B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

परीक्षण की वैधता से आप क्या समझते हैं? वैधता के प्रकार एवं वैधता ज्ञात करने की विधियाँ

परीक्षण की वैधता से आप क्या समझते हैं? (What do you understand by validity of test?)

शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी परीक्षण का निर्माण छात्रों के कुछ विशेष गुणों अथवा योग्यताओं (चरों) के मापन के लिए किया जाता है। यदि कोई परीक्षण छात्रों के उन गुणों अथवा योग्यताओं का मापन करता है जिनके मापन के लिए उसका निर्माण किया गया है तो ऐसे परीक्षण को वैध परीक्षण कहते हैं और उसके इस गुण को उसकी वैधता कहते हैं। उदाहरण के लिए किसी उपलब्धि परीक्षण को लीजिए। यदि यह परीक्षण छात्रों के उस ज्ञान, कौशल एवं भावना का मापन करता है जिनके मापन के लिए यह बनाया गया है तो इसे वैध परीक्षण कहेंगे और इसे इस गुण को इसकी वैधता कहेंगे।

यह देखा गया है कि वैधता कसौटी पर कोई भी परीक्षण पूर्ण रूप से खरा नहीं उतरता, न तो उसमें पूर्ण रूप से वैधता की उपस्थिति होती है और न ही पूर्ण रूप से वैधता की अनुपस्थिति होती है इसलिए अब यह कहा जाता है कि जो परीक्षण उन गुणों अथवा योग्यताओं का मापन, जिनके लिए उसका निर्माण किया गया है जितना अधिक करने में सक्षम होता है वह उतना ही अधिक वैध होता है। क्रोनबेक ने वैधता को इसी रूप में परिभाषित किया है-

किसी परीक्षण की वैधता उसकी वह सीमा है, जिस सीमा तक वह वही मापता है जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।

परन्तु वे गुण है और गुण को गुण के रूप में ही परिभाषित किया जाना चाहिए। अतः वैधता को निम्नलिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए-

यदि कोई परीक्षण उन गुणों अथवा योग्यताओं का मापन करता है, जिनके मापन के लिए उसका निर्माण किया गया है तो परीक्षण के इस गुण को परीक्षण की वैधता कहते हैं।

वैधता के प्रकार

वैधता के प्रकारों के विषय में मापनविदों के भिन्न-भिन्न मत हैं । क्रोनबेक ने वैधता के निम्नलिखित चार प्रकार बताए हैं-

(1) पूर्व कथन वैधता

(3) समवर्ती वैधता

(2) विषय-वस्तु वैधता

(4) रचनात्मक वैधता

फ्रीमेन ने वैधता को निम्नलिखित चार प्रकारों में विभाजित किया है-

(1) क्रियात्मक वैधता

(2) कार्यात्मक वैधता

(3) अवयवात्मक वैधता

(4) आनुभाविक वैधता

हेल्मस्टेडटर ने वैधता को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है-

(1) विषय-वस्तु वैधता

(2) आनुभाविक वैधता

(3) रचनात्मक वैधता

जॉर्डन ने वैधता को मूल रूप में केवल दो भागों में विभाजित किया है—

(1) आन्तरिक वैधता

(2) बाह्य वैधता

अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ ने 1996 में एक मोनोग्राफ प्रकाशित किया। इस मोनोग्राफ में वैधता के निम्नलिखित तीन प्रकार माने गए हैं-

(1) विषय-वस्तु वैधता

(2) कसौटी सम्बन्धित वैधता

(3) रचनात्मक वैधता

वर्तमान में अधिकतर विद्वान इसी वर्गीकरण को उपयुक्त समझते हैं अतः यहाँ इन तीनों प्रकार की वैधता का वर्णन प्रस्तुत है।

1. विषय-वस्तु वैधता (Content Validity)– विषय-वस्तु वैधता से तात्पर्य परीक्षण- की उस वैधता से है जो यह बताती है कि कोई परीक्षण जिन गुणों अथवा योग्यताओं के मापन के लिए बनाया गया है। वह उनका मापन किस सीमा तक करता है और जिस निदर्श के आधार पर इसका निर्माण किया गया है। उस निदर्श में समष्टि के कितने प्रतिनिधि गुण समाविष्ट हैं। विषय-वस्तु वैधता को सुसंगति, आन्तरिक वैधता, वृत्तीय वैधता तथा प्रतिनिधित्वता आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

विषय-वस्तु वैधता की परख करने के लिए कई प्रकार से प्रमाण एकत्रित किए जाते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में इन भिन्न-भिन्न प्रमाणों के आधार पर विषय-वस्तु वैधता को विभिन्न नामों से जाना जाता है । ये हैं-रूप वैधता, तार्किक वैधता, निदर्शन वैधता एवं पद वैधता।

(i) रूप वैधता (Face Validity) – जब किसी परीक्षण को ऊपरी तौर से देखकर ही यह लगता है कि परीक्षण जिन गुणों अथवा योग्यताओं के मापन के लिए बनाया गया है, उनका मापन कर रहा है, तो परीक्षण के इस प्रकार के गुण को रूप वैधता कहते हैं। रूप वैधता का निर्धारण प्रायः विशेषज्ञों की राय के आधार पर किया जाता है।

(ii) तार्किक वैधता (Logical Validity) — जब किसी परीक्षण में यह देखा जाता है कि क्या परीक्षण को तर्क संगत ढंग से बनाया गया है और क्या इसे प्रमाणों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है तो परीक्षण के इस गुण को तार्किक वैधता कहते हैं।

(iii) निदर्शन वैधता (Sampling Validity) – यह वैधता यह प्रदर्शित करती है कि परीक्षण द्वारा माने जाने वाले समष्टि के गुणों को निदर्श के रूप में किस सीमा तक समाविष्ट किया गया है।

(iv) पद वैधता (Item Validity)- पद वैधता से तात्पर्य परीक्षण के पदों की वैधता से होता है अर्थात् परीक्षण के सभी पद उन गुणों अथवा योग्यताओं का मापन करते हैं या नहीं जिनके लिए उस परीक्षण का निर्माण किया गया है। उदाहरणार्थ यदि किसी परीक्षण का निर्माण किसी मानसिक योग्यता को मापने के लिए किया जाए और उसके सभी पद उस मानसिक योग्यता के आयामों को ही मापें तो यह परीक्षण की पद वैधता होगी।

2. कसौटी सम्बन्धित वैधता (Criterian Related Validity)– कसौटी सम्बन्धित वैधता से तात्पर्य परीक्षण के किसी बाह्य कसौटी के साथ सहसम्बन्ध से होता है। यह वैधता दो प्रकार की होती है- समवर्ती वैधता और पूर्वकथन वैधता।

(i) समवर्ती वैधता (Concurrent Validity)- जब किसी परीक्षण को पूर्व निर्मित मानकीकृत परीक्षण, जो उन्हीं गुणों एवं योग्यताओं को मापता है जिन्हें मापने के लिए इस परीक्षण का निर्माण किया गया है, से तुलना कर वैधता को ज्ञात किया जाता है तो इसे उस परीक्षण की समवर्ती वैधता कहते हैं।

समवर्ती वैधता ज्ञात करने के लिए इन दोनों परीक्षणों के मध्य सहसम्बन्ध ज्ञात किया जाता है। यह सहसम्बन्ध मान जितना अधिक होता है, परीक्षण उतना ही अधिक वैध होता है। उदाहरणार्थ यदि परीक्षणकर्त्ता अपने द्वारा निर्मित उपलब्धि परीक्षण की वैधता ज्ञात करने के लिए किसी पूर्व निर्मित मानकीकृत उपलब्धि परीक्षण, जिसकी वैधता एवं विश्वसनीयता संतोषजनक है, को लेकर इन दोनों परीक्षणों को एक ही समूह पर प्रशासित कर प्राप्तांकों के मध्य सहसम्बन्ध ज्ञात करता है तो यह सहसम्बन्ध परीक्षण की समवर्ती वैधता होगी। यह सहसम्बन्ध मान जितना अधिक होता है परीक्षण उतना ही अधिक वैध होता है।

(ii) पूर्वकथन वैधता (Predictive Validity)- जब किसी परीक्षण के प्राप्तांकों का, जिसकी वैधता ज्ञात करनी है, सम्बन्ध किसी भावी कसौटी या परीक्षण से प्राप्त प्राप्तांकों से देखा जाता है, तो इस प्रकार से प्राप्त प्राप्तांकों के मध्य सम्बन्ध को पूर्वकथन वैधता कहते हैं। पूर्वकथन इस बात को बताती है कि परीक्षण छात्रों की भावी सफलता का अनुमान किस सीमा तक लगाने में समर्थ है। उदाहरणार्थ किसी कक्षा में प्रवेश के समय ली गई परीक्षा के प्राप्तांकों एवं कक्षा उत्तीर्ण करने की परीक्षा के प्राप्तांकों में पाए जाने वाले सहसम्बन्ध पूर्वकथन वैधता है।

पूर्वकथन वैधता को ज्ञात करने के लिए सर्वप्रथम परीक्षण, जिसकी वैधता ज्ञात करनी है, को एक निदर्श पर प्रशासित कर प्राप्तांक प्राप्त किए जाते हैं। इसके बाद इतने समय तक इंतजार किया जाता है जब को कसौटी पर प्राप्तांक उपलब्ध हो सकें। इसके बाद पूर्व में प्राप्त प्राप्तांक एवं कसौटी पर प्राप्त प्राप्तांकों के मध्य सहसम्बन्ध ज्ञात किया जाता है । यह सहसम्बन्ध परीक्षण की पूर्वकथन वैधता को दर्शाता है।

3. रचनात्मक वैधता (Construct Validity)- जब परीक्षण में उपस्थित मानसिक गुणों के सैद्धान्तिक विवेचनों के आधार पर छात्रों के व्यवहारों की जाँच कर वैधता ज्ञात की जाती है तो उसे रचनात्मक वैधता कहते हैं। इसे कारक वैधता या गुण वैधता भी कहा जाता है।

किसी परीक्षण की रचनात्मक वैधता ज्ञात करने के लिए उस परीक्षण में विशेष रचना, गुण या सिद्धान्त का होना आवश्यक है। विभिन्न मानसिक गुण; जैसे- -बुद्धि, अभिक्षमता एवं अभिवृत्ति आदि उपकल्पित रचनाएँ हैं। उनमें से प्रत्येक के अनेक अर्थ हैं तथा इन गुणों को रखने वाला व्यक्ति किसी प्रकार का व्यवहार करेगा इसके प्रति विद्वान अलग-अलग राय रखते हैं। अतः इस प्रकार के गुणों की जाँच कुछ परिकल्पनाओं के आधार पर या कुछ सैद्धान्तिक विवेचन के आधार पर की जाती है। रचना किसी गुण के सम्बन्ध में कथित उपकल्पनाओं के आधार पर उस गुणों की व्याख्या है। और इस व्याख्या के आधार पर परीक्षण की रचनात्मक वैधता की जाँच की जाती है इसके लिए निम्नलिखित सोपानों का प्रयोग किया जाता है-

(1) सर्वप्रथम परीक्षण द्वारा मापे जाने वाले गुणों (चरों) को स्पष्ट किया जाता है।

(2) इसके बाद परीक्षण द्वारा मापे जाने वाले गुणों से सम्बन्धित सैद्धान्तिक विवेचन प्रस्तुत किया जाता है।

(3) इसके बाद कुछ सैद्धान्तिक आधारों पर उन व्यवहारों का पूर्वकथन किया जाता है जिनके सम्बन्ध परीक्षण के प्राप्तांकों से होता है।

(4) अन्त में व्यवहारों की पूर्व कथित उपकल्पनाओं का, आँकड़ों का संकलन कर, सत्यापन किया जाता है। यदि उपकल्पना सत्य सिद्ध होती है तो उसे स्वीकार किया जाता है और कहा जाता है कि परीक्षण रचनात्मक वैधता रखता है। यदि उपकल्पना असत्य सिद्ध होता है तो परीक्षण में रचनात्मक वैधता का अभाव होता है।

वैधता ज्ञात करने की विधियाँ

वैधता को ज्ञात करने के लिए वैधता गुणांक की गणना की जाती है। वैधता गुणांक को ज्ञात करने के लिए निम्नांकित विधियों का प्रयोग किया जाता है-

1. सरल सहसम्बन्ध विधि (Simple Correlation Method) – इस विधि में परीक्षण प्राप्तांक और कसौटी प्राप्तांकों के मध्य प्रोडक्ट मुमैन्ट विधि द्वारा सहसम्बन्ध ज्ञात किया जाता है। यदि परीक्षार्थियों की संख्या अधिक होती है तो पीयरसन की स्केटर डाइग्राम विधि का प्रयोग किया जाता है जिसके सूत्र निम्नांकित है-

सरल सहसम्बन्ध विधि

प्राप्त सहसम्बन्ध गुणांक का मान उच्च एवं धनात्मक आने पर परीक्षण की वैधता का स्तर उच्च होता है।

2. द्विपांकित सहसम्बन्ध विधि (Biserial Correlation Method)- जब किसी विशेषता का मापन दो वर्गों, जैसे—समायोजित, सफल-असफल, पसन्द-नापसन्द, सन्तोषजनक असन्तोषजनक एवं उच्च वर्ग-निम्न वर्ग आदि में करना हो तब वैधता गुणांक ज्ञात करने के लिए द्विपांकित सहसम्बन्ध विधि का प्रयोग किया जाता है जिसका सूत्र निम्नांकित हैं-

द्विपांकित सहसम्बन्ध विधि

3. बिन्दु द्विपांकित सहसम्बन्ध विधि (Point Biserial Correlation Method)- कभी-कभी किसी विशेषता को दो वर्गों यथा समायोजित-असमायोजित, सफल-असफल आदि के प्राप्तांकों का वास्तविक द्वि-विभाजन सम्भव नहीं होता है, उस स्थिति में दो वर्गों में भेद केवल एक सूक्ष्म बिन्दु के आधार पर किया जाता है और ऐसे विभाजन को वास्तविक विभाजन मानकर निम्नांकित सूत्र द्वारा सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात किया जाता है। यह सहसम्बन्ध गुणांक उस परीक्षण का वैधता गुणांक होता है।

बिन्दु द्विपांकित सहसम्बन्ध विधि

4. चतुष्कोष्ठिक सहसम्बन्ध विधि (Tetrachoric Correlation) – इस विधि का प्रयोग तब किया जाता है जब दो चर x और y दोनों द्विभाजी एवं सामान्य रूप से वितरित होते हैं; जैसे—बुद्धि एवं सामाजिक समायोजन के मध्य सहसम्बन्ध देखना। लेकिन जब बुद्धि चर एवं समायोजन चर दोनों ही दो-दो वर्गों में क्रमशः औसत से अधिक औसत से कम एवं अधिक समायोजित-समायोजित में विभाजित होते हैं तो इस विधि में अग्रांकित सूत्र द्वारा सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात किया जाता है।

चतुष्कोष्ठिक सहसम्बन्ध विधि

परीक्षण की वैधता ज्ञात करने के लिए कुछ अन्य विधियाँ भी हैं जिनमें उच्च सांख्यिकीय विधि का प्रयोग किया जाता है। उनमें से कुछ विधियाँ हैं- बहु सहसम्बन्ध विधि, प्रत्याशा तालिका विधि, कट ऑफ स्कोर विधि, विभेद भविष्योक्ति विधि एवं कारक विश्लेषण विधि।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment