राजनीति विज्ञान / Political Science

लोकमान्य तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार | तिलक भारतीय अशान्ति के अग्रदूत थे | तिलक उग्रवाद के मसीहा थे

लोकमान्य तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार
लोकमान्य तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार

लोकमान्य तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार अथवा तिलक भारतीय अशान्ति के अग्रदूत थे अथवा तिलक उग्रवाद के मसीहा थे

भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन, बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में साथ-साथ दो धाराओं में चला-उदारवादी और उग्रवादी उदारवादी धारा का नेतृत्व गोपालकृष्ण गोखले ने किया और उग्रवादी धारा का लोकमान्य तिलक ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रखर और तेजस्वी रूप प्रदान किया। वह राष्ट्रीय आन्दोलन को सम्भ्रान्त वर्ग के बैठक-कमरों से निकाल लाए और उसे सम्पूर्ण जन-जन का आंदोलन बना दिया। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में तिलक “भारतीय राष्ट्रवाद के पिता थे।” वैलन्टाइन शिरोल ने तिलक को “भारतीय अशांति का जनक” कहा है। डॉ० नागपाल के शब्दों में, “तिलक एक राजनीतिक चिंतक थे। वह एक राजनीतिक कर्मयोगी भी थे। उनके राजनीतिक चिन्तन के आदर्शों में तथा उन आदर्शों को प्राप्त करने की तरफ में सीधा सम्बन्ध था।”

लोकमान्य तिलक ने समय-समय पर स्वराज्य तथा उसे प्राप्त करने के बारे में जो विचार रखे, उनके अध्ययन के आधार उन्हें सरलता से उग्रवाद का मसीहा कहा जा सकता है।

स्वराज्य सम्बन्धी विचार

लोकमान्य तिलक से पूर्व यद्यपि भारत में आन्दोलन धीरे-धीरे चल रहा था, तथापि वह बड़ा विनम्रता और याचनाओं का आन्दोलन था। भारत के अधिकांश नेता यह मानते थे कि भारत में ब्रिटिश राज एक वरदान है। वे मानते थे कि धीरे-धीरे अंग्रेजों से यह माँग की जाए कि भारत में राजनीतिक व आर्थिक सुधार किए जाएँ तथा भारतीयों को शासन में अधिक से अधिक अवसर प्रदान किए जाए। तिलक ने इस लक्ष्य को भारत के लिए बहुत छोटा और अपमानजनक माना। वह पहले विचारक थे जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य ‘स्वराज्य’ है। उन्होंने घोषणा की कि “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे।”

परन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि स्वराज्य से उनका तात्पर्य क्या था? जिस स्वराज्य को लोकमान्य ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य बताया था, उसकी उनके मन में क्या कल्पना थी। इस सम्बन्ध में तिलक का मत था कि स्वराज्य का अर्थ है, भारतीयों का भारत पर शासन। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-“स्वराज्य का सार यह है कि हमें अपने घरेलू मामलों का प्रबन्ध अपनी इच्छानुसार करना चाहिए।’

अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए तिलक ने कहा- “हमें यह बताया जाता है कि वर्तमान व्यवस्था अच्छी है, और प्रशासकों की नियुक्ति इंग्लैण्ड में कुछ नियमों के अनुसार की जाती है। तर्क के लिए मैं यह स्वीकार कर लेता हूँ कि यह व्यवस्था सचमुच बहुत अच्छी है, कितनी ही अच्छी क्यों न हो आखिर यह दूसरों की बनाई हुई है, जनता की नहीं। जनता को इस परन्तु यह शक्ति को अपने हाथों में लेना चाहिए। यह स्वराज्य का आधारभूत सिद्धान्त है।” स्वराज्य की इसी धारणा को और अधिक स्पष्ट करते हुए तिलक ने लिखा है-“स्वराज्य के प्रश्न का वास्तव में अर्थ है कि हमारे मामलों पर नियन्त्रण करने की शक्ति किसके हाथों में रहे? मैं कह चुका हूँ कि हम राजा (क्राउन) को नहीं हराना चाहते, वरन् हमारी माँग है कि हमारा शासन प्रवन्ध नौकरशाही के हाथों में न रहे। वरन्ं वह हमारे हाथों में आ जाए।”

इस सम्बन्ध में तिलक का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था। वह केवल सुधार नहीं चाहते थे। वह चाहते थे कि भारत का प्रशासन पूरी तरह भारतीयों के हाथ में हो। भारत में सम्प्रभु संसद हो जिनके सभी सदस्य निर्वाचित हों। डॉ. लक्ष्मणसिंह के शब्दों में– ‘लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य की धारणा में जिस प्रकार उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना की उससे स्पष्ट है कि वह लोकतांत्रिक स्वराज्य के हामी थे।’

तिलक का तर्क था कि जब ब्रिटेन में पूरी तरह निर्वाचित सरकार है, तो भारत में भी पूरी निर्वाचित सरकार होनी चाहिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा चलाया गया शासन कहीं भी जनता का भला नहीं करता। वह भारत का भला नहीं कर सकता। इसलिए तिलक मानते है कि भारत का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए- स्वराज्य उनके शब्दों में—स्वराज्य के बिना हमारी जिन्दगी और हमारा धर्म व्यर्थ है। अर्थात् लोकमान्य तिलक स्वराज्य को अपने जीवन और अपने धर्म से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे।

साधन सम्बन्धी विचार

तिलक ने केवल यही नहीं कहा कि “स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।” बल्कि इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि “हम इसे लेकर रहेंगे।” उनकी मान्यता थी कि स्वराज्य प्रार्थना करने और याचना करने से नहीं मिलता। स्वराज्य के लिए संगठित होना होगा, संघर्ष करना होगा। इस संघर्ष में भारत की विजय अवश्यम्भावी है। तिलक ने कहा था- यदि दो शताब्दी पहले शिवाजी स्वराज्य स्थापित कर सके, तो हम भी एक दिन स्वराज्य लेकर रहेंगे।

तिलक उग्रवादी थे। वह संवैधानिक और याचनावादी उपायों के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि ऐसे ढीले-पोले कार्यक्रमों और कमजोर कदमों से हम कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। अतः हमें कठोर सशक्त पग उठाने चाहिए। उनका कहना था “भीख माँगने से कभी स्वराज्य नहीं मिलता। “

स्वराज्य प्राप्ति के लिए तिलक के अनुसार सबसे पहली शर्त है जन जागरण। जब तक सम्पूर्ण जनता जाग कर अपना कर्त्तव्य नहीं पहचानती, लम्बे संघर्ष के लिए तैयार नहीं होती, तब तक भारत को स्वराज्य नहीं मिल सकता। विजयी शक्ति का वास जनता में होता है जनता को जगाने के तिलक ने स्वयं ‘गणेश उत्सव’ और शिवाजी महोत्सव मनाने का अभियान चलाया। ने इन उत्सवों के द्वारा लोकमान्य तिलक जन जागरण के अभियान को महाराष्ट्र के गाँव-गाँव और गली-गली तक ले गए।

यदि जनता जाग भी जाए, तो वह क्या कर सकती है। इसके लिए तिलक ने चार प्रकार के कार्यक्रम बताए ये कार्यक्रम हैं-

1. स्वदेशी- लोकमान्य के अनुसार राष्ट्रीय आन्दोलन का एक प्रमुख कार्यक्रम है, स्वदेशी आन्दोलन हमें विदेशी वस्तुओं और विदेशी संस्थाओं का बहिष्कार करना चाहिए। तिलक ने कहा- ‘स्वदेशी हमारी अन्तिम पुकार है और इसी के सहारे हम आगे बढ़ेंगे। शासन के मोर्चा लेने के दो ही उपाय हैं-स्वदेशी और बहिष्कार। तिलक चाहते थे कि भारत के लोग भारत में बने हुए माल का ही प्रयोग करें। इससे भारतीयों को अधिक काम मिलेंगे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर भी चोट पहुँचेगी। डॉ. लक्ष्मणसिंह के शब्दों में—“स्वदेशी का अर्थ था अपने ही देश की बनी हुई वस्तुओं का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं की तुलना में उन्हें प्राथमिकता देना। तिलक ने स्वदेशी का व्यापक अर्थ लेते हुए उसका प्रयोग, विचारों और जीवन पद्धति के रूप में किया ……….. .” परिणाम यह हुआ कि तिलक का चलाया हुआ स्वदेशी आन्दोलन धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय पुनरूद्धार का आन्दोलन बन गया। यह देश प्रेम की आवाज बन गया।

2. बहिष्कार – स्वदेशी आन्दोलन का दूसरा पक्ष है— बहिष्कार। हम अपनी वस्तुओं को तभी अपना सकते हैं जब हम विदेशी वस्तुओं का मोह त्यागें और उनका बहिष्कार करें। विदेश में बनी हुई वस्तुओं, विदेशियों द्वारा बनाई गई संस्थाओं के साथ-साथ हमें विदेशियों द्वारा भारत के लिए बनाए गए कानूनों का ही बहिष्कार करना चाहिए। तिलक ने कहा- ” -“तुम्हारे पास शस्त्र नहीं है। और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। बहिष्कार के रूप में हमारे पास एक अधिक शक्तिशाली शस्त्र है।” उन्होंने कहा – “तुम अपने ही ऊपर शासन करने में विदेशी सरकार की सहायता न करो। यही बहिष्कार है और यही हमारे कहने का आशय है कि बहिष्कार एक राजनीतिक शस्त्र है। हम कर वसूलने और शांति स्थापना करने में सहायता नहीं करेंगे।”

3. निषेधात्मक प्रतिरोध- बहिष्कार से मिलती-जुलती चीज है-निषेधात्मक प्रतिरोध। तिलक ने कहा कि भारतीयों को अंग्रेजी संस्थाओं का कानूनों का और आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए। इस स्थिति को सिविल नाफरमानी भी कहा जाता है। तिलक के अनुसार, ब्रिटिश राज की आज्ञाओं का उल्लंघन करके हम उनका प्रतिरोध कर सकते हैं और बुरी तरह परेशान कर सकते हैं। तिलक ने कहा- “हम सीमाओं से भारतीय रक्त और धन के साथ अंग्रेजों की सहायता नहीं करेंगे। हम न्याय प्रशासन के संचालन में उनकी मदद नहीं करेंगे। हमारे अपने न्यायालय होंगे।” इस प्रकार तिलक का निशेधात्मक प्रतिरोध का सिद्धान्त भी एक रचनात्मक सिद्धान्त था।

4. राष्ट्रीय शिक्षा- राष्ट्रीय आन्दोलन का तिलक के अनुसार रचनात्मक पक्ष यह है कि इसमें शिक्षा सोद्देश्य होनी चाहिए। शिक्षा का व्यापक प्रसार होना चाहिए। ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो विद्यार्थियों में राष्ट्रवाद की भावनाएँ भरे शिक्षा के द्वारा जन जागरण के अभियान को बहुत गति दी जा सकती है।

तिलक ने राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया। उनकी राष्ट्रीय शिक्षा आध्यात्मिक और धार्मिक शिक्षा पर आधारित थी। तिलक का कहना था कि लोगों को अपने महान ग्रन्थों पर श्रद्धा होनी चाहिए। अपने महापुरुषों पर गर्व होना चाहिए। यदि हम उन्हें जानेंगे ही नहीं, तो हम उनसे प्रेरणा कैसे लेंगे? तिलक के शब्दों में “किसी को अपने धर्म पर अभिमान कैसे हो सकता है, यदि व उससे अनभिज्ञ है।”

तिलक यह भी चाहते थे कि शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना सहज और स्वाभाविक है। तिलक सारे भारत में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी लाना चाहते थे। तिलक ने कहा था- “हमें सम्पूर्ण भारत के लिए एक भाषा बनानी चाहिए।” यहाँ, यह उल्लेख करना आवश्यक है कि तिलक हिंसात्मक और आतंकवादी साधनों के पक्ष में नहीं थे। वह मानते थे कि इन साधनों से हमें सफलता नहीं मिल सकती।

तिलक का रास्ता शांतिपूर्ण उग्रवाद का रास्ता था। इसी रास्ते पर चलकर भारत को आजादी मिली। वह सचमुच भारतीय स्वतन्त्रता की नींव थे। उग्रवाद के मसीहा थे। गांधीजी के शब्दों में “लोकमान्य नये भारत के निर्माता थे।”

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