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राष्ट्रीय सद्भावना में शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण संस्थाओं की भूमिका

राष्ट्रीय सद्भावना में शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण संस्थाओं की भूमिका
राष्ट्रीय सद्भावना में शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण संस्थाओं की भूमिका

राष्ट्रीय सद्भावना में शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण संस्थाओं की भूमिका
Role of Teacher, Teaching and Educational Institutions in National Understanding

हमारी राष्ट्रीय एवं भावात्मक सद्भावना की आवश्यकता के सन्दर्भ में शिक्षा द्वारा अध्यापक तथा विद्यालय के योगदान की सार्थक भूमिका वांछनीय है। लोकतान्त्रिक अन्त:क्रिया के माध्यम से राष्ट्रीय एवं भावात्मक सद्भावना को सशक्त बनाया जा सकता है। इसमें शैक्षिक संस्थाओं की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। हमारी भारतीय सांस्कृतिक विरासत की व्यवस्था कर राष्ट्रीय सद्भावना को सुदृढ़ बनाना शिक्षा का पुनीत कर्तव्य है। हमारे विभिन्न धर्म, संस्कृति तथा अनेकानेक त्यौहार हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं। यह सभी हमारी राष्ट्रीय सद्भावना के सम्बल हैं। इस सद्भावना को शिक्षा द्वारा पोषण दिया जाता है। एक शिक्षक शिक्षण संस्था के माध्यम से राष्ट्रीय सद्भावना के लिये विभिन्न प्रयास कर सकता है, जो निम्नलिखित प्रकार हैं-

1. पाठ्यक्रम एवं पाठान्तर क्रियाओं की भूमिका- राष्ट्रीय सद्भावना को उत्पन्न करने के लिये विभिन्न स्तर के छात्रों के लिये जिन पाठ्य-विषयों तथा पाठान्तर क्रियाओं के अपनाने की आवश्यकता है, उनका हम संक्षेप में वर्णन कर रहे हैं-

(i) प्राथमिक स्तर पर प्रयास- प्राथमिक स्तर पर राष्ट्रीय सद्भावना विकसित करने हेतु निम्नलिखित प्रयास करने चाहिये-

  1. सभी बालकों को विभिन्न क्षेत्रों के महापुरुषों के जीवन से परिचित कराया जाय।
  2. पाठ्यक्रम में कहानियों तथा लोकगीतों को स्थान दिया जाय।
  3. विभिन्न क्षेत्र की कहानियों को चुना जाय।
  4. सामाजिक जीवन की दशाओं का सरलतम ज्ञान प्रदान किया जाय।
  5. प्रत्येक क्षेत्र के मानव- -भूगोल का ज्ञान कराया जाय।
  6. उन्हें राष्ट्रीय झण्डे, राष्ट्रीय गीत तथा अन्य राष्ट्रीय चिह्नों का ज्ञान कराया जाय।
  7. छात्रों को राष्ट्रीय त्यौहारों को मानने में प्रतिनिधित्व दिया जाय।

(ii) माध्यमिक स्तर पर प्रयास- माध्यमिक स्तर पर राष्ट्रीय झण्डे, राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय उत्सव के महत्व को बताने के साथ-साथ निम्नलिखित बातों का आवश्यक है-

  1. छात्रों को भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पढ़ाया जाय।
  2. छात्रों को विभिन्न क्षेत्रों को सामाजिक दशाओं तथा संस्कृतियों से परिचित कराया जाय।
  3. उन्हें भारत के औद्योगिक तथा आर्थिक विकास के विषय में जानकारी दी जाय।
  4. उनके पाठ्यक्रम में समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र तथा सामाजिक विचारों को प्रमुख स्थान दिया जाय।

2. विद्यालय की भूमिका- विद्यालय समाज का एक ऐसा लघु स्वरूप हो कि जिसमें राष्ट्रीय एकता प्रतिबिम्बित हो। विद्यालय के समस्त उत्सवों तथा कार्यों में व्यक्तिगत लाभ के स्थान पर विभिन्न धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय, भाषा तथा संकीर्ण स्वरूप को भूलकर राष्ट्रीय प्रेम की भावना का संचार हो। इस प्रकार विद्यालयों को राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता करनी चाहिये।

3. शिक्षक की भूमिका- राष्ट्रीय सद्भावना के विकास के लिये आवश्यक है कि शिक्षक में स्वयं देश-प्रेम तथा राष्ट्रीय एकता की भावना निहित हो। शिक्षक को अपने राष्ट्र की समस्त ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी होनी चाहिये। इनके बिना अध्ययन किये वह छात्र को कुछ नहीं बता पायेगा। शिक्षक को किसी एक जाति, धर्म, राजनैतिक दल तथा सम्प्रदाय के प्रति अन्ध रूप से संवेदनशील नहीं होना चाहिये।

4.शिक्षण विधियों की भूमिका- प्रत्येक विषय के शिक्षण में ऐसी विधियाँ अपनायी जायें, जो छात्रों में देश प्रेम तथा राष्ट्रीय एकता का विकास कर सकें। सामाजिक विज्ञान का अध्ययन कराकर बालकों को अन्य प्रदेशों की संस्कृति, भौगोलिक तथा सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी दी जा सकती है। अच्छे साहित्य द्वारा भी छात्रों में देश-प्रेम की भावना का प्रादुर्भाव किया जा सकता है।

5.अनुशासन की भूमिका- राष्ट्रीय सद्भावना को स्थापित करने हेतु शिक्षा में अनुशासन के महत्व को स्वीकारा गया है। यह छात्रों को राष्ट्रीय एकता के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करता है। यदि विशेष जाति, सम्प्रदाय तथा संस्कृति किन्हीं तरीकों से अनुशासित न हो तो छात्रों को उसके प्रति आकर्षित नहीं किया जा सकेगा। छात्र को एक विशेष जाति के आकर्षण को त्यागकर समूचे राष्ट्र के लिये आकर्षण तथा प्रेम का भाव होना चाहिये। इसके लिये आवश्यक है कि छात्रों में आत्म अनुशासन की भावना का विकास किया जाय।

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