आर्थिक विकास के रूप में भारत की अर्थव्यवस्था पर हरित क्रान्ति के प्रभाव
पाल एल्बर्ट के शब्दों में, “आर्थिक विकास का सम्बन्ध मुख्य उद्देश्य से होता है. जिसके अन्तर्गत एक देश के द्वारा अपनी वास्तविक आय को बढ़ाने के लिये समस्त उत्पादक साधनों का प्रयोग किया जाता है।”
कृषि के अनेक उत्पादन ऐसे हैं, जिनका हमारे द्वारा निर्यात किया जाता है। बदले में उनसे हमको विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। चाय, तिलहन, तम्बाकू, मसाले, कहवा, रुई, जूट, आलू, गुड़, प्याज एवं सूती वस्त्र आदि का निर्यात हमारे द्वारा किया जाता है। इसके बदले हमको विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। विदेशी मुद्रा के भण्डार का होना भुगतान सन्तुलन एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिये आवश्यक होता है। इस प्रकार कृषि द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुँचाया जाता है। कुटीर उद्योगों के विकास के लिये भी कृषि उत्पादनों पर निर्भर रहना पड़ता है; जैसे- एक किसान के यहाँ कुछ मजदूर आलू के खेत में कार्य करते हैं, जिससे किसान उनको सस्ते दर पर आलू उत्पन्न कराता है। वे मजदूर उन आलुओं से चिप्स बनाकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। इस प्रकार कुटीर उद्योगों की संख्या भारत में अधिक है। सूत कातना, सूत से दरी बनाना, आसन बनाना, चटाई बनाना एवं रस्सी बनाना आदि कुटीर उद्योगों के अन्तर्गत आते हैं। कागज उद्योग लकड़ी पर ही आधारित है। इसी प्रकार चीनी के लिये गन्ना कृषि से प्राप्त किया जाता है। जूट उद्योग के लिये जूट (पटसन), चीनी उद्योग के लिये गन्ना तथा अन्य उद्योगों के लिये भी कच्चा माल कृषि से ही प्राप्त होता है। भारतीय कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है। आज कृषि के आधार पर ही अनेक उद्योगों को कच्चा माल मिलता है तथा अन्य उद्योगों में भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि का योगदान होता है। कृषि उत्पादों के आधार पर ही भौतिक विकास सम्भव होता है। आज भवनों के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग तथा कागज उद्योग के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग इस तथ्य को बताता है कि भौतिक एवं आर्थिक विकास के मूल में कृषि ही विद्यमान है।
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