निजीकरण (Privatisation)
निजीकरण का अभिप्राय यह है कि आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्तक्षेप को उत्तरोत्तर कम किया जाए, प्रेरणा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी खजाने पर बोझ बन अलाभकारी सरकारी प्रतिष्ठानों को विक्रय अथवा विनिवेश के माध्यम से निजी स्वामित्व एवं नियन्त्रण को सौंप दिया जाए। प्रबन्ध की कुशलता को सुनिश्चित करने के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों में निजी निवेशकों की सहभागिता बढ़ायी जाए और नए व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना करते समय निजी क्षेत्र को प्राथमिकता दी जाए। निजीकरण राष्ट्रीयकरण का प्रतिलोम भी है।
उदारीकरण के अन्तर्गत व्यापार, उद्योग एवं निवेश पर लगे ऐसे प्रतिबन्धों को समाप्त किया जा रहा है, जिनके फलस्वरूप व्यापार, उद्योग एवं निवेश के स्वतन्त्र प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है । प्रतिबन्धों को समाप्त करने के अतिरिक्त विभिन्न करों में रियायत सीमा शुल्कों में कटौती तथा मात्रात्मक प्रतिबन्धों को समाप्त करने जैसे उपाय भी किए जा रहे हैं।
निजीकरण के उद्देश्य (Objectives of Privatisation)
निजीकरण के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं। प्रत्येक देश की अपनी अलग समस्याएँ होती हैं। उन समस्याओं के निराकरण के लिए वह देश निजीकरण की अपनी अलग कार्ययोजना तैयार करता है। ऐसी स्थिति में विभिन्न देशों के लिए निजीकरण का अलग-अलग उद्देश्य होना स्वाभाविक है। फिर भी निजीकरण के कुछ उद्देश्य ऐसे हैं जो सभी देशों के लिए एक समान होते हैं जैसे-
(1) अधिक कार्यकुशलता और उत्पादकता ।
(2) शिक्षित एवं उद्यमशील युवाओं को अवसर प्रदान करके रोजगार में वृद्धि।
(3) राजकोषीय सन्तुलन को बिगाड़ने वाले हानिप्रद सरकारी उपक्रमों को समाप्त करके राजकोषीय घाटे में कमी।
(4) आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाकर कर एवं गैरकर राजस्व में वृद्धि।
(5) निर्यात प्रोत्साहन के माध्यम से विदेशी मुद्रा की आय में वृद्धि।
(6) विदेशी ऋणों पर निर्भरता में कमी।
(7) प्रौद्योगिकी का उन्नयन।
(8) विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकजुटता।
(9) विशाल औद्योगिक परियोजनाओं में निवेश करने के बजाय सामाजिक क्षेत्रों के लिए साधनों की बचत तथा देश के बल का सर्वोत्तम एवं कुशल उपयोग।
उपर्युक्त उद्देश्यों के अतिरिक्त निजीकरण का एक प्रमुख उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की कार्यक्षमता में सुधार करना भी है। जब सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है तो उसे अपनी कार्यक्षमता में सुधार करने के लिए विवश होना पड़ता है। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त हो जाता है और उपभोक्ताओं को इसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ प्राप्त होता है।
निजीकरण के कारण (Reasons of Privatisation)
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम संतोषप्रद ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
(1) छोटे-बड़े क्रय-विक्रय एवं अनुबन्धों में रिश्वतखोरी का बोलबाला रहा।
(2) स्थापित और पारम्परिक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए बड़े लोगों के चहेतों को विभिन्न पदों पर नियुक्त करने के कारण प्रबन्ध और संचालन अकुशल हाथों में चला गया।
(3) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की मोटरगाड़ी, हवाई जहाज और अतिथिगृहों का निजी प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया गया और इनके प्रचार साधनों का दुरूपयोग होता रहा।
(4) आर्थिक एवं तकनीकी कारकों की अवहेलना करके प्रभावशाली राजनेताओं के राजीनतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उनके चुनाव क्षेत्रों में प्रतिष्ठानों की स्थापना को प्रमुखता दी गई।
(5) मानवीय स्पर्श तथा सामाजिक उद्देश्यों को अत्यधिक महत्व दिया गया और आर्थिक यथार्थ की उपेक्षा की गई।
(6) नए आर्थिक वातावरण के अनुरूप व्यवसाय, वित्त और विपणन के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की क्षमता विकसित करने में ये प्रतिष्ठान सफल नहीं हो पाए।
(7) मूल्यवान संसाधनों का दुरूपयोग
(8) अत्यधिक नियन्त्रण एवं नियमन।
(9) उत्तरदायित्व की कमी।
(10) कामगारों के हितों की रक्षा करने के लिए निजी क्षेत्र के कई बीमार उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया जो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की 60 प्रतिशत हाँनियों के लिए उत्तरदायी है।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उपर्युक्त कमियों और कमजोरियों के कारण इस क्षेत्र के अधिकतर उपक्रम हानि पर चल रहे हैं अथवा अच्छी स्थिति में नहीं है। फलतः ये सरकारी खजाने और वस्तुतः देश के करदाताओं पर बोझ बन गए हैं और अनिश्चितकाल तक राजकोषीय समर्थन पर इनका सम्पोषण नहीं किया जा सकता है।
अलाभकारी प्रतिष्ठानों के सरकारी सम्पोषण के फलस्वरूप राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है और देश की अर्थव्यवस्था को स्वाभाविक प्रतिकूल परिणाम भुगतना पड़ता है। निजीकरण के माध्यम से इस स्थिति से निजात मिल सकती है। अलाभकारी सरकारी उपक्रमों से वे सामाजिक और कल्याणकारी उद्देश्य पूरे नहीं हो सके जिनके लिए इनकी स्थापना हुई थी ।
भारत में निजीकरण (Privatisation in India)
निजीकरण आर्थिक सुधार का एक विश्वव्यापी कार्यक्रम बन गया है। यह कार्यक्रम यूरोप, अमेरिका और जापान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साम्यवाद का परित्याग कर प्रजातान्त्रिक पद्धति अपनाने वाले देशों साम्यवादी देशों और विकासशील देशों में भी अपनाया जा रहा है।
विलम्ब से ही सही किन्तु भारत ने भी निजीकरण के सिद्धान्त को अपनाया है। राजनीतिक विरोध और वैचारिक मतभेदों के कारण निजीकरण की गति धीमी है लेकिन इस कार्यक्रम को तेजी से लागू करने के प्रयास चल रहे हैं। यह प्रयास 1991 में प्रारम्भ हुआ जब परम्परागत औद्योगिक एवं आर्थिक नीति को छोड़कर उदारीकरण और निजीकरण पर आधारित नई आर्थिक नीति को अपनाया गया। भारत में 1991 की नई आर्थिक नीति के साथ ही उदारीकरण और निजीकरण का शंखनाद हुआ।
अब भारत में इस बात पर सर्वानुमति है कि सरकार को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से दूर रहना चाहिए इसके दो प्रमुख कारण हैं एक तो यह कि सरकार के पास संसाधनों की कमी है और दूसरे यह कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई प्रतिष्ठान अकुशल हैं और घाटे पर चल रहे हैं।
निजीकरण का औचित्य (Purpose of Privatisation)
आज निजीकरण प्रत्येक देश की अर्थनीति का एक अभिन्न अंग बन चुका है। कुछ वर्षों पूर्व तक जो देश पूर्ण राजकीय स्वामित्व वाली केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था चला रहे थे, उन देशों में भी निजीकरण की प्रक्रिया जोर पकड़ने लगी है।
राजकीय स्वामित्व और केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था असफल सिद्ध हुई और उन देशों की आर्थिक बदहाली के कारण के रूप में इन्हें देखा जाने लगा। सरकारी स्वामित्व और नियन्त्रण वाले व्यवसाय और उद्योग के सम्बन्ध में भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा।
स्वतन्त्र बाजार वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास करने वाले देशों में पहले से ही निजी क्षेत्र की प्रमुखता थी। फिर भी कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का जो हिस्सा सरकारी नियन्त्रण में था उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए और उन्हें निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया।
निजीकरण के सम्बन्ध में सरकारी नीति (Government Policy for Privatisation)
निजीकरण के सम्बन्ध में सरकारी नीति के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) भारत में विनिवेश ही निजीकरण का मुख्य आधार रहा है। विनिवेश के माध्यम से सार्वजनिक उपक्रमों के अंश स्वदेशी या विदेशी निजी निवेशकों के हाथ बेचे जाते है।
वर्ष 1991-92 या 2001-2002 तक कुल मिलाकर, 65,300 करोड़ रूपये विनिवेश के माध्यम से अर्जित करने का लक्ष्य रखा गया, जबकि सिर्फ 19,435 करोड़ रूपये (अक्टूबर 2001 तक) वास्तव में प्राप्त किए जा सके। दूसरे शब्दों में, मात्र 29.78 प्रतिशत लक्ष्य ही पूरा किया जा सका।
(2) भारत में निजीकरण का कार्यक्रम विनिवेश तक ही सीमित नहीं है। औद्योगिक एवं व्यावसायिक लाइसेन्स की नीति, विदेशी विनिमय की नीति, आयात-निर्यात की नीति तथा कर नीति को उदार बनाकर निजी क्षेत्र के निवेशकों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
(3) अब निजी क्षेत्र के किसी प्रतिष्ठान के राष्ट्रीयकरण की बात नहीं हो रही है। रेल और सुरक्षा क्षेत्र को छोड़कर अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों के अंश निजी निवेशकों के हाथों बेचे जा रहे हैं या उन पर विचार किया जा रहा है। कई क्षेत्र शत-प्रतिशत निवेश के साथ विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिए गए हैं। भारतीय निवेशकों के साथ मिलकर अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेशको की भागीदारी में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा रही हैं।
(4) निवेशक काफी संख्या में संयुक्त उपक्रम स्थापित कर रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में कोई नया औद्योगिक या व्यावसायिक उपक्रम स्थापित नहीं किया जा रहा है और जो उद्योग एवं व्यवसाय सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, उनमें से कई अब अनारक्षित कर दिए गए हैं और निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी गई है।
(5) बीमा और बैंकिंग व्यवसाय के द्वार भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए हैं। विगत कई वर्षो से ऐसा लगने लगा है कि केन्द्र सरकार अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए निजीकरण की प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के प्रयास कर रही है।
वर्ष 1997-98 तक अपने बजट भाषणों में वित्तमन्त्री यह घोषणा करते आए थे कि लाभ अर्जित करने वाले किसी भी सार्वजनिक उद्योग को निजी क्षेत्र को नहीं बेचा जाएगा। लेकिन जिस तरह सरकार ने लगातार लाभ अर्जित करने वाले अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित सार्वजनिक उपक्रमों बाल्को, सीएमसी, विदेश संचार निगम लि., आई.बी.पी. का निजीकरण किया उससे अब सरकार की नियत पर सन्देह होने लगा है। इसी के चलते सरकार द्वारा लाभ अर्जित करने वाले अन्य सार्वजनिक उपक्रमों-नालको हिन्दुस्तान पेट्रोलियम तथा सामरिक महत्व के अन्य उपक्रमों भारतीय जहाजरानी निगम, राज्य व्यापार निगम, एयर इण्डिया तथा इण्डियन एयर लाइन्स के निजीकरण का देश में भारी विरोध हो रहा है। सत्तासीन सरकार के घटक दल ही इन उपक्रमों को बेचने का भारी विरोध कर रहे है।
निजीकरण का प्रभाव (Impact of Privatisation)
निजीकरण के प्रभाव को निम्नलिखित तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) निजीकरण का उद्देश्य केवल उत्पादकता और लाभदायकता में सुधार करने तक ही सीमित नहीं है। इन उद्देश्यों की पूर्ति से तो केवल अंशधारी या निवेशक लाभान्वित होंगे निजीकरण का लाभ उपभोक्ताओं को भी प्राप्त होना चाहिए।
(2) यह तभी सम्भव है जब उन्हें उच्च-स्तर की वस्तु और सेवा कम कीमत पर उपलब्ध हों। अपेक्षाकृत गरीब उपभोक्ताओं के लिए विभेदात्मक न्यून कीमत की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उपभोक्तावाद की वर्तमान संस्कृति में वे भी अपने रहन-सहन के स्तर को यथासम्भव नया आयाम दे सकें।
(3) निजीकरण के कार्यक्रम, न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप विनियमन और उदारीकरण के वातावरण में चलाए जाते हैं। जिससे अर्थव्यवस्था बाजार उन्मुख और अति प्रतिस्पर्धात्मक हो जाती है और इसका स्वाभाविक लाभ उपभोक्ताओं को प्राप्त होता है। फिर भी बाजार तक अल्प आय वर्ग के उपभोक्ताओं की पहुँच कठिन होती है। मोंग के आधार को विस्तारित करने के लिए भी यह आवश्यक है कि उच्च एवं मध्य आय वर्ग के उपभोक्ताओं के साथ-साथ निम्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए भी अधिक-से-अधिक वस्तु एवं सेवा सुलभ हों।
(4) निजीकरण के दौड़ में विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी का आगमन होता है और उत्पादन प्रणाली में श्रमिकों का महत्व क्रमशः घटने लगता है, क्योंकि पूँजी प्रधान तकनीकों से उत्पादन में वृद्धि करने की लागत अपेक्षाकृत कम होती है।
(5) उन्नत उपकरणों के प्रयोग के कारण नियोजित श्रमिकों की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है, लेकिन रोजगार के नए अवसरों का सृजन नहीं हो पाता है। अर्थात् जिस अनुपात से उत्पादन में वृद्धि होती है, उस अनुपात से रोजगार में वृद्धि नहीं होती है।
यह ध्यान देने की बात है कि संगठित क्षेत्रों और बड़े पैमाने के उद्योगों में भले ही रोजगार के कम अवसर उत्पन्न हों, निजीकरण के वातावरण में उद्यमशील प्रशिक्षित युवाओं के लिए स्वरोजगार की अपार सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जो भी हो, निजीकरण के फलस्वरूप विस्थापित कामगारों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने अथवा पर्याप्त क्षतिपूर्ति उपलब्ध कराने के लिए सरकार को कारगर कदम उठाना चाहिए।
‘वैश्वीकरण अंग्रेजी शब्द ‘Globalisation’ का हिन्दी रूपान्तरण है, जिसका अर्थ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण वैश्विक भूखण्ड से है। वैश्वीकरण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एंथनी गिडिन्स ने किया। वैश्वीकरण के विचार को लेकर विद्वानों में अलग-अलग मत हैं। कोई इसे आर्थिक दृष्टि से समझता है तो कोई सामाजिक, राजनीतिक रूप में आंकलन करता है। ‘वैश्वीकरण’ शब्द का अर्थ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ‘संयोजन से है और यह इसी पर बल देता है। भारतीय कथन वासुधैव कुटुंबकम को ही आज सम्पूर्ण विश्व वैश्वीकरण के माध्यम से चरितार्थ कर रहा है। सामान्य अर्थ में इसका अभिप्राय सम्पूर्ण विश्व एक परिवार के रूप में एकीकृत होकर अपनी भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक दूरियों को मिटाकर मानव समाज के एकीकरण की प्रक्रिया को पूर्ण करना है।
वैश्वीकरण ने भौगोलिक दूरियों को कम किया है साथ-साथ प्रादेशिक सीमाओं का महत्व भी निरंतर कम होने लगा है।
हेवुड बताते हैं कि वैश्वीकरण ने ‘स्थानीय तत्व को ‘राष्ट्रीय’ एवं ‘राष्ट्रीय’ तत्व को ‘वैश्वीकरण तत्व के अधीन नहीं किया है बल्कि स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्वीकरण स्तरों पर सभी प्रकार की प्रक्रियाओं में सामंजस्य पैदा किया है। यह मात्र वस्तुओं, सूचनाओं, मानव संसाधनों का स्वतंत्र आदान-प्रदान नहीं है अपितु यह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, संस्कृतिक आदि रूपों का लोगों व राष्ट्रों के मध्य संयोजक है। वैश्वीकरण एक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है, जिसका प्रभाव संस्कृति, प्रशासन तथा देश की आंतरिक नीतियों पर पड़ता है।
रॉबर्टसन के अनुसार, “वैश्वीकरण एक ऐसी अवधारणा है जिसका सम्बन्ध विश्व के सिकुड़ने तथा पूरे विश्व की चेतना और घनिष्ठता से है।” साधारण शब्दों में कह सकते है कि वैश्वीकरण एक गांव है जहाँ लोगो के बीच सामाजिक और आर्थिक व्यवहार परस्पर निर्भरता पर आधारित है।
निजीकरण की विशेषताएं (nijikaran ki visheshta)
(1) निजी उपक्रम की स्थापना देश या विदेश के किसी भी व्यक्ति द्वारा की जा सकती है।
(2) निजी उपक्रमों पर निजी क्षेत्र का स्वामित्व होता है।
(3) निजी उपक्रम भी सरकारी नियमों के अनुसार ही संचालित होते हैं।
(4) निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
(5) निजी क्षेत्र बाजार में मांग के अनुसार काम करते हैं।
निजीकरण के लाभ (Nijikaran ke labh)
प्राइवेटाइजेशन के फायदे इस प्रकार हैं–
(1) उत्पादन एवं उत्पादक क्षमता में वृद्धि होगी।
(2) निवेश के क्षेत्र में वृद्धि होगी।
(3) बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही हैं।
(4) अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सुधार होने लगा है।
(5) जीडीपी के आकार में वृद्धि होगी।
निजीकरण की हानियाँ या नुकसान (Nijikaran ki haniyaan)
निजीकरण की प्रमुख हानियां या नुकसान इस प्रकार है –
(1) सामाजिक हित के स्थान पर स्वहित का महत्व बढेगा।
(2) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कमी होगी।
(3) वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य बढ़ जाएगा।
(4) गरीब वर्ग को और अधिक संघर्ष करना पड़ेगा।
बैंक निजीकरण के नुकसान (Disadvantages of Bank Privatization in hindi)
बैंकों के निजीकरण के नुकसान इस प्रकार हैं –
(1) प्राइवेटाइजेशन होने के बाद बैंक की नौकरी में आरक्षण खत्म हो जाएगा, जिससे कमजोर वर्ग को नौकरी पाने काफी मुसीबत होगी!
(2) सरकारी बैंकों के प्राइवेटाइजेशन होने से युवाओं को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा, उनके लिए सरकारी रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे।
(3) गरीब जरूरतमंद लोगों को बैंक से बाहर कर दिया जाएगा और अमीर लोगों को अधिक सेवाएं प्रदान की जाएंगी।
(4) दिव्यांग व्यक्ति को बैंक में नौकरी नहीं मिलेगी।
रेलवे निजीकरण के नुकसान (Railway nijikaran ke nuksan)
(1) रेलवे के प्राइवेटाइजेशन के कारण किराये में वृद्धि हो सकती हैं, क्योकिं निजी क्षेत्र लाभ पर आधारित होतें हैं।
(2) रेलवे के प्राइवेटाइजेशन के कारण सरकारी रोजगार में कमी आयेगी और प्रभावशाली लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा।
(3) चूंकि निजी क्षेत्र जिम्मेदारी लेने से बचते हैं, जिससे जनकल्याण के अनदेखी हो सकती हैं।
प्रश्न :- भारत में प्राइवेटाइजेशन की शुरुआत कब हुई?
उत्तर :- भारत में प्राइवेटाइजेशन की शुरुआत 1991 से मानी जाती हैं!
प्रश्न :- 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कब किया गया?
उत्तर :- 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण 19 जुलाई 1969 किया गया! पचास करोड़ रुपये से ज्यादा की पूंजी वाले निजी बैंकों का तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण कर दिया था।
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