राजनीति विज्ञान / Political Science

लोकमान्य तिलक के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार

लोकमान्य तिलक के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार
लोकमान्य तिलक के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार

लोकमान्य तिलक के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार

तिलक केवल एक प्रखर नेता ही नहीं उच्च कोटि के राजनीतिक और सामाजिक विचारक भी थे। उनका अध्ययन बहुत गहरा था। उनके लेखों, भाषण एवं पुस्तकों से स्पष्ट विदित होता है कि तिलक का चिन्तन बहुत प्रबुद्ध और मौलिक था। उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को उग्रवादी रूप प्रदान किया तथा साथ ही विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक विषयों पर अपने ओजस्वी विचार भी व्यक्त किए। अपने जेल जीवन के दौरान तिलक ने गीता रहस्य जैसी उत्तम पुस्तक लिखी तथा जेल के बाहर वह मराठा तथा केसरी में अपने विचार व्यक्त करते रहे। प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास के शब्दों में “राष्ट्रीय मंच पर तिलक का अद्भुत स्थान था। लोग स्नेह तथा सम्मान से उन्हें ‘लोकमान्य’ जनता प्रिय नायक कहकर पुकारते थे।” वेलन्टाईन शिरोल ने तो तिलक को “भारतीय अशांति का जनक कहा था।”

तिलक के विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक विचार संक्षेप में इस प्रकार थे-

स्वराज्य सम्बन्धी विचार

उदारवादियों के सर्वथा विपरीत तिलक ने कहा कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य ‘स्वराज्य’ प्राप्त करना है। तिलक चाहते थे कि भारत का शासन के राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य ‘स्वराज्य’ प्राप्त करना है। तिलक चाहते थे कि भारत का शासन पूरी तरह भारतीयों के हाथ में हो। उन्होंने कहा था “हम जो नये विचारों के लोग हैं, अपना झण्डा स्वराज्य से एक इंच भी नीचे नहीं रखेंगे।”

तिलक वे पहले भारतीय विचारक थे, जिन्होंने कहा था ‘स्विराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे।” तिलक केवल कुछ रियासतें प्राप्त करने से सन्तुष्ट नहीं थे। वह मानते थे कि कुछ सुधारवादी टुकड़ों से भारत को सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। भारत अतीत में एक महान देश रहा है। यह भारत की गरिमा के सर्वथा अनुकूल होगा कि हम पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करें। तिलक के शब्दों में, “स्वराज्य के बिना हमारा जीवन और धर्म व्यर्थ है।”

स्वदेशी की धारणा

लोकमान्य तिलक का कहना था कि भारत का उद्देश्य स्वराज्य करना अवश्य है, परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति याचनाओं और प्रार्थनाओं से नहीं हो सकती। इसके लिये शक्तिशाली संघर्ष करना पड़ेगा। भीख माँगने से स्वराज्य नहीं मिलता।

तिलक जन-आन्दोलनों के पक्ष में थे। स्वराज्य के संघर्ष में विजय तभी सम्भव है, जब व्यापक रूप से जनता उसमें भाग ले। इसके लिए वह सारे देश में जन जागरण अभियान चलाना चाहते थे। उन्होंने शिवाजी महोत्सव तथा गणेशोत्सव के माध्यम से जनता को जाग्रत किया। इसीलिये उन्हें ‘लोकमान्य’ कहा गया। स्वदेशी आंदोलन का मार्ग सुझाया, स्वदेशी आंदोलन के चार

संघर्ष के रूप में तिलक ने सोपान उन्होंने बताये, ये थे-(1) स्वदेशी (2) बहिष्कार, (3) निषेधात्मक प्रतिरोध (4) राष्ट्रीय शिक्षा।

1950 के बंग-भंग के पश्चात् तिलक ने इनका बहुत प्रचार किया। तिलक ने सिंहनाद करते हुए कहा – “स्वदेशी हमारी अन्तिम पुकार है। इसी के सहारे हम बढ़ेंगे। शासन से मोर्चा लेने के दो ही उपाय हैं—स्वदेशी और बहिष्कार।” उन्होंने कहा कि भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओं को अपनाना चाहिये तथा विदेशी वस्तुओं एवं कानूनों का बहिष्कार करना चाहिये। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा पर भी बल दिया। तिलक ने कहा “हमारा उद्देश्य स्वशासन है और इसे हम यथाशीघ्र प्राप्त करना चाहते हैं।”

स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार

एक राजनीतिक विचारक होने के नाते तिलक स्वतन्त्रता की अवधारणा से परिचित थे। उन्होंने स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार भी व्यक्त किये। परन्तु उनकी स्वतन्त्रता की धारणा पाश्चात्य धारणा से कुछ भिन्न थी। तिलक स्वतन्त्रता को राजनीतिक ही नहीं, आध्यात्मिक रूप में भी देखते थे। तिलक के शब्दों में, “स्वतन्त्रता स्वशासन की आत्मा है। स्वशासन की दैवी प्रवृत्ति कभी समाप्त नहीं होती। स्वतन्त्रता व्यक्तिगत आत्मा का प्राण है। इसे वेदान्त ने ईश्वर का रूप माना है।”

इसका अर्थ यह नहीं कि तिलक ने राजनीतिक स्वतन्त्रता की अपेक्षा की। बल्कि वह तो राजनीतिक स्वतन्त्रता को आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की आवश्यकता शर्त मानते थे। जो समाज राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र नहीं है, वह नैतिक और आध्यात्मिक रूप से स्वतन्त्र कैसे हो सकता. है।

राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार

तिलक एक राष्ट्रवादी विचारक थे। वह अपने देश को प्राचीन गौरवमय स्थान पर फिर से प्रतिष्ठित होते देखना चाहते थे।

एक राष्ट्रवादी के रूप में तिलक चाहते थे कि विश्व राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त बने ताकि विश्व में उसका सम्मान हो । तिलक ने कहा था “अपने विशाल भू-भाग, अपरिमित साधन और अपार जनसंख्या के आधार पर भारत विश्व की महान शक्ति बनने की आकांक्षा रखता है।”

तिलक हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते तथापि एक अच्छे हिन्दू होने के नाते उन्हें हिन्दू धर्म पर गर्व था। कई बार उन पर यह आरोप लगाया गया है, कि वह साम्प्रदायिक थे। इस आरोप की असत्यता का इसमें बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि जिन्ना ने कहा था ‘तिलक मेरे गुरू थे।’

तिलक के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों के बारे में एम. एन. राय ने कहा था “व्यक्तिगत रूप से उनकी गम्भीर आस्था भारतीय धर्म और संस्कृति में थी। एक सच्चे जन नेता के रूप में बिना किसी भेद-भाव के उन्होंने ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ को जगाना चाहा था।”

अन्तर्राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार

तिलक एक ऐसे राष्ट्रवादी थे जिनका अन्तर्राष्ट्रीयता में पूरा विश्वास था। वह अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में राष्ट्रवाद को पहला पड़ाव मानते थे। एक मानवतावादी विचाक के रूप में तिलक विश्व शांति में विश्वास करते थे। वह मानते थे कि राज्यों में परस्पर सहयोग की भावना द्वारा ही विश्व शांति सम्भव है। परन्तु इसके लिए वह सभी राज्यों का स्वतन्त्र होना जरूरी समझते थे। सभी राज्यों द्वारा विश्व शांति में सहयोग तभी दिया जा सकता है तब उन राज्यों पर किसी अन्य राज्य का शासन न हो। इस प्रकार तिलक साम्राज्यवाद के विरोधी थे।

सामाजिक विचार

एक विचारक के रूप में तिलक इस विषय में स्पष्ट थे कि जब तक समाज जागृत नहीं होगा, स्वतंत्र नहीं हो सकता। इसलिये उन्होंने सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में तथा समाज की जागृति के विषय में भी विचार व्यक्त किये। तिलक मानते थे कि समाज की जागृति के लिए सर्वाधिक आवश्यक हैं, राष्ट्रीय शिक्षा शिक्षा का बड़े पैमाने पर प्रसार होना चाहिये। शिक्षा ऐसी होनी चाहिये, जिससे बच्चों में देश-प्रेम की भावना विकसित हो और वह देश के लिये त्याग करने के लिये तैयार हो जाएँ।

तिलक समाज में छुआ-छूत के भी सख्त विरुद्ध । वह अस्पृश्यता को अधार्मिक और अनैतिक मानते थे। कोई भी समाज जो अपने ही भाई-बहनों से तिरस्कार करता है, कभी स्वस्थ समाज नहीं हो सकता। तिलक वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते हुए, अस्पृश्यता के विरोधी थे।

तिलक के चिन्तन में धर्म का भी विशेष स्थान था। उसका धर्म कोई संकुचित धर्म नहीं था। उन्होंने धर्म को कर्म और राष्ट्रीयता से जोड़ा है। तिलक ने गीता रहस्य के माध्यम से भारत की जनता में देश-प्रेम और कर्त्तव्य की भावनाएँ भरी हैं। बल्कि तिलक तो जनता में भगवान के दर्शन करते हैं।

आर्थिक विचार

तिलक का आर्थिक चिन्तन भी राष्ट्रवाद पर आधारित था। वह भारत की आर्थिक दुर्दशा से बहुत दुःखी थे और चाहते थे कि भारत की दरिद्रता समाप्त की जाये।

भारत की गरीबी के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को दोषी मानते थे। तिलक कहते थे कि इंग्लैण्ड के पूँजीपतियों को बसाने के लिये भारत के कुटीर उद्योगों को उजाड़ा जा रहा है।

तिलक भारत के मजदूरों के शोषण के भी विरुद्ध थे। पूँजीपति श्रमिकों को कम वेतन देते थे इससे नाराज होकर तिलक ने बम्बई के मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व भी किया था। इस हड़ताल के विषय में लेकिन ने भी प्रसन्नता प्रकट की थी और तिलक को भारत का सर्वहारी वर्ग का नेता माना था।

तिलक साम्यवाद के विरुद्ध नहीं थे। परन्तु, आर्थिक समस्याओं के प्रति उनका दृष्टिकोण मानवतावादी और धार्मिक भी था। तिलक ने कहा था “हिन्दू शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संचय करता है, वह पापी है।” इस तरह, तिलक समतावादी थे।

मूल्यांकन- इस प्रकार डॉ. नागपाल के शब्दों में, “भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में और आधुनिक भारतीय चिन्तन के इतिहास में लोकमान्य तिलक का एक युगीन स्थान है।”

एक विचारक के रूप में लोकमान्य तिलक का मूल्यांकन करते हुए डॉ. वी. पी. वर्मा ने कहा था— “तिलक ने राजनीति दर्शन के विचारक के रूप में हमें राष्ट्रीयता का नूतन सिद्धान्त प्रदान किया है। उन्हें इतना समय नहीं था कि वे राजनीति विज्ञान की अन्य धारणाओं– सम्प्रभुता, न्याय, सम्प्रदा, आदि पर व्यापक रूप से विचार कर सकें, यद्यपि इन सबकों संकेत उन्होंने दिया है। उनकी राष्ट्रीयता का सिद्धान्त प्राचीन एवं पाश्चात्य शिक्षाओं का सुन्दर समन्वय है। वे लोकतन्त्र में विश्वास करने वाले थे, अतः उनका जन समुदाय पर अद्वितीय प्रभाव था। उन्होंने राजनीति के लिये आदर्शवादी या अमूर्त चिन्तन नहीं अपनाया था, वे यथार्थवादी पंथ के अग्रणी थे किन्तु वे शक्ति प्रवंचना और तात्कालिक सफलता में विश्वास नहीं रखते थे। अतः हम उनके राज्य दर्शन को लोकतान्त्रिक यथार्थवाद कहते हैं, जिसका आधार राष्ट्रीयता है।

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