अल्फ्रेड रेडक्लिफ – ब्राउन के प्रकार्यवाद की आलोचना
अल्फ्रेड रेडक्लिफ- ब्राउन के प्रकार्यवाद की आलोचना- ब्राउन के मतानुसार संरचना और प्रकार्य की अवधारणाओं का प्रयोग तभी हो सकता है जब समाज तथा जीवित सावयव की समानता को स्वीकार कर लिया जाए। इस समानता को और भी विकसित रूप में प्रस्तुत करते हुए तथा प्रकार्य के अर्थ को अधिक स्पष्ट करते हुए रैडक्लिफ ब्राउन ने लिखा है कि एक सावयव का जीवन उसकी संरचना के प्रकार्य के रूप में देखा जा सकता है। प्रकार्य की निरन्तरता के माध्यम से ही संरचना की निरन्तरता बनी रहती है। यदि हम किसी एक भाग या अंग की विवेचना करे तो उसका प्रकार्य वह भूमिका है जोकि वह अदा करता है या वह योगदान है जोकि वह समय रूप में सावयव के जीवन को देता है। रेडक्लिफ- ब्राउन का विश्वास है कि सावयवी व्यवस्थाओं द्वारा (तीन) समस्याओं को खड़ा किया गया है- रचनाशास्त्र अर्थात संरचना का अध्ययन, शरीरशास्त्र अर्थात प्रकार्य का अध्ययन तथा उदविकास (evolution of development)। तीनों प्रश्न या विषय सामाजिक जीवन पर भी लागू होते हैं। हम एक सामाजिक संरचना के अस्तित्व को देख सकते हैं; व्यक्ति, आवश्यक इकाइयों के रूप में, एक सम्बद्ध समग्रता के अन्तर्गत कुछ निश्चित सामाजिक सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। संरचना की निरन्तरता सामाजिक जीवन की प्रक्रिया द्वारा बनाए रखी जाती है। एक समुदाय का सामाजिक जीवन संरचना का प्रकार्य है।
मैलिनोवस्की तथा रैडक्लिफ ब्राउन के दृष्टिकोण में एक आधारभूत अन्तर हमें देखने को मिलता है। रैडक्लिफ ब्राउन ने भी मैलिनोवस्की की भाँति सांस्कृतिक तत्वों के कार्यों पर अत्यधिक बल दिया। परन्तु मैलिनोवस्की की तरह रैडक्लिफ-ब्राउन ने सांस्कृतिक तत्वों के इन कार्यों के द्वारा ‘व्यक्ति’ के अस्तित्व पर अधिक जोर न देकर ‘समाज’ के अस्तित्व को अधिक प्रधानता दी। आपके मतानुसार सांस्कृतिक तत्व जो कार्य करते रहते है उससे अन्तिम रूप में समाज का एक अस्तित्व बना रहता है या बना रहना सम्भव होता है। आपने अपने विचार को और भी स्पष्ट करने के लिए सांस्कृतिक संगठन की सावयवी संगठन से तुलना की है। एक सावयव अनेक कोष्ठों की एक संगठित तथा जटिल व्यवस्था होती है और इन कोष्ठों से ही सावयव या शरीर के विभिन्न अंग बनते हैं। इन अंगों में से प्रत्येक अंग का सम्पूर्ण व्यवस्था में एक या कुछ विशेष कार्य होता है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि इनमें से कोई अंग किसी प्रकार का भी कार्य नहीं करता। प्रत्येक अंग का कार्य बँटा हुआ है, फिर भी वे अंग एक-दूसरे से परे नहीं है, प्रत्येक अंग अपने कार्यों को उचित ढंग से करने के लिए दूसरे अंगों से सम्बन्धित तथा उन पर आश्रित होता है। इस प्रकार कार्यों आधार पर शरीर के विभिन्न अंगों में अन्तःसम्बन्ध तथा अन्तःनिर्भरता हुआ करती है जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण शरीर या सावयव में एक प्रकार का संगठन पाया जाता है। जब तक सावयव जीवित है जब तक यह संगठन भी अनिवार्य है। साथ ही यह स्मरण रहे कि सम्पूर्ण सावयव या कोष्ठ इनके कार्यों के बिना वास्तव में अर्थहीन ही है। जो बात सावयव और इसके विभिन्न कोष्ठों के सम्बन्ध में सच है, वही बात संस्कृति, उसके तत्वों और उनमें पाए जाने वाले संगठन के सम्बन्ध में भी सच है।
प्रकार्यवाद की आलोचना (Criticism of Functionalism)
समाजशास्त्र से प्रकार्यवाद का परिचय कराने का श्रेय जीव-विज्ञान के आविष्कारों विशेषकर डार्विन की खोज के आधार पर हरबर्ट स्पेन्सर को है। फिर इस कार्य को आगे बढ़ाने का काम मानवशास्त्रियों जैसे रैडक्लिफ- ब्राउन, मैलिनोवस्की, नैडेल आदि ने किया। पर आधुनिक समाजशास्त्रियों ने प्रकार्यवाद को उस में स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिस रूप में किया मानवशास्त्री उसे प्रस्तुत करते हैं क्योंकि उनके अनुसार, प्रकार्यवाद में अपनी कुछ उल्लेखनीय कमियाँ हैं। इसीलिए आधुनिक समाजशास्त्र । जिस प्रकार्यवाद को हम देखते हैं। वह केवल ‘प्रकार्यवाद’ न होकर ‘संरचनात्मक-प्रकार्यवाद’ है अर्थात इकाइयों के प्रकार्यों का अध्ययन उनके वास्तविक संरचना से पृथक करके नहीं, अपितु संरचनात्मक सन्दर्भ में किया जाता है। मर्टन, पारसन्स लेवी आदि इस संरचनात्मक-प्रकार्यात्मकक दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थक हैं।
इन विद्वानों ने प्रकार्यवाद की जो आलोचना की है। वह इस प्रकार है-
(1) मर्टन का कथन है कि प्रकार्यवादियों का यह विश्वास गलत है कि सामाजिक संरचना की सभी इकाइयाँ कोई-न-कोई उपयोगी या सकारात्मक प्रकार्य ही करती हैं। यह हो सकता है कि कुछ इकाइयों प्रकार्य के स्थान पर अकार्य करती हो और इस प्रकार सामाजिक संरचना या व्यवस्था को संगठित करने की दिशा में नहीं बल्कि विघटित करने की दिशा में क्रियाशील हो। यह हो सकता है कि कुछ इकाइयाँ कोई भी कार्य (प्रकार्य या अकार्य) न करते हुए भी अर्थात नकार्यात्मक स्थिति में होते हुए भी सामाजिक संरचना में बनी हुई हों।
(2) मर्टन का कथन है कि प्रकार्यवादियों ने एक इकाई के एक प्रकार्य को सभी समाजों में लागू करने की गलती की है। एक समाज में विभिन्न इकाइयों के जो प्रकार्यात्मक परिणाम हैं, वे दूसरे समाजों पर लागू नहीं भी हो सकते हैं। अतः मर्टन के अनुसार सार्वभौमिक प्रकार्यवाद की धारणा में संशोधन आवश्यक है।
(3) मर्टन का कथन है कि प्रकार्यवादियों का यह दृष्टिकोण भी भ्रमपूर्ण है कि एक सामाजिक इकाई के द्वारा एक ही कार्य किया जाता है। वास्तव में एक इकाई के द्वारा एकाधिक प्रकार्य किए जा सकते हैं और साथ ही एक ही प्रकार के प्रकार्य को करने वाली एकाधिक इकाइयाँ या विकल्प सामाजिक संरचना के अन्तर्गत विद्यमान हो सकते हैं।
(4) प्रकार्यवाद का एक उल्लेखनीय दोष यह है कि इसके समर्थक इकाइयों के प्रकार्यों का अध्ययन उनके संरचनात्मक सन्दर्भ से पृथक करके करते हैं। आधुनिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि संरचनात्मक सन्दर्भ के बिना इकाइयों के प्रकार्यों की वास्तविकताओं को जाना नहीं जा सकता।
(5) प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण तुलनात्मक अध्ययन के लिए खरा नहीं है क्योंकि यदि दो इकाइयों के प्रकार्यों की तुलना संरचनात्मक सन्दर्भ की अवहेलना करके की जाए तो ऐसे अध्ययन के निष्कर्ष कदापि यथार्थ नहीं हो सकते।
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