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वैदिक युगीन उच्च शिक्षा, शिक्षण विधियाँ, मुख्य केन्द्र, तथा शिक्षा प्रणाली के गुण

वैदिक युगीन उच्च शिक्षा, शिक्षण विधियाँ, मुख्य केन्द्र, तथा शिक्षा प्रणाली के गुण

वैदिक युगीन उच्च शिक्षा, शिक्षण विधियाँ, मुख्य केन्द्र, तथा शिक्षा प्रणाली के गुण

वैदिक युगीन उच्च शिक्षा, शिक्षण विधियाँ, मुख्य केन्द्र, तथा शिक्षा प्रणाली के गुण

वैदिक युगीन उच्च शिक्षा

1) प्रवेश – उच्च शिक्षा केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्य छात्रों को दी जाती थी। छात्र सामान्य रूप से उपनयन संस्कार के उपरान्त क्रमशः आठ, ग्यारह और बारह वर्ष की आयु में शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश करते थे।

2) पाठ्यक्रम – पाठ्यक्रम में परा (आध्यात्मिक) विद्या और अपरा (लौकिक) विद्या दोनों को स्थान दिया गया था। परा विद्या के अन्तर्गत वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि आध्यात्मिक विषय थे। साहित्य एवं धर्मशाला के अध्ययन की अवधि दस वर्ष और प्रत्येक वेद के अध्ययन की अवधि बारह वर्ष की होती थी। अपरा विद्या के अन्तर्गत इतिहास, तर्कशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, भौतिकशास्त्र आदि लौकिक विषय होते थे।

3) शिक्षण विधि – छात्र पाठ्य विषय का मनन, चिन्तन, स्वाध्याय और पुनरावृत्ति करते थे। प्रवचन, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर तथा वाद-विवाद आदि शिक्षण विधियां थीं।

4) शिक्षण संस्थाएँ – वैदिक युग में मुख्य शिक्षण संस्थाओं में गुरुकुल, ऋषि आश्रम, टोल, चरण, घटिका, विद्यापीठ, विशिष्ट विद्यालय, मन्दिर महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय होते थे। टोल में भाषा और साहित्य की शिक्षा दी जाती थी, घटिका में भाषा साहित्य, धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी तथा चरण में वेद के किसी विशेष अंग की शिक्षा दी जाती थी।

5) परीक्षाएँ – वैदिक युग में मौखिक परीक्षाओं का प्रचलन होता था। लिखित परीक्षाएँ आयोजित नहीं की जाती थीं।

6) उपाधियाँ – वैदिक युग में परीक्षा में सफल होने वाले छात्रों को उपाधि भी प्रदान की जाती थी। जो छात्र गुरुकुलों का बारह वर्षीय पाठ्यक्रम (किसी एक वेद का अध्ययन) पूरा कर लेते थे उन्हें ‘स्नातक’ जो छात्र चौबीस वर्षीय पाठ्यक्रम (किन्हीं दो वेदों का अध्ययन) पूरा कर लेते थे उन्हें ‘वसु’, जो छात्र छत्तीस वर्षीय पाठ्यक्रम (किन्हीं तीन वेदों का अध्ययन पूरा कर लेते थे उन्हें ‘रूद्र’, जो छात्र अड़तालीस वर्षीय पाठ्यक्रम (चारों वेदों का अध्ययन) पूरा कर लेते थे उन्हें ‘आदित्य’ कहा जाता था।

वैदिक युगीन शिक्षण विधियाँ

1) प्रवचन विधि – गुरु छात्रों को धार्मिक ग्रन्थों के प्रवचन देते थे। छात्र उन प्रवचनों को ध्यान से सुनते थे तथा उनका अनुकरण करते थे। गुरु शिष्यों के सम्मुख वेदमन्त्रों का उच्चारण करते थे। शिष्य उन्हें बार-बार दोहरा कर कण्ठस्थ करते थे

2) व्याख्यान विधि – शिष्यों को वेदों के मन्त्र कण्ठस्थ कराने के बाद गुरु उसकी व्याख्या कर उसका अर्थ एवं भाव स्पष्ट करते थे। अर्थ स्पष्ट करने के लिए उदाहरणों का प्रयोग करते थे।

3) प्रश्नोत्तर, शास्त्रार्थ और वाद-विवाद विधि – वैदिक काल में गुरु उपदेश देते थे, व्याख्यान देते थे, साथ ही छात्रों की शंका का समाधान करने के लिए. बीच-बीच में प्रश्न भी पूछते थे। इन प्रश्नों के माध्यम से छात्रों की समस्याओं का निवारण किया जाता था। शिष्यों और गुरुओं के बीच वाद-विवाद का आयोजन भी किया जाता था। विद्वानों के सम्मेलनों का आयोजन किया जाता था जिसमें विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ होता था। शिष्य इन सबको सुनकर अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे। तर्क विधि तर्कशास्त्र जैसे विषयों के अध्ययन के लिए तर्क विधि का प्रयोग किया जाता था जिससे छात्र विषय के अन्तर्गत समाहित तथ्यों को समझ सकें।

5) कहानी विधि-गुरु शिष्यों को शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाते थे तथा बाद में शिष्यों से पूछते थे कि उन्हें इस कहानी से क्या शिक्षा मिली। इस विधि का प्रयोग शिक्षण को रुचिकर बनाने के लिए किया जाता था।

वैदिक युगीन शिक्षा के मुख्य केन्द्र

1) मिथिला-मिथिला मध्य भारत के तत्कालीन मिथिला राज्य की राजधानी थी। यहाँ धर्म और दर्शन के विद्वानों के सम्मेलनों का आयोजन होता था।

2) तक्षशिलातक्षशिला गांधार राज्य की राजधानी थी। यहाँ संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण चारों वेदों, धर्म तथा दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे। कोई विद्वान संस्कृत भाषा एवं साहित्य के लिए प्रसिद्ध था तो कोई विद्वान धर्म एवं दर्शन की शिक्षा के लिए।

3) केकय-केकय वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। यहाँ संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, वेद, धर्म और दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि केकय नरेश बहुत बड़े विद्वान थे। उनके राज्य में एक भी व्यक्ति अशिक्षित नहीं था।

4) काशी-भारत के पूर्वी भाग में स्थित काशी भी प्रारम्भ से ही विद्वानों तथा ऋषियों के बीच शास्त्रार्थ का मुख्य केन्द्र रहा है। काशी के अश्वपति एवं अजातशत्रु ब्रह्म विद्या के पडित थे। उन्होंने अपने शासन काल में विद्वानों को आमन्त्रित कर यहाँ परआत्मा-परमात्मा और ब्रह्म केस्वरूप पर शास्त्रार्थ कराया था।

5) प्रयाग-यह भारत के पूर्वी भाग में स्थित है। वैदिक काल में यहाँ पर अनेक ऋषि आश्रम थे। ये आश्रम धर्म और दर्शन शिक्षा के मुख्य केन्द्र थे। यहाँ बड़े-बड़े विद्वान अपनी शंका-समाधान के लिए आते थे।

6) कन्नौज-यहाँ पर धर्म, दर्शन तथा वेदों का अध्ययन कराया जाता था। यहाँ पर अपने-अपने क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले विद्वान होते थे। वैदिक काल में यह शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था।

7) अयोध्या-यह भगवान श्री राम की जन्मभूमि है। यहाँ पर चारों वेद, साहित्य एवं व्याकरण की शिक्षा की उचित व्यवस्था थी।

वैदिक शिक्षा प्रणाली के गुण

1) शिक्षा की नि:शुल्क व्यवस्थावैदिक युग में गुरुकुलों में छात्रों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा की व्यवस्था भिक्षा माँगकर, दान में प्राप्त वस्तुओं द्वारा की जाती थी। गुरु और शिष्य दोनों इसमें अपना सहयोग देते थे।

2) अनुशासित जीवनचर्या-वैदिक युग में गुरुकुल के नियम कठोर होते थे। गुरु और शिष्य दोनों इन नियमों का पालन आदरपूर्वक करते थे। गुरु स्वयं भी अनुशासित जीवन जीते थे जिससे छात्रों को भी अनुशासित जीवन जीने की शिक्षा मिलती थी।

3) गुणवत्तापूर्ण पाठ्यचर्या-वैदिक युग में छात्रों के आध्यात्मिक, सामाजिक और नैतिक तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता था। इनकी प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या में परा विद्या और अपरा विद्या को स्थान दिया गया था। उस समय छात्रों को धार्मिक ग्रन्थ, वेद, पुराण, उपनिषद्, साहित्य, धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी जो छात्रों का चहुंमुखी विकास करने में सहायता करती थी।

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