मैरीवेदर बनाम निक्सन का नियम क्या है? क्या यह नियम भारत में मान्य है? Mariwether Vs. Nipson in hindi
मैरीवेदर बनाम निक्सन के वाद में यह नियम प्रतिपादित किया गया कि वादी एक ही संयुक्त अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध वाद लाकर अपना सम्पूर्ण दावा संतुष्ट करा सकता है क्योंकि संयुक्त अपकृत्यकर्ताटों का दायित्व संयुक्त और पृथक दोनों होता है। इस सन्दर्भ में सामान्यतः यह प्रश्न उठता है कि यदि एक ही संयुक्त अपकृत्य को न केवल अपने अंश की वरन् समस्त संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं की पूर्ति के लिए कहा जाता है, तो वह किसी सीमा तक अन्य समस्त अपकृत्यकर्ताओं से, जो उसके साथ उत्तरदायी हैं, उत्तरदायित्व में अंशदान करने के लिए कह सकता है। उदाहरणस्वरूप, क और ख समान रूप से उस अपकृत्य के लिए उत्तरदायी हैं, जो उन्होंने ग के विपरीत किया है। क के विपरीत न्यायालय द्वारा यह डिक्री पारित की जाती है कि वह 100 रुपये का भुगतान करके ग को उस अपकृत्य के लिये पूर्ण सन्तुष्टि प्रदान करे, जो उसको सहन करना पड़ा है। क्या क वाद संस्थित करके ख के विपरीत 500 रुयये का अंशदान वसूल करने के लिए वाद संस्थित कर सकता है? सन् 1799 ई. में मैरीवैदर बनाम निक्सन के वाद में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया था। इस निर्णय के अनुसार संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के बीच कोई अंशदान नहीं हो सकता। इस प्रकार, यदि केवल एक प्रतिवादी को सम्पूर्ण नुकसानी की धनराशि का भुगतान करना पड़े, तो वह अन्य लोगों से जो उस नुकसानी के लिए उत्तरदायी हैं, क्षतिपूर्ति अथवा अंशदान के रूप में कुछ भी वसूली नहीं कर सकता।
मैरीवैदर बनाम निक्सन के वाद में एक स्टार्की ने इस वाद के वादी और प्रतिवादी के विरुद्ध अपकृत्य के लिए कार्यवाही की। उसने 840 पौण्ड की धनराशि सम्पूर्ण नुकसानी के रूप में इस वाद के वादी से वसूल कर ली। इसके बाद इस वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध उसके अंशदान की वसूली के लिए वाद दायर किया। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी के विरुद्ध वादी किसी भी अंशदान के दावे के लिए अधिकारी नहीं है, क्योंकि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के बीच कोई अंशदान (Contribution) नहीं हो सकता।
मैरीवैदर बनाम निक्सन के बाद में विहित सिद्धान्त यह परिकल्पना करता है कि जब कोई अपकृत्यकर्ता अंशदान की माँग करता है, तब वह ऐसा इसलिए करता है कि क्योंकि वह यह समझता है कि इस विषय पर उसके और अन्य संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के बीच एक विवक्षित करार अथवा अनुबन्ध विद्यमान है और यह न्याय पूर्ण नहीं है कि संयुक्त अपकृत्यकर्ता से दोषपूर्ण परिलाभ की आमदनी का अंश ले अथवा उनसे यह कहे कि वे भी नुकसानी में अपना अंशदान करें। यह नियम लगातार 136 वर्षों तक निरन्तर चलता रहा, और अन्त में जाकर 1935 में एक संविधि द्वारा समाप्त कर दिया गया। इस नियम की अत्यन्त आलोचना की गई। यह नियम इसलिए न्यायपूर्ण नहीं था क्योंकि इसकी व्यवस्था के अन्तर्गत संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं का भार केवल कुछ पर ही पड़ता था, जबकि शेष अन्य अपकृत्यकर्ता उत्तरदायित्व से एकदम बच सकते थे, और वह भी मात्र इस कारण क्योंकि वादी ने अपने दावे की सन्तुष्टि के लिए केवल कुछ ही संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का चुनाव किया है।
पामर बनाम विंक एण्ड पी.एस. शिपिंग कम्पनी के वाद में इस नियम के गुणावगुण पर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए लार्ड हर्शेल ने कहा है कि “जब मुझसे यह कहा गया कि इस सिद्धान्त को मैं स्काटलैण्ड की विधि का एक अंश मानें, तब मैं यह कहने के लिए बाध्य हो गया कि मुझे यह नहीं लगता है कि यह नियम न्याय, अथवा साम्य अथवा ऐसी लोकनीति पर आधारित है, जो अन्य राष्ट्रों के विधिशास्त्र पर भी इसका विस्तार न्यायानुमत अथवा औचित्यपूर्ण बनाता हो।
मैरीवैदर बनाम निक्सन का नियम, जो यह व्यवस्था करता है कि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के बीच कोई अंशदान नहीं हो सकता, लॉ रिफार्म (मैरीड वूमेन एण्ड टार्टफीजर्स) ऐक्ट, 1935 द्वारा निराकृत कर दिया गया है। इस अधिनियम के पारित हो जाने के बाद अब एक संयुक्त अपकृत्यकर्ता, जिसे अपने अंश से अधिक प्रतिकर देने के लिए कहा गया है, अन्य संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं से अपने द्वारा दिये गये प्रतिकर में अंशदान करने के लिए कह सकता है।
यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि अंशदान की माँग केवल उसी अपकृत्यकर्ता से की जा सकती है, जो वादी की क्षति के लिए “उत्तरदायी’ है। उदाहरण के लिए, क और ख संयुक्ततः ग के प्रतिकूल कोई अपकृत्य करते हैं, और यदि क सम्पूर्ण क्षति का भुगतान ग को करने के लिए निर्दिष्ट होता है, तो क अंशदान के लिए ख के प्रतिकूल दावा कर सकता है, परन्तु शर्त यह है कि परिस्थितियाँ ऐसी हों कि उसके अन्तर्गत क और ख दोनों तीसरे व्यक्ति ग के प्रतिकूल किये गये अपकार के लिये उत्तरदायी हों। यदि इस दृष्टान्त के अन्तर्गत, कुछ कारणवश ख, ग के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता, तो क, ख से अंशदान की माँग नहीं कर सकता। ड्रिन्कवाटर बनाम किम्बर का वाद इस विषय बिन्दु को स्पष्ट करता है। इस वाद में एक महिला अपने पति और एक तीसरे पक्षकार की संयुक्त उपेक्षा के कारण क्षतिग्रस्त हो गई। इस वाद में एक महिला से प्रतिकर की पूर्ण धनराशि का प्रत्याधान प्राप्त कर लिया था। तीसरा पक्षकार महिला के पति से कोई भी अंशदान न प्राप्त कर सका, क्योंकि यह धारित किया गया कि पति अपनी पत्नी की शारीरिक क्षतियों के लिए उत्तरदायी नहीं है।
अधिनियम की धारा 6(2) यह व्यवस्था करती है कि “किसी व्यक्ति से वसूल करने योग्य अंशदान की धनराशि ऐसी होनी चाहिए जो न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के क्षति के लिए उत्तरदायित्व के सन्दर्भ में उचित और न्यायपूर्ण हो। अतः अंश दान की धनराशि क्षति के उत्तरदायित्व पर निर्भर है।
भारतीय स्थिति
भारतीय स्थिति के सन्दर्भ में प्रश्न यह उठता है कि क्या हमें मैरीविडर बनाम निक्सन के नियम को स्वीकार करना चाहिए जिसमें संयुक्त अपकृत्यकत्ताओं के बीच अंशदान की कोई व्यवस्था नहीं की गई अथवा लॉ रिफॉर्म एक्ट 1935 को स्वीकार कर लेना चाहिए। कुछ वादों में भारत के न्यायालयों ने मैरीवैदर बनाम निक्सन के नियम को लागू किया है जबकि कुछ अन्य वादों में न्यायालयों में भारत के इस नियम को लागू करने की वैधानिकता पर सन्देह व्यक्त किया है। नागपुर, कलकत्ता और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों ने स्पष्टतः यह इंगित किया है कि मैरीवैदर बनाम निक्सन का नियम भारत में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
इस विषय पर भारत और इंग्लैण्ड के विभिन्न प्राधिकारों पर विचार करने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि मैरीवैदर बनाम निक्सन का नियम चूँकि न्याय, साम्या और सद्विवेक के सिद्धान्त के विरोध में है, अतः भारत में इसके प्रवर्तन की बात सोचनी ही नहीं चाहिये। धरनीधर बनाम चन्द्रशेखर के वाद में न्यायाधीश वलीउल्लाह ने कहा है कि- “अपने इस विचार में मैं पूर्णतः स्पष्ट हूँ कि अंग्रेजी वाद मैरीवैदर बनाम निक्सन में विहित सिद्धान्त भारत में लागू करने योग्य नहीं है। न्याय, साम्य और सद्विवेक के आधार पर इंग्लिश कामन लॉ के एक नियम के रूप में भी इस वाद का सहारा नहीं लिया जा सकता, क्योंकि सन् 1935 ई. से अब यह वाद इंगलिश कामन लॉ का निदेश वाद नहीं रह गया है। यह नियम साम्य के इस सिद्धान्त के विपरीत कार्य करता है कि हर पक्षकार पर भार और लाभ एक समान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त दो या दो से अधिक अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध डिक्री प्राप्त कर लेने के बाद, जिसमें हर निर्णीत-ऋणी पर संयुक्त और पृथक दायित्व ठहराया जाता है, यदि एक अपकृत्यकर्ता को डिक्री की सम्पूर्ण धनराशि का भुगतान करने को कहा जाता है तो न्याय और स्वच्छ-व्यवहार स्पष्ट रूप से यह माँग करता है, कि ऐसा अपकृत्यकर्ता अन्य निर्णीत-ऋणियों से अंशदान लेकर अकेले अपने द्वारा उठाये गये भार को हल्का करे। अंशदान के इस अधिकार को लागू करने में ऐसा निर्णीत-ऋणी अपना अथवा यथार्थतः इस तथ्य पर आधारित करता है कि अकेले उसके द्वारा संयुक्त-भार को वहन किया गया है। स्वयं डिक्री ही ऐसे मामलों में एक संयुक्त-ऋण का सृजन करती है और सैद्धान्तिकतः हर निर्णीत-ऋणी को ऐसे मामलों में भार वहन करने में अंशदान करना चाहिए। अतः मुझे यह स्पष्ट लगता है कि न तो सैद्धान्तिकतः और न ही किसी प्राधिकार से मेरीवैदर बनाम निक्सन का नियम भारत में मान्यकृत और लागू करने योग्य है।”
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