गृहविज्ञान

अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएँ, आवश्यकता, महत्व, प्रकार

अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा
अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा

अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा

सामाजिक शोध एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। प्रत्येक शोध का कोई न कोई उद्देश्य होता है। इन उद्देश्यों को निश्चित समयावधि में प्राप्त करने के लिए प्ररचना का निर्माण अति आवश्यक है। रचना के निर्माण से श्रम तथा समय की बचत भी होती है। एकॉफ ने प्ररचना की तुलना भवन निर्माण की प्रक्रिया से की है। जिस प्रकार भवन निर्माण से पूर्व उसकी रूपरेखा बना ली जाती है ठीक उसी प्रकार शोध प्रारंभ करने से पूर्व उसकी भी रूपरेखा बना ली जाती है। यही शोध प्ररचना है। प्ररचना का अर्थ योजना बनाना है। अर्थात् प्ररचना पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया है ताकि परिस्थिति पैदा होने पर इसका प्रयोग किया जा सके। यह सूझ-बूझ एवं पूर्वानुमान की प्रक्रिया है। जिसका उद्देश्य अपेक्षित परिस्थिति पर नियंत्रण रखना है। शोध प्ररचना में शोध की समय सीमा, उद्देश्य, सम्बन्धित तथ्यों के संकलन की विधियाँ, उपलब्ध संसाधनों की स्थिति, शोध के विषय क्षेत्र आदि का निर्धारण किया जाता है।

जहोवा के शब्दों में, “अनुसंधान प्ररचना आँकड़ों के संकलन तथा विश्लेषण की दशाओं की उस व्यवस्था को कहते हैं जिसका लक्ष्य अनुसंधान के उद्देश्य की प्रासंगिकता तथा कार्यविधि की मितव्ययिता का समन्वय करना है।” शोध प्ररचना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य सीमित संसाधनों में समस्या से संबंधित तथ्यों अथवा सूचनाओं का वास्तविक संकलना करना तथा उन्हें एक रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करने तक की संपूर्ण क्रियाओं का निर्धारण करना है।

अनुसंधान के उद्देश्य के अनुसार अध्ययन विषय के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करने के लिए पहले से ही योजना की रूपरेखा बना ली जाती है, उसे अनुसंधान या रचना कहा जाता है। एकॉफ ने संरचना का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, “निर्णय क्रियान्वित करने की स्थिति आने से पहले ही निर्णय निर्धारित करने की प्रक्रिया को प्ररचना कहा जाता है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि उद्देश्य प्राप्ति से पहले उद्देश्य के अनुसार अनुसंधान कार्य की जो रूपरेखा बनायी जाती है वह अनुसंधान प्ररचन कहलाती है। जब यह अनुसंधान कार्य किसी सामाजिक घटना या समस्या से संबंधित होता है तो इसे सामाजिक अनुसंधान की प्ररचना कहा जाता है।”

अनुसंधान प्ररचना की विशेषताएँ

अनुसंधान प्ररचना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. इसका निर्माण अनुसंधान कार्य प्रारंभ करने से पूर्व होता है।

2. अनुसंधान प्ररचना का प्रत्यक्ष संबंध अनुसंधान से है।

3. अनुसंधान प्ररचना सामाजिक अनुसंधान की जटिल प्रकृति को सरल बनाती है।

4. अनुसंधान प्ररचना अनुसंधानकर्ता का दिशा निर्देशन करती है।

5. अनुसंधान प्ररचना अनुसंधान प्रक्रिया की परिस्थतियों को नियंत्रित करती है।

अनुसंधान प्ररचना की आवश्यकतायें

अनुसंधान प्ररचना की आवश्यकतायें निम्नलिखित हैं-

1. समस्या अथवा विषय के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिये।

2. तथ्यों के संस्थापन हेतु उचित एवं पर्याप्त योजना उपलब्ध होनी चाहिये।

3. तथ्य विश्लेषण हेतु योजना सविचार बनायी जानी चाहिये।

4. अच्छे एवं आवश्यक तर्कों का प्रयोग अनुसंधान में विभिन्न तथ्यों तथा घटनाओं को प्रभावित करने हेतु किया जाना चाहिये।

5. तथ्य प्रासंगिक तथा स्थायी होने चाहिये।

6. निदर्शन प्रतिनिधिपूर्ण होना चाहिये।

7. तथ्य संकलन हेतु विस्तृत योजना उपलब्ध होनी चाहिये।

अनुसंधान प्ररचना का महत्व

अनुसंधान प्ररचना के महत्व को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

1. अनुसंधान प्ररचना परिकल्पनाओं के निरूपण में सहायक होती है।

2. अनुसंधान प्ररचना से नवीन जानकारी मिलती है।

3. अनुसन्धान प्ररचना सामाजिक महत्व की समस्याओं की ओर अनुसन्धानकर्ता को प्रेरित करती है।

4. अनुसन्धान प्ररचना का निर्माण अनिश्चित समस्याओं को निश्चितता प्रदान करता है।

5. अनुसन्धान प्ररचना समस्या की तात्कालिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में सूचनायें प्रदान करती है।

6. अनुसन्धान प्ररचना तथ्य संकलन में होने वाली त्रुटियों को कम करती है।

अनुसंधान प्ररचना के प्रकार

सामाजिक अनुसंधान प्ररचना के अनेक प्रकार हैं और अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सबसे अधिक उपयुक्त इनमें से किसी प्रकार को चुन लेता है। यों तो समस्त अनुसन्धान का आधारभूत उद्देश्य ज्ञान की पूर्ति है, परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति विभिन्न प्रकार से हो सकती है इसीलिये उसी के अनुसार अनुसन्धान प्ररचना का रूप भी भिन्न-भिन्न होता है। कुछ भी हो, अनुसन्धान प्ररचना प्रमुख रूप से निम्नलिखित चार प्रकार की होती है-

1. अन्वेषणात्मक या निरूपणात्मक प्ररचना 2. वर्णनात्मक प्ररचना 3. निदानात्मक प्ररचना 4. प्रयोगात्मक प्ररचना।

1. अन्वेषणात्मक या निरूपणात्मक प्ररचना

जब शोधकर्ता किसी ऐसे विषय का शोध करता है जिसमें उपकल्पना का निर्माण कठिन होता है, तब अन्वेषणात्मक शोध प्ररचना का निर्माण किया जाता है। जैसा कि सेल्ट्जि ने लिखा है, “अन्वेषणात्मक शोध प्ररचना उस अनुभव को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है जो कि अधिक निश्चित अनुसंधान के हेतु सम्बद्ध प्राकल्पना के निरूपण में सहायक होगा।” शोध के विषय के चयन के उपरान्त प्राकल्पना के निर्माण में इस प्रकार की प्ररचना अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इस शोध प्ररचना द्वारा किसी सामाजिक घटना अथवा परिस्थिति के अन्तर्निहित कारणों की खोज की जा सकती है। सामाजिक अनुसन्धान में अन्वेषणात्मक अध्ययन का महत्व उसके कार्यों के कारण है। अन्वेषणात्मक अध्ययन में सात प्रमुख प्रयोग या कार्य हैं, जो निम्नलिखित प्रकार हैं-

(1) पूर्व निर्धारित उपकल्पना का तात्कालिक स्थितियों के सन्दर्भ में परीक्षण करना।

(2) विभिन्न अनुसन्धान प्रणालियों के प्रयोग की सम्भावनाओं का स्पष्टीकरण करना।

(3) सामाजिक महत्व की समस्याओं की ओर अनुसन्धानकर्ता को प्रेरित करना।

(4) अनुसन्धान कार्य को प्रारम्भ करना।

(5) विज्ञान की सीमाओं में विस्तार करके उसके क्षेत्र का विकास करना।

2. वर्णनात्मक प्ररचना

समस्या से सम्बन्धित सम्पूर्ण तथ्यों को एकत्रित करके उस का विस्तृत परिचय तथा वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करना वर्णनात्मक अध्ययन का मुख्य उद्देश्य है। चुनी हुई समस्या के सम्बन्ध में पूर्ण तथा यथार्थ सूचनायें प्राप्त करना वर्णनात्मक अध्ययन की विशेषता है। इस प्रकार के अध्ययन में किसी समूह अथवा समुदाय का सर्वांगीण अथवा विस्तृत अध्ययन किया जाता हैं उदाहरण के लिये, किसी समुदाय की जनसंख्या, आयु समूह, प्रजातीय, लक्षण, शारीरिक और मानसिक स्वस्थ, शिक्षा, आवास व्यवस्था आदि का अध्ययन अथवा किसी समूह या समुदाय का सामाजिक संगठन तथा व्यवहार प्रतिमानों का अध्ययन वर्णनात्मक प्रकार का अध्ययन कहलाता है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण, सामूहिक मान्यताओं तथा भावी स्थितियों में लोगो की क्रियाओं का पूर्वानुमान भी वर्णनात्मक अध्ययन के अर्न्तगत आते हैं। भिन्न-भिन्न घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करने के लिये भी वर्णनात्मक अनुसन्धान उपयोगी होता है। वर्णनात्मक अध्ययन किसी भी अनुसन्धान प्रणाली से किया जा सकता है। प्रमुख विद्वानों ने इस प्रकार के अध्ययनों में निम्नलिखित प्रणालियों की सहायता से सूचनायें एकत्रित की हैं-

(1) साक्षात्कार, (2) प्रश्नावली, (3) व्यवस्थित प्रत्यक्ष अवलोकन, (4) सामुदायिक रिकॉर्ड का विश्लेषण, (5) सहभागी अवलोकन।

वर्णनात्मक प्ररचना के चरण (Steps of Descriptive Design)

(i) अध्ययन के उद्देश्यों का निरूपण (Formutatuting the Objectives of the Study)- सर्वप्रथम खोज से सम्बन्धित मौलिक प्रश्नों की स्पष्ट व्याख्या की जाती है, ताकि असम्बद्ध तथ्यों का संकलन न हो और अभिनति (Bias) से अध्ययन सुरक्षित भी रहे। अध्ययन का उद्देश्य स्पष्ट कर देने से ये दोनों बातें सम्भव हैं।

(ii) तथ्य-संकलन पद्धति की रूपरेखा (Designing the Method of Data Collection)- अध्ययन के उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या करने के उपरांत आवश्यक सामग्री एकत्रित करने के लिए अध्ययन-पद्धति का चुनाव किया जाता है। भिन्न-भिन्न अनुसंधान-पद्धतियों के अपने- अपने गुण हैं। समस्या तथा उद्देश्य के अनुसार सूचना संकलन के लिए सर्वाधिक सहायक प्रणालियों का चुनाव अध्ययन की प्रारम्भिक सफलता है।

(iii) निदर्शन का चुनाव (Selection of Sample) – समूह के प्रत्येक सदस्य का अध्ययन करना अत्यन्त कठिन होता है, अतः समस्त जनसंख्या की कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का अध्ययन करके समग्र समूह के दृष्टिकोणों और व्यवहार के स्वरूपों की व्याख्या की जाती है। इन प्रतिनिधि इकाइयों के चुनाव अर्थात निदर्शन के चुनाव में भी अभिनति से बचाव रखना आवश्यक है।

(iv) सामग्री का संकलन तथा पड़ताल (Collection and Scuritiny of Data)- सामग्री संकलन का कार्य वर्णनात्मक अध्ययन में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। साक्षात्कारकर्त्ता अथवा अवलोकनकर्ता की ईमानदारी तथा परिश्रम से ही शुद्ध तथा यथार्थ सूचनायें एकत्रित की जा सकती हैं, अतः सामग्री संकलन के समय भी कार्यकर्ताओं का नियमित निरीक्षण होते रहना चाहिए। एकत्रित सामग्री की जांच-पड़ताल भी अत्यन्त आवश्यक कार्य है। विश्वसनीयता, स्पष्टता, सम्पूर्णता तथा निरंतरता के लिए संकलित सूचना की पड़ताल वर्णनात्मक अध्ययन का महत्वपूर्ण चरण है।

(v) परिणामों का विश्लेषण (Analysis of the Results) – परिणामों के विश्लेषण का अर्थ है, संकलित सामग्री का समूहों के अनुसार वर्गीकरण, सारणीयन तथा सांख्यिकीय विवेचन, आदि । शुद्धता तथा परीक्षण इस कार्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकतायें हैं। अतः सारणीयन तथा सांख्यिकीय विवेचन में तो प्रमुख रूप से निरीक्षण की आवश्यकता होती है।

(vi) प्रतिवेदन / विज्ञप्तिकरण (Reporting)- परिणामों के विश्लेषण के पश्चात् विज्ञप्ति के रूप में निष्कर्षों का प्रकाशन भी किया जाता है।

3. निदानात्मक प्ररचना

सामाजिक अनुसंधान मूल रूप से दो प्रकार की समस्याओं- से सम्बन्धित है। एक तो सामान्य सामाजिक नियमों की खोज करने तथा दूसरी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के समाधान से सम्बन्धित हैं निदानात्मक अध्ययन वे अध्ययन हैं जो किसी विशिष्ट समस्या के निदान की खोज करते हैं निदानात्मक अध्ययन में समस्या का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन किया जाता है। निदानात्मक अध्ययन में प्रमुख रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

(1) निदानात्मक अध्ययन, जैसा कि शब्दों से ही स्पष्ट है केवल प्राप्ति के उद्देश्य से नही होता, अपितु किसी सामाजिक परिस्थिति के उपचार से सम्बन्धित होता है।

(2) उपचार अथवा निदान प्रस्तुत करने के लिये लक्षण अथवा परिस्थिति को उत्पन्न करने वाले कारकों का पता लगाना अनिवार्य है। अतः निदानात्मक अध्ययन कारकों का भी अध्ययन करता है।

(3) निदानात्मक अध्ययन सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक सम्बन्धों उत्पन्न उन सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित रहता है जिनको दूर करना तत्काल आवश्यक होता है।

(4) निदानात्मक अध्ययन एक स्पष्ट तथा निश्चित उपकल्पना के द्वारा संचालित होता है। वास्तव में, निदानात्मक अध्ययन का तात्कालिक उद्देश्य होता हे और यह वर्णनात्मक अध्ययन के बाद की कड़ी है।

4. परीक्षात्मक अथवा प्रयोगात्मक प्ररचना (Experimental Design)

भौतिक विज्ञानों की भाँति निश्चित, स्पष्ट तथा यथार्थ परिणाम प्राप्त करने के लिए सामाजिक समस्याओं की प्ररचनाओं में परीक्षणात्मक अध्ययन की आवश्यकता पर बहुत बल दिया जा रहा है। परीक्षण की परिभाषा करते हुए ऐकॉफ ने कहा है-“परीक्षण एक क्रिया है और ऐसी क्रिया है जिसे हम पूछताछ कहते हैं।”

चेपिन के अनुसार, ‘समाजशास्त्रीय अनुसंधान में परीक्षणात्मक प्ररचना की धारणा नियंत्रण की दिशाओं में अवलोकन के द्वारा मानव-सम्बन्धों के व्यवस्थित अध्ययन की ओर संकेत करती है।’ “The concept of experimental design in sociological research refes to systematic study of human relations by making observation under conditons of control.” -Chapin

परीक्षणात्मक प्ररचना के प्रकार (Types of Experimental Design)

(i) पश्चात् परीक्षण (After-only Experiment) – इसके अन्तर्गत दो समान समूहों में से एक समूह को नियंत्रित दशाओं में रखा जाता है जिसे नियंत्रित समूह (Controlled group) कहते हैं तथा दूसरे पर परीक्षण किया जाता है। दूसरे समूह को परिस्थिति परिवर्तन में प्रतिक्रिया करने में स्वतंत्र रखा जाता है। बाद में दोनों समूहों के अन्तर को मापा जाता है और यह अन्तर परिवर्तन करने वाले कारकों का प्रभाव मान लिया जाता है।

(ii) पूर्व-पश्चात् परीक्षण (Before after Experiment) – इस परीक्षण के अनुसार एक ही समूह का पहले अध्ययन किया जाता है और फिर परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के पश्चात् फिर अध्ययनं किया जाता है तथा जो अन्तर पश्चात् के अध्ययन के आधार पर स्पष्ट होता है, वही परीक्षण सम्बन्धी दशाओं का परिणाम होता है।

(iii) कार्यान्तर परीक्षण (Ex-post Factor Experiment) – किसी ऐतिहासिक घटना का अध्ययन करने के लिए इस प्रकार का परीक्षण किया जाता है। चूंकि ऐतिहासिक घटना को दुहराना अनुसंधानकर्त्ता के वश में नहीं होता है, अतः वह दो समूहों का चुनाव करता है, जिनमें एक में वह घटना हुई होती है और दूसरे में नहीं। इन दोनों समूहों की विगत परिस्थितियों की तुलनात्मक खोज की जाती है और फिर उस घटना के कारकों का अनुमान लगाया जाता है। दूसरे शब्दों में, समूह की वर्तमान अवस्थाओं में जो अन्तर पाया जाता है, वह भूतकालीन परिवर्तनों अथवा अन्तरों के कारण हुआ समझा जाता है।

जॉन मेज (John Madge) ने तीन प्रकार के प्रमुख परीक्षणात्मक अध्ययनों का उल्लेख किया है- (क) चुनाव-प्रसार विधि का परीक्षण (Experiment in Electioneering Technique), जो पैंसलवेनिया में किया गया। ( ब ) सीरिया का ग्रामीण स्वास्थ्य परीक्षण (Rural Hygiene Experiment in Syria), (स) निजी तथा पाले गये बच्चों की बुद्धि की तुलना (Comparison of Intelligence of won and foster children)।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि उपरोक्त चारों प्रकार की अनुसंधान प्ररचनाएँ अपने- अपने गुणों के आधार पर उपयोगी हैं। अनुसंधानकर्ता अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी प्ररचना का चुनाव करके खोज कर सकता है। जहोदा तथा अन्य (Johoda and others) के शब्दों में, “वास्तव में समस्या की प्रकृति तथा क्षेत्रीय ज्ञान की मात्रा अध्ययन में सर्वाधिक उपयुक्त प्रकार को निर्धारित करती है।” सामाजिक समस्याएँ परस्पर इतनी उलझी हुई होती है कि किसी विशेष समस्या के अध्ययन के लिए किसी विशेष प्ररचना को सर्वदा के लिए निश्चित नहीं किया जा सकता है। भारत में सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र में अभी मुख्यतः विवेचनात्मक या वर्णनात्मक प्ररचनायें (Descriptive Design) का ही प्रयोग अधिक हुआ है।

अनुसंधान प्ररचना की आवश्यकताएं/अनिवार्यताएं

1. समस्या या विषय के उद्देश्य सर्वथा सुस्पष्ट होने चाहिए।

2. तथ्यों के सत्यापन हेतु समुचित एवं पर्याप्त योजना होनी चाहिए।

3. तथ्यों को स्थायी और प्रासंगिक होना चाहिए।

4. तथ्यों के विश्लेषण हेतु योजना सोच-विचार कर बनानी चाहिए।

5. निदर्शन को प्रतिनिधित्वपूर्ण होना चाहिए।

6. उत्तम तर्कों का प्रयोग शोध में विभिन्न तथ्यों एवं घटनाओं को प्रभावित करने के लिए करना चाहिए।

7. तथ्यों के संकलन के लिए विस्तृत योजना सुलभ होनी चाहिए।

अनुसंधान प्ररचना का महत्व  (Importance of Research Design )-

1. शोध प्ररचना प्राक्कल्पनाओं के निरूपण में सहायता देती हैं।

2. शोध प्ररचना से नई जानकारी प्राप्त होती है।

3. शोध प्ररचना तथ्य संकलन में होने वाली त्रुटियों को कम कर देती है।

4. शोध प्ररचना समस्या की तात्कालिक परिस्थितियों के बारे में सूचनाएं प्रदान करती है।

5. शोध प्ररचना अनुसंधानकर्त्ता को सामाजिक महत्ता वाली समस्याओं की ओर उत्प्रेरित करती है।

6. शोध प्ररचना का निर्माण अनिश्चित समस्याओं से मुक्ति प्रदान करके अनुसंधानकर्त्ता को निश्चयात्मकता प्रदान करता है।

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