकास दूसरे लोगों के “सामान्यीकृत व्यवहार” को अपने व्यवहार में समावेश करने से होता है।

(3) आत्म के विकास के बाद व्यक्ति जैविकीय प्राणी से सामाजिक रूप से “आत्मचेतन प्राणी” के रूप में बदल जाता है।

(4) व्यक्ति का समाजीकरण उसी मात्रा में होता है जिस मात्रा में उसके सामाजिक व्यवहार उसके जैविकीय एवं संवेगात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव को कम कर दे।

(5) स्वयं में तथा अन्य व्यक्तियों में भेद करने की चेतना पैदा होना ही आत्म का विकास है, और इसी आधार पर वह दूसरों के प्रति अपने व्यवहार को निश्चित करता है, तरह-तरह की आदतें\ सीखता है अर्थात् अपना समाजीकरण करता है।

कूले व मीड के सिद्धान्त में अन्तर

(1) सर्वप्रथम कूल ने “आत्म” के विकास में व्यक्ति और समाज को समान रूप से महत्वपूर्ण माना है क्योंकि व्यक्ति के प्रति दूसरों के विचारों का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक व्यक्ति भी उन विचारों अथवा दृष्टिकोण के प्रति जागरूक न हो जाय। दूसरी ओर मीड की “आत्म” की धारणा इस अर्थ में अधिक सामाजिक है कि समाज के सामान्यीकृत व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति की आत्मचेतना को अवश्य प्रभावित करते हैं।

(2) मीड ने “आत्म के विकास को कुछ स्तरों के द्वारा स्पष्ट किया है जिसका रूप “मैं” और “मझे” के भेद में देखने को मिलता है। कूले ने इस प्रकार का कोई विकास क्रम स्पष्ट नहीं किया है।

(3) कूले ने “आत्म” को केवल एक धारणा माना है जिसकी प्रमाणिकता के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। मीड अपने “आत्म” को स्वयं के बारे में एक चेतना मानते है जिसका प्रभाव निश्चित रूप से कहीं अधिक होता है।

(4) मीड के अनुसार “आत्म” का निर्माण समाज को बहुत से व्यक्तियों के व्यवहारों अथवा “सामान्यीकृत व्यवहारों” से होता है, जबकि कूले के विचारों से यह सन्देह उत्पन्न होता है कि बच्चा किसी एक या दो व्यक्तियों के दृष्टिकोण से भी अपने बारे में एक धारणा बना सकता है जो उसका “आत्म” होता है।

(5) कूले की तुलना में मीड का सिद्धान्त अधिक व्यवस्थित है।

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