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वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएँ | Vaidik Shiksha Ki Visheshta in Hindi

वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएँ
वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक काल की शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। अथवा वैदिक शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

वैदिक कालीन शिक्षा की विशेषताएँ | Vaidik Shiksha Ki Visheshta in Hindi – डॉ. एफ. डब्ल्यू थॉमस के अनुसार है-“भारत में शिक्षा का कोई नई बात नहीं है। संसार का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ पर ज्ञान के प्रेम की परम्परा भारत से अधिक प्राचीन एवं शक्तिशाली हो।”

भारतीय शिक्षा के पीछे हजारों वर्षों की शैक्षिक तथा सांस्कृतिक परम्परा का आधार रहा है-धर्म और धार्मिक मान्यताएँ। प्राचीन काल में शिक्षा का आधार क्रियायें थीं। वैदिक क्रियायें ही शिक्षा का प्रमुख आधार थीं। समस्त जीवन धर्म से चलायमान था।

भारतीय शिक्षा का प्रमुख ऐतिहासिक साक्ष्य वेद है। वैदिक युग में शिक्षा व्यक्ति के चहुँमुखी विकास के लिए थी। जब विश्व के शेष भाग बर्बर एवं प्रारम्भिक अवस्था में थे, भारत में ज्ञान, विज्ञान तथा चिन्तन अपने चरमोत्कर्ष पर था। वैदिक युगीन शिक्षा की विशेषतायें इस प्रकार थीं-

वैदिककालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ

वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं-

(1) ज्ञान, शिक्षा मानव जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है-

शिक्षा ज्ञान है और वह मनुष्य का तीसरा नेत्र है। शिक्षा के द्वारा समस्त मानव जीवन का विकास सम्भव है। विद्या, माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह समार्ग का पालन करने की प्रेरणा देती है और पत्नी के समान सुख देती है। (मातेव रक्षित, पितेव हिते नियुक्ते कान्तेव चपि रमयत्य पत्नीम् स्वेदम्) शिक्षा से व्यक्तित्त्व का विकास होता है तथा मानव जीवन की सत्यताओं से परिचित होता है।

(2) शिक्षा के उद्देश्य-

डॉ. अल्तेकर के अनुसार, “ईश्वर-भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्त्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य तथा आदर्श थे।” इस उक्ति के सन्दर्भ में हम प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों को जन-जीवन में व्याप्त देखते हैं। वैदिककालीन शिक्षा के अग्रलिखित उद्देश्य हैं-

(i) व्यक्ति के चरित्र का विकास करना।

(ii) बाहरी अनुशासन के साथ-साथ आन्तरिक अनुशासन को महत्त्व देना।

(ii) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना।

(iv) आन्तरिक जगत का विकास करना।

(v) वैदिक साहित्य तथा कर्मकाण्डों, ज्ञान के अथाह सागर को और आध्यात्मिक रहस्यों की सांस्कृतिक निधि को अगली पीढ़ी में हस्तान्तरित करना।

(3) प्रणाली-

वैदिक काल में गुरुकुल प्रणाली थी। छात्र माता-पिता से अलग, गुरु के घर पर ही शिक्षा प्राप्त करता था, यह पद्धति गुरुकुल पद्धति कहलाती थी। अन्य सहपाठियों के साथ वह गुरुकुल मे ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ शिक्षा प्राप्त करता था

(4) उपनयन संस्कार-

उपनयन संस्कार में शिक्षा का आरम्भ होता था। यह संस्कार शिशु अवस्था से बाल्यावस्था में प्रवेश करने का सूचक है। इस उपनयन का अर्थ है, छात्र को गुरु के समीप ले जाना। बाद में यह संस्कार केवल द्विजों के लिए ही रह गया

(5) ब्रह्मचर्य-

प्रत्येक छात्र को जीवन के विशिष्ट भाग में ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। आचरण की शुद्धता व सात्विकता को प्रमुखता दी जाती थी। अविवाहित छात्रों को ही गुरुकुल में प्रवेश मिलता था।

(6) गुरु सेवा-

प्रत्येक छात्र को गुरुकुल में रहते हुए गुरु सेवा अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थी। गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करना पाप था और इसके लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था।

(7) भिक्षा-वृत्ति-

छात्र को अपना तथा गुरु का पोषण करना पड़ता था। भिक्षा-वृत्ति के माध्यम से जीवन का निर्वाह किया जाता था। उस समय भिक्षावृत्ति को बुरा नहीं समझा जाता था। प्रत्येक गृहस्थ, छात्र को भिक्षा अवश्य देता था क्योंकि वह जानता था कि उसका पुत्र भी कहीं भिक्षा माँग रहा होगा।

(8) व्यावहारिकता-

उस समय शिक्षा में जीवन की आवश्यक क्रियायें थीं। गौ-पालन, कृषि, शस्त्र कला आदि की शिक्षा दी जाती थी। इसके साथ-साथ चिकित्सा की शिक्षा भी दी जाती थी।

(9) व्यक्ति के लिए शिक्षा-

वैदिक युग में गुरु प्रत्येक छात्र का विकास करने के लिए प्रयत्नशील रहता था तथा उनका शारीरिक तथा मानसिक विकास करता था।

(10) अवधि-

गुरुगृह में शिक्षा की अवधि 24 वर्ष की आयु तक होती थी। 25वें वर्ष में शिष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना पड़ता था। परन्तु उस समय छात्रों की तीन श्रेणियाँ थीं

(i) 12 वर्ष तक अध्ययन करने वाले-स्नातक,

(ii) 24 वर्ष तक अध्ययन करने वाले-वसु,

(iii) 36 वर्ष तक अध्ययन करने वाले रूद्र,

(iv) 48 वर्ष तक अध्ययन करने वाले-आदित्य।

प्राचीन काल में मौखिक रूप से शिक्षण किया जाता था। इसका प्रमुख कारण था-लेखन कला तथा मुद्रण कला का अभाव। उस समय मौखिक रूप से अध्यापक आवश्यक निर्देश देते थे। छात्र उन निर्देशों का पालन करते थे। शिक्षण विधि में प्रयोग एवं अनुभव, कर्म तथा विवेक को महत्त्व दिया जाता था।

(1) छात्र पाठ को कंठस्थ करता था। अगला पाठ तब पढ़ाया जाता था, जबकि पहला पाठ याद हो जाए।

(2) कंठस्थ करने के पश्चात् छात्र उस पर मनन करते थे।

(3) उच्चारण पर विशेष बल दिया जाता था।

(4) वाद-विवाद भी शिक्षा प्रणाली का एक भाग था।

वैदिक युग में शिक्षा की परम्परा को बनाये रखने के लिए अग्रशिष्य (Monitor) प्रणाली अपनाई जाती थी। बड़े शिष्य अपने छोटे सहपाठियों को पढ़ाया करते थे। शिक्षण में स्मरण, मनन, चिन्तन, निर्णय, उपमा, रूपक, दृष्टान्त, ज्ञात से अज्ञात, सरल से कठिन आदि का ध्यान रखा जाता था। शिक्षा का माध्यम वैदिक संस्कृत थी

(11) पाठ्यक्रम-

पाठ्यक्रम में परा-अपरा (आध्यात्मिक, सांसारिक) विद्या, वेद, वैदिक व्याकरण, कल्पराशि (गणित), दैव विद्या, ब्रह्म विद्या, भूत विद्या, नक्षत्र विद्या, तर्क, दर्शन, निधि, आचार, छात्र विद्या आदि रखे जाते थे। परा के अन्तर्गत धार्मिक साहित्य, वेदवेदांग, उपनिषद्, दर्शन रीति आदि विषयों का अध्ययन कराया जाता था। इनके अतिरिक्त राजनीति, अर्थशास्त्र, कृषि, गौ-पालन,आयुर्वेद शिल्प तथा शस्त्र कला व चिकित्सा तथा ललित कलायें भी पाठ्यक्रम का भाग थीं।

(12) गुरु-शिष्य सम्बन्ध-

उस युग में गुरु की सेवा शिष्य तन-मन-धन से करते थे। छात्र गुरु के लिए समस्त श्रद्धा तथा विनय रखते थे। गुरु की सेवा करना उनका धर्म था। आचार्य को देवता के समान (आचार्य देवो भव) मानते थे। गुरु के भी शिष्यों के प्रति कर्त्तव्य थे। छात्र तथा गुरु के सम्बन्ध इस प्रकार थे-

(i) शिष्य के कर्त्तव्य-भिक्षा माँगना, लकड़ी चुनना, पशु चराना, पानी भरना, अध्ययन करना, आज्ञा का पालन करना।

(ii) गुरु के कर्त्तव्य-अध्यापन, छात्रों के वस्त्र, भोजन आदि की व्यर स्था, चिकित्सा, सेवा-सुश्रुषा। गुरु-शिष्य सम्बन्धों को विकसित करने में गुरुकुल की प्रणाली का विशेष योग रहा है। गुरु एवं शिष्य एक ही परिसर में रहते थे। गुरु, छात्रों की प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रखते थे। प्रात: जागरण, प्रार्थना, स्नान रगनयन, वेशभूषा, जीवन शैली अनुशासन एवं ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता था।

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