अनिदेशात्मक परामर्श से क्या आशय है?
अनिदेशात्मक परामर्श (Non-Directive Counselling)- अनिदेशात्मक परामर्श पर रोजर्स एवं स्नाइडर के विचार उल्लेखनीय है।
निदेशात्मक परामर्श के विपरीत अनिदेशात्मक परामर्श उपबोध्य केन्द्रित होता है। इस प्रकार के परामर्श में उपबोध्य को बिना किसी प्रत्यक्ष निर्देश के आत्मोपलब्धि (Self-realization) एवं आत्मसिद्धि (Self-actualization) की ओर उन्मुख किया जाता है।
अनिदेशीय परामर्श का मुख्य एवं जोरदार व्याख्याता कार्ल रोजर्स को माना जाता है। उन्होंने परामर्श के इस प्रारूप का उपयोग शैक्षिक, व्यावसायिक तथा वैवाहिक आदि अनेक समस्याओं के समाधान के लिये किया है।
अनिदेशात्मक परामर्श का महत्व-
इसके महत्व का वर्णन निम्नलिखित है-
1. उपबोध्य के विचारों की भिन्नता के प्रति सहिष्णुता एवं स्वीकृति का सिद्धान्त (Principle of tolerance and acceptance of difference of opinion with client)-अनिदेशात्मक परामर्श के दौरान यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि उपबोध्य परामर्शदाता के विचारों से भिन्न विचार रखता हो। इसलिये वैचारिक भिन्नता के प्रति सहिष्णु होना अनिदेशात्मक परामर्श का प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। परामर्शदाता को तटस्थ रहकर उपबोध्य में यह विश्वास करना चाहिये कि वह उसकी बात को ध्यानपूर्वक सुन रहा है और मान रहा है।
2. उपबोध्य को स्वयं को तथा अपनी शक्ति को समझने में समर्थ बनाना (Enabling the client develop awareness of himself and his potentialities)- अनिदेशात्मक परामर्श का लक्ष्य उपबोध्य की अपनी शक्तियों को समझने एवं अपनी सम्भावनाओं को यथास्थिति जानने में सहयोग देना होता है। परामर्श की अवस्थाओं (Counselling situations) का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिये जिससे परामर्शदाता की निर्णय लेने की एवं अनुकूलन (Adaptation) की शक्ति का विकास हो।
3. परामर्श-प्रार्थी केन्द्रित सम्बन्ध (The client-centered relation)- अनिर्देशीय परामर्श में महत्त्व व्यक्ति को दिया जाता है न कि समस्या को तथा प्रार्थी को समस्यायें होती हैं जिनका वह समाधान कराना चाहता है। अनिर्देशीय परामर्शदाता ऐसा वातावरण पैदा कर देता है कि प्रार्थी उसी वातावरण में अपनी समस्या का समाधान स्वयं तलाश कर लेता है और अपने आपको दूसरों पर निर्भर नहीं समझता। उसमें हीन भावना पैदा नहीं होती है, क्योंकि उसे इस बात का बोध नहीं होता है कि कोई अन्य व्यक्ति उसके लिये कुछ विचार या उसकी कुछ सहायता कर रहा है।
4. भावना एवं आवेग पर बल (Emphasis on feeling emotion)- अनिर्देशीय परामर्श का सम्बन्ध आवेगों से होता है तथा अनेक प्रतिचार प्रायः प्रार्थी की भावनाओं को प्रदर्शित कर देते हैं। अतः महत्त्व आवेगात्मक प्रक्रिया पर दिया जाता है, न कि बौद्धिक प्रक्रिया को वास्तविकता का बोध कराया जाता है। उसे अपनी भावनाओं को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। इससे उसकी भावनाओं तथा अभिरुचि का सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार समस्या का समाधान सरल, सुगम तथा सही होता है।
5. उचित वातावरण (The permissive atmosphere)- एक अनिर्देशीय परामर्शदाता राय देने वाला, नीतिशास्त्री या कोई निर्णायक नहीं होता है। उसका काम तो उचित वातावरण पर निर्माण करना होता है। प्रार्थी को अधिक-से-अधिक तथा कम-से-कम जैसा वह चाहे, बोलने का अवसर प्रदान किया जाता है। प्रार्थी अपनी भावनाओं को चाहे जिस प्रकार व्यक्त कर सकता है तथा परामर्शदाता तटस्थापूर्वक सुनता है। वह एक ऐसा वातावरण पैदा कर देता है कि प्रार्थी अपने निर्णय स्वयं ले लेता है, निर्णय लेने का काम या दायित्व वह परामर्शदाता पर नहीं डालता। इस प्रकार परामर्शप्रार्थी अपने आपको अच्छी प्रकार समझ सकने के योग्य हो जाता है।
कुल मिलाकर, अनिदेशात्मक परामर्श में,-
(1) व्यक्ति किसी समस्या के साथ परामर्शदाता के सम्मुख स्वयं उपस्थित होता है।
(2) परामर्शदाता उपबोध्य को निःसंकोच रूप से अपनी भावनायें प्रकट करने के लिये अनुकूल, मधुर और विश्वसनीय वातावरण की रचना करता है।
(3) परामर्शदाता उपबोध्य द्वारा व्यक्त नकारात्मक और सकारात्मक भावों को व्यवस्थित एवं संगठित करके स्पष्ट करने का प्रयास करता है।
(4) भावनाओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के बाद उपबोध्य में अन्तर्दृष्टि का विकास होता है, परामर्शदाता उसकी भावनाओं को और स्पष्ट करता है।
(5) उपबोध्य अब अपने को निर्णय लेने और उन पर कार्य करने के योग्य । सक्षम समझने लगता है।
अनिर्देशीय परामर्श की विशेषताएं-
1. यह विधि परामर्शदाता पर केन्द्रित न होकर प्रार्थी केन्द्रित होती हैं।
2. इसमें प्रार्थी को किसी प्रकार का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष निर्देश नहीं दिया जाता है।
3. अन्तर्गत प्रार्थी को आत्म-निर्भर बनने के लिए प्रेरित किया जाता है।
4. इस विधि में प्रार्थी को आत्मानुभूति करने का परामर्श दिया जाता है।
5. इस प्रकार के परामर्श में प्रार्थी को आत्म-साक्षात्कार का अभ्यास कराया जाता है।
6. रोजर्स ने परामर्श की निम्न विशेषताओं को महत्त्व दिया है-
(क) प्रार्थी अपनी समस्या का स्वयं समाधान करें।
(ख) प्रार्थी अपनी सूचनाओं, भावनाओं, संवेगों आदि की अभिव्यक्ति अपनी इच्छानुसार खुलकर व्यक्त कर सकता है।
(ग) परामर्शदाता प्रार्थी को अधिक से अधिक बोलने पर पूरा अवसर प्रदान करे।
अनिर्देशीय परामर्श की अवधारणा
निर्देशात्मक परामर्श में निम्नलिखत अवधारणाओं का समावेश किया जाता है-
1. प्रार्थी परामर्शदाता से अधिक महत्त्व रखता है।
2. प्रार्थी तभी परामर्श ग्रहण करता है जब वह किसी जटिल समस्या से ग्रस्त होता है
3. परामर्शदाता प्रार्थी के आत्मविश्वास को जागृत करता है।
4. परामर्शदाता द्वारा प्रार्थी के अन्दर विद्यमान समस्या समाधान की क्षमता को बाहर लाकर प्राथी को स्वयं उसके समाधान के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
5. परामर्शदाता प्रत्येक बिन्दु से प्रार्थी तथा उसकी समस्या पर गहन चिन्तन कर सकता है।
6. परामर्श की प्रक्रिया के आवश्यकतानुसार शैक्षिक तकनीकी का प्रयोग किया जा सकता है, जो सत्य का उद्घाटन करने में सहायक होती है।
अनिर्देशीय परामर्श के दोष/सीमाए
अनिर्देशीय परामर्श के दोष/सीमाए-अनिर्देशीय परामर्श यद्यपि निर्देशीय परामर्श के अनेक दोषों को दूर कर देता है और परामर्श प्रक्रिया को बोझिल न बनाकर सहज स्वाभाविक रूप में सम्पन्न करता है, फिर भी इसमें कुछ कमियाँ रह जाती हैं। इन कमियों को निम्न रूप में गिनाया जा सकता है-
1. इसके लिए परामर्शदाता को उच्चकोटि का मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्री तथा दार्शनिक होना चाहिए।
2. परामर्शदाता में एक सच्चे शिक्षक के सभी गुण होने आवश्यक है।
3. यह छोटी कक्षाओं के छात्रों और विद्यालयों के लिए उपयुक्त नहीं है
4. यह प्रक्रिया समय अधिक ले सकती है।
5. इसमें अनेक प्रकार की जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, जो गम्भीर होने पर हानिकारक हो सकती है।
6. इसमें वैयक्तिक विभिन्नताओं का पूरी तरह ध्यान नहीं रखा जा सकता है। कुछ व्यक्ति अधिक बहिर्मुखी होते हैं, तो कुछ बहुत संकोची होते हैं। कभी-कभी कुछ वाचाल व्यक्ति झूठी एवं मनगढन्त घटनायें व कहानियाँ रोचक भाषा में सुनाकर विशेषज्ञों को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के साथ किया गया वार्तालाप और परामर्श अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता है तथा समाज का अहित कर सकता है।
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