विद्यालय में स्वास्थ्य शिक्षा का महत्त्व
शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए जीवन की आधारशिला है। व्यक्ति के प्रकृत रूप का सच्चे मानवीय रूप में विकास ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। शिक्षा मस्तिष्क को स्वस्थ बनाती है। इस प्रकार, शिक्षा की सार्थकता व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास में निहित है। कहते हैं कि स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में ही निवास करता है। स्वस्थ शरीर तभी सम्भव है, जब यह गतिशील रहे, खेल-कूद, व्यायाम आदि से इसे पुष्ट बनाया जाय। इसीलिए प्रत्येक देश में स्वाभाविक रूप से खेल-कूद और व्यायाम पाये जाते हैं।
स्वास्थ्य जीवन का आधार
मानव जीवन शरीर से है। हमारे यहाँ तो कहा भी गया है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधन।’ सच ही है- शरीर के होने पर ही अन्य कोई भी साधन-सम्पन्न हो सकते हैं। ‘जान है तो जहान है।’ यहाँ पर शरीर अथवा जान से तात्पर्य है स्वस्थ शरीर। इसलिए प्रत्येक काल में, हर देश, हर समाज में स्वास्थ्य की महत्ता पर बल दिया गया है। इसे जीवन का सबसे बड़ा सुख मानते हुए कहा गया है-‘पहला सुख नीरोगी काया’। इसी सुख की प्राप्ति खेल-कूद और व्यायाम से होती है।
क्रीड़ा एवं व्यायाम के विभिन्न प्रकार
शरीर को शक्तिशाली, स्फूर्तियुक्त और ओजस्वी तथा मन को प्रसन्न बनाने के लिए जो कार्य किए जाते हैं, उसे हम खेल कूद, क्रीड़ा या व्यायाम कहते हैं। खेल-कूद और व्यायाम से शरीर में तीव्र गति से रक्त-संचार होता है, अतः दौड़, क्रिकेट, फुटबाल, बैडमिण्टन, टेनिस, हॉकी आदि खेल इसी दृष्टि से खेले जाते हैं। इन खेलों के लिए विशेष रूप से लम्बे-चौड़े मैदान की आवश्यकता होती है; अतः ये खेल सब लोग सब स्थानों पर सुविधापूर्वक नहीं खेल सकते, इसलिए वे अपने शरीर को पुष्ट करने के लिए कुछ नियमित व्यायाम करते हैं; जैसे-प्रातः तथा सायं खुली हवा में भ्रमण करना, दण्ड-बैठक लगाना, मुगदर घुमाना, अखाड़े में कुश्ती लड़ना, आसन करना आदि। इस प्रकार खेल-कूद और व्यायाम के क्षेत्र बहुत विस्तृत हैं और खेलों तथा व्यायाम के विभिन्न रूप हैं।
शिक्षा में क्रीड़ा एवं व्यायाम का महत्त्व
संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तक का ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक और मानसिक सर्वांगीण विकास से हैं। सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेल-कूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेल-कूद की मुख्य भूमिका है।
खेल-कूदों के द्वारा हम नेतृत्व, सहिष्णुता, उदारता, विनयशीलता आदि गुणों को सीखते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों का अतिक्रमण करना भी खेलों के द्वारा ही आता है, जिससे धैर्य और साहस का विकास होता है तथा सामूहिक सद्भाव और भाई-चारे की भावना आती है। जीवन की विषम परिस्थितियों को हम खिलाड़ी की भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं। शिक्षा की साधना के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को भी हम खेल में आने वाली बाधाओं की तरह हँसते-हँसते पार कर लेते हैं और सफलता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि व्यक्तित्व के विकास के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे खेलों के द्वारा ही विकसित होते हैं।
उपसंहार
खेल-कूद से क्षमता, उल्लास और स्फूर्ति मिलती है। इससे जीवन रसमय बन जाता है। जीवन-रस से विहीन शिक्षा निरर्थक है; अतः शिक्षा को जीवन्त और सार्थक बनाये रखने के लिए खेल-कूद महत्त्वपूर्ण है। समस्त विश्व ने इस महत्त्व को स्वीकार किया है तथा प्रत्येक देश में खेलकूद शिक्षा के अनिवार्य अंग बन गये हैं। हमारे देश में इस दिशा में कार्य बहुत कम हुआ है। बाल-विद्यालयों में खेल-कूद की व्यवस्था का अभाव है। देश की भावी पीढ़ी को सुयोग्य, सुशिक्षित और विकासोन्मुख बनाने के लिए शिक्षा में खेल-कूद का समन्वय अत्यावश्यक है।
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