धर्म की उत्पत्ति के सामाजिक सिद्धान्त एवं प्रकार्यवाद सिद्धान्त
धर्म की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्न सिद्धान्त प्रमुख हैं- (1) आत्मवाद या जीववाद, (2) जीवित सत्तावाद या मानावाद, (3) प्रकृतिवाद, (4) फ्रेजर का सिद्धान्त, (5) धर्म का सामाजिक सिद्धान्त, (6) प्रकार्यवादी सिद्धान्त।
आत्मवाद या जीववाद (Animism) –
इस सिद्धान्त के जन्मदाता टायलर (Tylor) हैं। टायलर के अनुसार आत्मा की धारणा ही आदिम मनुष्यों से लेकर सभ्य मनुष्यों तक के धर्म के दर्शन का आधार है। आत्मवाद का सिद्धान्त तो विश्वासों पर आधारित है। प्रथम आधार है कि मानव की आत्मा का अस्तित्व उसकी मृत्यु के उपरान्त भी बना रहता है। द्वितीय आधार है कि मानव आत्माओं के अतिरिक्त शक्तिशाली देवताओं की अन्य आत्मायें भी होती हैं। आपका मत है कि आत्मायें मनुष्य से लेकर देवताओं तक की श्रेणी की होती हैं। से पारलौकिक आत्मायें भर ही नहीं अपितु ये भौतिक संसार की सब घटनाओं तथा मानवों के जीवन की दशाओं को श्री निर्देशित व नियन्त्रित करती हैं। मानव इन आत्माओं से भयभीत रहता है और इसी भय से भक्ति करते हैं। अतः यहीं से धर्म की उत्पत्ति हुई। प्राचीन मानव इन आत्माओं पर दो कारणों से विश्वास करता रहा है। पहला यह है कि मनुष्य मर जाता है, दूसरा यह है कि वह स्वप्न देखता है। एक जीवित शरीर और मृत्यु के मध्य अन्तर को देखते हुए आदि मानव के मस्तिष्क में यह विचार आया है कि व्यक्ति के शरीर के अन्दर अवश्य ही कोई न कोई ऐसी शक्ति है जिसके चले जाने पर मानव शरीर निष्क्रिय हो जाता है। इस अवस्था में मनुष्य न कुछ खाता है, न चलता है। वह किसी भी प्रकार की क्रिया करने में असमर्थ है। आदि मानव इस विषय में सोचता रहता है कि यह क्या है? मनुष्य ने अपने स्वप्न व अनुभवों के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर खोजा। मानव अपनी परछाई को देखता था और स्वप्न में अनेक प्रकार के कार्य करता था। वह अपने को और अन्य जीवित व मृत्यु प्राप्त मनुष्यों को स्वप्न में देखता था। मनुष्य ने शरीर से सम्बन्धित इन समस्त वस्तुओं को ‘आत्मा’ नाम दिया। ‘आत्मा’ आदि मानव के अनुसार एक पतली, निराकार मानव प्रतिभूति, आकृति में कोहरा, छाया या चलचित्र के समान है।
टायलर का विचार है कि आत्मा के सन्दर्भ में मानव की शंका समाप्त नहीं हुई है कि सोते समय भी मनुष्य मृत्यु सदृश होता है। स्वप्न में कोई शक्ति शरीर से निकलकर अनेक स्थानों पर जाती है। अनेक प्रकार का कार्य करती है, विभिन्न जीवित और मृतक व्यक्तियों से मिलती है और अन्त में एक समय अपनी इच्छानुसार वापिस आ जाती है। मानव निद्रा के टूटने पर पुनः पहले की स्थिति में आ जाती है। आदिम मानव ने इस प्रकार दो निष्कर्ष प्राप्त किये कि आत्मा दो हैं। प्रथम स्वतन्त्र, द्वितीय शरीर आत्मा। स्वतन्त्रता आत्मा शरीर से बाहर जाने में तथा वापिस लौटने में स्वतन्त्रता है। शरीर आत्मा शरीर से एक बार बाहर जाने पर पुनः वापिस नहीं आती। मानव की मृत्यु हो जाती है। दूसरे उसने यह निष्कर्ष निकाला कि आत्मा अमर है क्योंकि जो व्यक्ति पहले से मर चुके हैं वे भी स्वप्न में भी दिखाई पड़ते हैं। चूँकि आत्मा अमर है इसीलिए वे स्वप्न में दिखाई पड़ते हैं।
टायलर के सिद्धान्त की उपरोक्त विवेचन के आधार अग्र विशेषतायें हैं।
(1) आत्मा की अवधारणा का जन्म आदि मानव के प्रतिदिन के अनुभव के आधार पर हुआ।
(2) यह सिद्धान्त आत्माओं के मूल में विश्वास करता है।
(3) मानव ने आत्मा को दो भागों में विभक्त किया।
(4) आत्मायें ही मानव जीवन तथा भौतिक जीवन को प्रभावित करती हैं।
(5) मानव अपने से शक्तिशाली आत्मा को प्रसन्न करें।
आलोचना- मैरेट (Marett), जीवान्स (Jevons), प्रो. लैंग (Lang), वुन्ड (Wundt) आदि विद्वानों ने प्रो. टायलर के सिद्धान्त की आलोचना की है। इन सबका मत है-
- धर्म एक सामाजिक घटना है न कि आत्मा द्वारा उत्पन्न विचार या तथ्य।
- आदिवासी मानव आत्मा के अलावा अन्य दूसरी शक्तियों में भी विश्वास रखते हैं।
- प्रो टायलर ने धर्म को अधिक सरल माना है यह इतना सरल नहीं है अर्थात् इसकी उत्पत्ति इतनी सरलता से नहीं हुई है।
- प्रो. टायलर ने आदि युग को इतना अधिक सबल और तर्कयुक्त मान लिया कि आदि मानव आत्मा, परमात्मा, स्वप्न, मृत्यु आदि का अनुभव करने लगा तथा उसने धर्म कीउत्पत्ति कर ली।
- इसके अनुसार धर्म का स्वरूप आत्माओं पर विश्वास और उनकी पूजा पर है। उत्पत्ति कर ली।
जीवित सत्तावादवमानाबाद (Animatism or Manaism)-
इस सिद्धान्त प्रतिपादक प्रो. प्रीयस (Preuss) एवं मैक्समूलर (Maxmuller) हैं। इनका विचार है कि प्रत्येक पदार्थ में चाहे वह चेतन हो अथवा अचंतन एक जीव सत्ता विद्यमान रहती है। वह सत्ता अलोकित है और उसे प्रसन्न रखना लाभकारी है। इस अलौकिक शक्ति की आराधना करना ही सबसे धर्म है। इन अलौकिक शक्तियों की वन्दना पूजा ही धर्म का प्रारम्भिक स्वरूप है।
कार्डरिगटन (Codringtion) ने मैलानेशिया की जनजातियों के सन्दर्भ में किये और निष्कर्ष निकाला कि ये आदिवासी चेतन और अचेतन सभी वस्तुओं में जीव की विद्यमानता मानते हैं उसकी पूजा करते हैं। प्रो. मैरेट (Marett) ने इसको मानावाद (Manaism) का नाम दिया है। इनके अनुसार धर्म की उत्पत्ति ‘आत्मा’ के विचार से नहीं वरन् ‘माना’ की धारणा से है। आपके मतानुसार “माना एक शक्ति है जो भौतिक और शारीरिक भक्ति से अलग है अच्छे और बुरे सभी रूपों में कार्य करती है तथा इस पर नियन्त्रण पाना अति लाभकारी है। कई एक शक्ति या प्रभाव तो अन्य अवश्य है, पर शारीरिक शक्ति नहीं है और एक अर्थ में ये अलौकिक है, किन्तु यह शारीरिक शक्ति या अन्य प्रकार की शक्ति या क्षमता में जिसका कि मनुष्य अधिकारी है अपने को प्रकट करती है। यह अलौकिक इस अर्थ में है कि यह सब चीज पर प्रभाव डालने के लिए जिस रूप में कार्य करती है, वह मानव की साधारण शक्ति से और प्रकृति की साधारण प्रक्रियाओं के बाहर है।”
उपरोक्त विवरण के आधार पर माना में कुछ विशेषतायें हैं-
- इसकी शक्ति का कोई शारीरिक रूप से नहीं है।
- माना शरीर की शक्ति नहीं | है उससे भिन्न है, अलौकिक है तथा मानव व प्रकृति की सामान्य क्रियाओं से परे है।
- यह शक्ति अशरीरी (Impersonal) है।
- यह अलौकिक शक्ति होते हुए भी अन्य शक्तियों में | प्रकट होती है। इस शक्ति को माना प्राप्त करना चाहिए।
- यह माना कम अथवा ज्यादा किसी भी रूप में सब में विद्यमान है।
- यह बिजली के करन्ट (Current) के समान है और व्यक्तियों व वस्तुओं को प्रभावित करती है।
- यह शक्ति मनुष्य को लाभ व हानि दोनों देती है।
मैलानेशिया आदिवासियों में यह विश्वास है कि माना कि कृपा के बिना मनुष्यों को अपने काम में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। समस्त जड़ और चेतन वस्तुओं में माना विद्यमान है। आदिवासी इसको अव्यक्ति, अलौकिक, दैवीय, निर्वचनीय उत्प्राकृतिक सत्ता कहते थे और हैं। इसका अनुभव इन्द्रियों के द्वारा नहीं किया जा सकता। इसका अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए ही आदिवास इसके समक्ष नतमस्तक होते हैं, पूजा करता है और इस शक्ति को ‘माना’ मानते हैं।
आलोचना- प्रो. दुखीम ने इस सिद्धान्त की आलोचना निम्नवत् किया हैं-
(1) इस सिद्धान्त से यह पता नहीं लगता कि माना की अवधारणा की उत्पत्ति कब हुई।
(2) मानव के सभी अन्धविश्वासों को माना के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
(3) यह मानव के दिमाग के बाहर है लेकिन धर्म तो मस्तिष्क के अन्दर होता है
(4) धर्म पवित्र और अपवित्रता से परिपूर्ण है। परन्तु माना में यह बात नहीं है।
(5) इसमे अशरीरी शक्ति को परिभाषित करने का प्रयत्न नहीं किया।
मानावाद और आत्मवाद में अन्तर
1. मानावाद का सम्बन्ध अनेक आत्माओं से नहीं वरन् एक अशरीरी शक्ति से जबकि आत्मवाद का सम्बन्ध आत्माओं में विश्वास, भूतप्रेत में विश्वास से है।
2. मानावाद का अवैयक्तिक शक्ति से सम्बन्ध है जबकि आत्मवाद वैयक्तिक शनि पर विश्वास करता है।
3. मानावाद का क्षेत्र अधिक व्यापक है। आत्मवाद का क्षेत्र अधिक व्यापक नहीं ।
प्रकृतिवाद (Naturalism) –
इस सिद्धान्त के जन्मदाता प्रो. मैक्समूलर (MaxMulel) हैं। यह जीव सत्तावाद का ही एक रूप है। इसके अनुसार प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं से हानि लाभ दोनों ही होता है। मानव इस प्राकृतिक शक्ति के प्रति भय, शंका, आतंक, आश्चर्य अनुभव करने लगा। वह इन सब को रतन समझने लगा। आदि मानब इनसे डरकर इनके सामने झुकता है। यहीं से धर्म की दृष्टि हुई।
आलोचना- इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए विद्वानों ने कहा कि-
(1) प्रकृति को पूजने मात्र से धर्म की उत्पत्ति किस प्रकार मान ली गयी।
(2) धर्म एक सामाजिक संस्था है न कि प्राकृतिक।
(3) प्रकृति के पदार्थों को मानव ने सजीव किस आधार पर मान लिया।
फ्रेजर का सिद्धान्त (Theory of Frazer)-
इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में प्रो. फ्रेजर का मत है कि आदि मानव जादू-टोने के द्वारा प्रकृति पर नियन्त्रण करता था। जब वह नियन्त्रण करने में असफल हो जाता है तब वह यह स्वीकार करता है कि संसार में उससे भी अधिक कोई वस्तु अधिक शक्तिशाली है जो उसके प्रयासों को पूर्ण नहीं होने देती। अतः उस पर जादू-टोने के द्वारा सफलता प्राप्त करना असम्भव है। अतः आदि मानव उस शक्ति पर विजय प्राप्त करने की बजाय उसकी पूजा करने लगा। इस प्रकार धर्म की सृष्टि हुयीं। प्रो. फ्रेजर के इस सिद्धान्त का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण अधिक प्रचलित नहीं हो पाया।
धर्म का सामाजिक सिद्धान्त (Social theory of Religion)-
इस सिद्धान्त के प्रस्तुत कर्ता दुर्थीम (Durkheim) हैं। प्रो. दुर्शीम ने आस्ट्रेलिया की अरुण्टा (Arunta) जनजातियों का अध्ययन करने के बाद निम्न परिणाम प्रस्तुत किया। सामाजिक जीवन की सभी घटनाओं को दो भागों ने विभाजित किया गया है। साधारण (Profane) व पवित्र (Sacred)। सभी धर्मों का सम्बन्ध पवित्रता से है। ये पवित्र वस्तुयें समाज की प्रतीक हैं। इनमें सामाजिक प्रतिनिधित्व होता है।
दुर्थीम का मत है कि “समाज के सदस्य जिन्हें पवित्र समझते हैं। उन्हें अपवित्र या साधारण से दूर रखते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक विश्वासों, आचरणों और संस्कारों तथा विभिन्न उत्सवों को जन्म देते हैं।”
दुर्थीम का मत है कि धार्मिक अभिव्यक्तियाँ सामूहिक उत्तेजना (Group excitment) से होती है। त्योहारों एवं उत्सवों पर जब गोत्र के सभी व्यक्ति एकत्रित होते हैं तो प्रत्येक सदस्य ऐसा महसूस करता था कि समूह की शक्ति वैयक्तिक से अधिक उच्च और महान है। अनेक मनुष्यों की उपस्थिति पर ही उत्सवों व त्यौहारों का अस्तित्व निर्भर करता है। समान विचारों, भावों, इच्छाओं वाले अनेक व्यक्तियों के वैयक्तिक भावों, विचारों, इच्छाओं के संगठन से एक नवीन चेतन या उत्तेजना का निर्माण होता है यही सामूहिक शक्ति होती है। जिसके सामने प्रत्येक व्यक्ति अनिवार्य रूप से झुकता है। इस प्रकार टोटमवाद ही समस्त धर्मों का प्राथमिक स्तर है।
टोटम की निम्न विशेषतायें हैं।
- टोटम के साथ गोत्र का सम्बन्ध है।
- टोटम के प्रति भय और श्रद्धा है।
- टोटम के साथ पवित्रता की भावना जुड़ी हुई है।
- टोटम को मारना, चोट पहुंचाना व खाना माना जाता है।
- टोटम की खाल को विशेष अवसरों पर धारणा करते हैं।
दुखीम के सिद्धान्त का मूलसार इस प्रकार है-
“धार्मिक प्रतिनिधित्व सामूहिक प्रतिनिधित्व है जो कि सामूहिक वास्तविकताओं को व्यक्त करते हैं, धार्मिक कार्यों की क्रिया समवेत समूहों से प्रारम्भ होता है और इन समूहों में पायी जाने वाली कुछ मानसिक अवस्थाओं को उत्तेजित, व्यवस्थित तथा पुर्नजीवित करता है। धार्मिक जीवन सम्पूर्ण सामूहिक जीवन की सार पूर्ण अभिव्यक्ति है। समाज का विचार है कि ही धर्म की आत्मा है। इस कारण धार्मिक शक्तियों वास्तव में मानव शक्तियाँ, नैतिक शक्तियाँ हैं। समाज की अवहेलना करना या उससे पृथक रहना तो दूर रहा, धर्म समाज की प्रतिभा है, धर्म समाज के समस्त पक्षों को और सबसे अशिष्ट तथा सबसे घृणात्मक पक्षों को भी प्रतिबिम्बित करता है।”
आलोचना – उपरोक्त सिद्धान्त की आलोचना करते हुए गोल्डन वाइजर (Golddenwiser) ने कहा है कि-
(1) यदि हम आदि मानव के धर्म को पवित्र तथा अपवित्रता की धारणाओं पर आधारित मान लें तो आदिम समाजों के मध्य भेद को स्पष्ट रेखा द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता है।
(2) आदिम समाजों में धर्म व टोटम का भित्र भित्र स्थान व महत्व है।
(3) आदि समाजों में बहत सीमा तक धर्म के सन्दर्भ में व्यक्तिगत कारण भी शामिल हैं।
(4) धर्म की उत्पत्ति में सामाजिक कारण महत्वपूर्ण योगदान देते हैं अथवा दे सकते हैं ।
मान लिया जाये तो केवल सामाजिक कारण ही इस बात के लिए उत्तरदायी हैं यह कहना
प्रकार्यवादी सिद्धान्त (Functional Theory) –
इस सिद्धान्त के समर्थक प्रो. नडेल (Nadel) है। इस सिद्धान्त के अनुसार धर्म की उत्पत्ति कुछ मानवीय आवश्यकताओं की प्रतिक्रियाजी का ही परिणाम है। नैडेल का मत है कि धर्म समूह के मूल्यों और मान्यताओं की रक्षा करता है, मानव विचारों व अभिव्यक्तियों के बिना धर्म नहीं चल सकता। अतः धर्म सामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही आधारों पर आधारित है।
आदि मानव को अपने प्रारम्भिक जीवन काल से ही ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता रहा है जिनका हल उसके पास नहीं है। जैसे, मृत्यु के समय तथा बच्चों के जन्म के समय कुछ मानसिक कष्ट अनुभव होता है जिनसे निजात पाना अति आवश्यक है। उसी प्रकार खेती करने में और समुद्र में नाव चलाने में कभी-कभी ऐसी भयंकर दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता था जिसकी उसे कभी आशा नहीं होती। ये समस्यायें केवल एक व्यक्ति के जीवन में नहीं होती वरन् समाज के अधिकांश मनुष्यों के बीच में होती हैं। इन समस्याओं को सुलझाने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं, धर्म उन्हीं से उत्पन्न होता है ये समस्यायें सारे समाज की हैं इसलिये सभी समाजों के भाग लेने के कारण धर्म की उत्पत्ति होती है। के पीछे पूरे समाज का बल होता है।
धर्म के उत्पत्ति सम्बन्धी उपरोक्त सभी सिद्धान्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि समस्त समाजों की प्रकृति और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में अनेकता होने के कारण धर्म की उत्पत्ति अलग-अलग समाज में अलग-अलग कारणों से हुई है। धर्म की उत्पत्ति में एक से अधिक कारणों का योगदान रहा है।
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